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संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(8) लब्ध्वा मनुष्यतां धर्मं, शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः।
वीर्यं स च समासाद्य, धुनीयाद् दुःखमर्जितम्।।
पुरुषार्थ
(क्रमशः) जानन्ति केचिद् न तु कर्त्तुमीशाः, कर्त्तुं क्षमा ये न च ते विदन्ति।
जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कर्त्तुं, ते केऽपि लोके विरला भवन्ति।।
सत्य की दिशा में वीर्य को प्रवाहित करना अतिदुष्कर है। गीतों में भी कहा है-‘मनुष्याणां सहòेषु कश्चिद् यतते सिद्धये’-हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। कुछ लोग जानते हैं किंतु आचरण करने में अक्षम होते हैं। कुछ लोग करने में समर्थ हैं किंतु जानते नहीं हैं। तत्त्व को जानते हों और आचरण के लिए भी प्रयत्न करते हों-ऐसे व्यक्ति संसार में विरल होते हैं। गलत दिशा में चलने के लिए अनेक सहयोगी और मित्र मिल सकते हैं, किंतु सही दिशा-सहायक मिलना कठिन होता है। घेरे से बाहर निकलना बड़ा जटिल है और फिर पुरुषार्थ के मध्य में अनेक अड़चनें खड़ी हो जाती हैं। कुछ व्यक्ति की अपनी दुर्बलता होती है, बाहर से सहयोग भी वैसा मिल जाता है। अपने बने-बनाए समस्त घरों और ममत्व को जलाने की क्षमता हो तभी यह संभव है। कबीर ने कहा है-
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जाले आपना, चलो हमारे साथ।।
जो अपने घर को जला सकता है वह हमारे साथ आए। क्राइष्ट ने कहा है-जो अपने को बचाता है वह खो देता है और जो अपने को खोने के लिए तैयार है वह पा लेता है। सत्य के मार्ग में मनुष्य में मुख्य विघ्न हैं-आलस्य, इंद्रिय-विषयों के सेवन में रस और कर्तव्य के प्रति उदासीनता। पुरुषार्थ ही मार्ग को सरल और मंजिल को सन्निकट करता है।
इस चतुष्टयी का सम्यक् अवबोध अपेक्षित है और मनुष्य जीवन में जिस परम सत्यता का बीज छिपा है उसे प्रकट करना भी। बीज वृक्ष बने इसी में जीवन की सफलता निहित है।
(9) शोधिः ऋजुकभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य निष्ठति।
निर्वाणं परम याति, धृतसिक्त इवानलः।।
शुद्धि उसे प्राप्त होती है जो सरल होता है। धर्म उसी आत्मा में ठहरता है, जो शुद्ध होती हो। जिस आत्मा में धर्म होता है, वह घी से सींची हुई अग्नि की भाँति परम दीप्ति को प्राप्त होती है।
साधु कौन होता है? महावीर कहते हैं-‘मैं उसे साधु कहता हूँ जो सरल, सीधा होता है, अनासक्त होता है, ऊर्जा को स्वयं के जागरण में नियोजित करता है।’ साधु और वक्र-ये दोनों एक चौखटे में नहीं बैठते। सरलता शुद्धि का पहला चरण है। असरल होकर आदमी ने कुछ पाया नहीं, खोया है। लोक और परलोक दोनों उसके हाथ से निकल जाते हैं। बुद्ध ने कहा है-समुद्र को कहीं से चखो वह खारा ही खारा है। ठीक साधु को किसी तरह कहीं से देखो, ऋजुता के सिवाय और कुछ नहीं। धर्म का अवतरण सरलता में होता है। जैसे ही व्यक्ति सरल बनता है कि धर्म का मेघ बरसने लगता है, धर्म विराजमान हो जाता है, दिव्यता प्रकट हो जाती है।
लाओत्से ने कहा है-‘संत फिर से बच्चे होते हैं। बच्चे-बच्चे होते हैं किंतु अज्ञान के कारण। जैसे ही बड़े होते हैं-बचपन चला जाता है। फिर वह भोलापन, सरलता नहीं रहती। उस पर बुद्धि सवार हो जाती है, भय सवार हो जाता है और वहाँ जीवन का बहाव खत्म हो जाता है। सरलता बहाव है। बहाव में पवित्रता है, वह स्थिरत्व में नहीं होती। वर्तमान का जीवन नष्ट हो जाता है। संत फिर से बच्चे हो जाते हैं, अज्ञानपूर्वक नहीं, ज्ञानपूर्वक। वे अपने को इतना स्वच्छ कर लेते हैं कि अब कोई चीज छिपाने जैसी रहती ही नहीं और अतीत और अनागत से मुक्त होकर प्रतिक्षण में जीना प्रारंभ कर देते हैं।
हर्मन हेस ने कहा है-‘जीवन बोध से शून्य सामान्य जन और जीवन की समस्त ज्ञान गरिमा से संपन्न रागातीत परमहंस के मुख-मंडल पर खिलने वाले निश्छल हास्य में कोई अंतर नहीं होता।’ (क्रमशः)