उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

श्रावक श्री बहादुरमलजी भंडारी

किसनमलजी अपने दल के साथ लाडनूं पहुँचे। लोगों ने प्रतिरोध की तैयारी की। किसनमलजी भंडारी ने आगे बढ़कर अपना परिचय दिया। उससे सभी लोग पूर्णतः आश्वस्त हो गए। किसनमलजी ने जयाचार्य के दर्शन किए। उन्होंने जोधपुर में घटित घाटना-चक्र के विषय में पूरी अवगति प्रदान की। बाहर एकत्रित हुई जनता को भी सारी स्थिति बतलाई। संकट के बादल छंट जाने से सभी आकृतियों पर एक सुखद आह्लाद की लहर दौड़ गई।
कुछ दिनों के पश्चात् बहादुरमलजी भंडारी ने लाडनूं में जयाचार्य के दर्शन किए। आचार्यश्री ने उनकी सामयिक सेवा की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसके लिए उन्हें पुरस्कृत करना चाहा। उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में उन्हीं से पूछा-‘इस सेवा का तुम्हें क्या पारितोषिक दिया जाए? यदि तुम साधु जीवन में होते तो युवाचार्य पद देना भी इसके लिए कम ही होता।’
भंडारी ने अत्यंत नम्रता से निवेदन किया-‘साधु जीवन का सामर्थ्य मरेे में नहीं है। इस साधारण-सी सेवा के लिए आप इतना फरमा रहे हैं, वह तो आपकी कृपा है।’ जयाचार्य ने फिर भी उन्हें कुछ देना चाहा तो उन्होंने आगामी चातुर्मास जोधपुर में कराने की प्रार्थना की। जयाचार्य ने उसे तत्काल स्वीकार कर लिया और आगामी सं0 1921 का चातुर्मास जोधपुर में किया।
क्षायक सम्यक्त्व
एक व्यक्ति किसी गापव में पटवारी था। भंडारीजी के यहाँ उसका आना-जाना था। उसने तेरापंथी साधु-साध्वियों का वहाँ भारी आदर होते देखा तो मन ही मन जल-भुन गया। तेरापंथ के प्रति उसके मन में बहुत विद्वेष था। एक बार उसने भंडारीजी से कहा-‘आप इन साधु-साध्वियों का इतना आदर करते हैं, परंतु ये तो शिथिलाचारी होते हैं। मैं जिस गाँव में हूँ, वहाँ एक सिंघाड़ा आया था। गाँव में उन्हें प्रासुक पानी नहीं मिला, तब वहाँ से विहार कर गए। मैंने स्वयं देखा कि गाँव के बाहर कुएँ पर उन्होंने पानी लिया और पीकर आगे चल दिए।’
भंडारीजी ने कहा-‘तो फिर वे तेरापंथी साधु नहीं हो सकते। किसी अन्य संप्रदाय के साधुओं को तुमने भ्रमवश तेरापंथी समझ लिया है।’ पटवारी बोला-‘मैंने उनसे पूछा था। उन्होंने स्वयं को तेरापंथी साधु ही बतलाया।’ भंडारी जी ने कहा-‘अप्रासुक पानी लेते तथा पीते समय देख लिए जाने पर उन्होंने अपने बचाव के लिए तेरापंथी का नाम ले लिया है।’ पटवारी ने कहा-‘मैं सच कह रहा हूँ, आप विश्वास करिए।’ भंडारीजी बोले-‘मुझे पक्का विश्वास है कि तुम जो कह रहे हो उसमें राईभर भी सत्य नहीं है।’
कालांतर में किसी व्यक्ति ने जयाचार्य को उक्त बात सुनाई, तो उन्होंने फरमाया-
‘ये क्षायक सम्यक्त्व के लक्षण हैं, अन्यथा इतना प्रगाढ विश्वास हो पाना कठिन है।’
अनुश्रुति में तो यहाँ तक प्रसिद्ध है कि बहादुरमलजी ने तीर्थंकर गोत्र का बंधन कर लिया था। घटना सं0 1928 की बतलाई जाती है। उस वर्ष जयाचार्य का चातुर्मास जयपुर में था। एक दिन रात्रिकाल में उन्हें किसी दिव्य वाणी से यह सूचना मिली कि उनके तीन श्रावकों ने तीर्थंकर गोत्र का बंधन किया है। उनमें प्रथम भैंरूलालजी सींधड़ (जयपुर) ने गुरु-भक्ति में, द्वितीय ताराचंदजी ढीलीवाल (चित्तौड़) ने पात्रदान में तथा तृतीय बहादुरमलजी भंडारी (जोधपुर) ने धर्म-प्रभावना में उत्कृष्ट रसायन आने से यह महत्ता प्राप्त की है।

अंतिम समय
बहादुरमलजी के लिए जयाचार्य का युग सांसारिक और धार्मिक दोनों ही दृष्टियों से पूर्ण सक्रियता और विकास का युग रहा। उनके दिवंगत होने के पश्चात् उन्हें भी अपना वार्धक्य बार-बार याद आने लगा। शरीर की क्रमिक शिथिलता उनके मानस को निरंतर प्रभावित करती चली गई। सत्तरवें वर्ष-प्रवेश के बाद तो उन्हें ऐसा आंतरिक भान होने लगा कि मानो अब दूसरा किनारा आने ही वाला है। उन्होंने अपनी अंतःप्रेरणा के संकेतों को लक्षित किया और अपने बड़े पुत्र किसनमलजी को सं0 1941 के मर्यादा महोत्सव पर मघवागणी के दर्शन करने हेतु लाडनूं भेजा। उन्होंने प्रार्थना करवाई कि आगामी चातुर्मास आप जोधपुर करवाने की कृपा करें ताकि मुझे इस वार्धक्य में सेवा का अंतिम अवसर प्राप्त हो सके। (क्रमशः)