उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

श्रावक श्री रूपचंदजी सेठिया
पहले कुछ वर्षों तक वे भोजन के लिए चाँदी की थाली तथा कटोरियों का प्रयोग करते थे, परंतु बाद में उन्हें वह अपनी सादगी के लक्ष्य से विपरीत अनुभव होने लगा तब पत्थर की थाली और कटोरी का प्रयोग करने लगे। भोजनोपरांत हाथ धोते समय थाली और कटोरी को भी धो लेते और वह पानी पी जाते। घर के बर्तनों का धोवन तथा जूठा पानी या तो पशुओं को पिला दिया जाता या धूप में गिरा दिया जाता था। उसे एक जगह इकट्ठा करके रखना उन्हें पसंद नहीं था। वैसा करने में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति तथा हिंसा होने की संभावना रहती थी। श्लेष्म आदि थूकने का काम पड़ता तो एक तरफ मिट्टी की जगह में थूकते और उस पर मिट्टी डाल देते। पुरानी परंपरा के अनुसार वे अपने शरीर के दही लगाकर स्नान किया करते थे। स्नान के उस चिकने पानी को भी एक बर्तन में इकट्ठा करवा कर धूप में गिरवा देते। स्नान करने में वे परिमित पानी का ही प्रयोग किया करते। पहले कुछ वर्षों तक तो पाँच सेर पानी काम में लेते, परंतु पीछे घटाते-घटाते पैंतालीस तोले का ही प्रयोग करने लगे।
वे रुई भरा वस्त्र न ओढ़ते-पहनते और न बिछाते थे। सर्दी में भी तेईस हाथ से अधिक कपड़ा रात को काम में नहीं लेते थे। दिन तथा रात में अपने उपयोग में आने वाले वस्त्र का उनका प्रमाण उनसठ हाथ था। प्रतिदिन सामायिक तथा दोनों समय प्रतिक्रमण किया करते थे। कहीं दूसरे गाँव जाने का अवसर होता तो मार्ग में भी प्रतिक्रमण के समय सवारी से उतर जाते और शुद्ध जगह देखकर प्रतिक्रमण करते। प्यास उन्हें कुछ अधिक लगा करती थी, फिर भी निरंतर चौविहार किया करते। सं0 1972 के बाद उन्होंने रेल पर चढ़ने का परित्याग कर दिया। उनके बाद जहाँ भी जाते ‘बहली’ से जाया करते। मरणासन्न स्थिति में भी विदेशी औषध लेने का त्याग था। पारणा के सिवा शेष समय सदैव प्रहर दिन के बाद ही भोजन करते।
वे अचित्त पानी ही पीया करते थे। उसे प्रातः सायं दोनों समय छनवाते। इतना ही नहीं, उनके सारे घर का पानी भी दोनों समय छाना जाता था। हवेली चिनवाई गई, उसमें जितना भी पानी लगा, वह सारा छानकर ही काम में लिया गया। उनमें अतुलनीय पाप-भीरूता थी। छोटे से छोटे कार्य में भी पूरी सावधानी बरतते और विवेक से काम लेते। सचित्त वस्तु के स्पर्श से वे प्रायः स्वयं को बचाते रहते। मार्ग में यदि कोई सचित्त वस्तु पड़ी होती तो वे उससे बचकर निकलते। नख आदि कटवाते तो उन्हें धूल में नीचे गड़वा देते ताकि चावल समझकर भूल से खा लेने पर किसी पंखी के गले में अटक न जाए। घर में घृत, तेल, चासनी, पानी आदि को उघाड़ा नहीं रहने देते। किसी भी मीठी वस्तु के टपके कहीं गिर जाते तो उन्हें अचित्त पानी से तत्काल धुलवाकर साफ करवा देते।
उनके संस्कार बहुत उन्नत थे। हर कार्य में जैन संस्कारों को प्रमुखता देना उनका स्वभाव था। देव-सहाय की याचना को वे मानसिक दीनता मानते थे। अपनी समस्याओं का अपने ही बल पर हल निकालना उन्हें पसंद था। साधारणजन जहाँ कार्य-सिद्धि के लिए जैन-जैनेत्तर सभी देवों को पूजते हैं, वहाँ वे किसी भी देवी अथवा देवता को नमस्कार तक नहीं करते थे, चढ़ावा तथा सीरणी की तो बात ही क्या हो सकती थी। परिवार में विवाह आदि प्रसंग पर यदि कोई ब्राह्मण को बुलाता तो वे उसका विरोध तो नहीं करते, परंतु विवाह के समय बुलाए जाने पर भी वे वहाँ जाकर नहीं बैठते। मृतक व्यक्ति के फूल गंगाजी में डाले जाने चाहिए-यह बात सामान्य जनों में बहुत प्रचलित है, परंतु उनका उस बात पर कोई विश्वास नहीं था। इसी प्रकार कागोल की प्रथा को भी वे एक कुसंस्कार माना करते थे।

(क्रमशः)