मनोनुशासनम्
इनका संबंध पार्थिव, तैजस, वायवीय और जलीज तत्त्वों से है। साधक ध्यान करने के लिए बैठे और यदि उसे दैहिक धारणाओं के द्वारा पिंडस्थ ध्यान का अभ्यास करना हो तो वह सर्वप्रथम किसी विशाल और निर्मल स्थान पर बैठने की अनुभूति करे और उस अनुभूति को इतना पुष्ट बनाए कि उसे प्राप्त अनुभूति में तन्मयता प्राप्त हो जाए। उस विशाल और निर्मल आसन पर स्थित होकर अपने पार्थिव शरीर में असीम शक्ति का अनुचिंतन करे। यह धारणा की पहली कक्षा-पार्थिवी धारणा है।
आचार्य रामसेन पिंड (देह) की सिद्धि और शुद्धि के लिए मारुती, तैजसी और जलीय-इन तीनों धारणाओं को मान्य करते हैं-
तत्रादौ पिंड-सिद्ध्यर्थं, निर्मलीकरणाय च।
मारुतीं तैजसीमाप्यां, विदध्याद् धारणां क्रमात्।।
- तत्त्वानुशासन-183
शरीर में अग्नि का स्थान मणिपुर चक्र या नाभिकेंद्र है। हमारे तैजस शरीर का मुख्य केंद्र यही है। इस स्थान में तैजस का दृढ़ और चिरंतन चिंतन करने से तैजस शरीर जागृत और अधिक क्रियाशील हो जाता है। दृढ़ संकल्प के द्वारा उसे सक्रिय बनाकर उसके द्वारा समस्त दोषों के क्षय होने का अनुभव किया जाता है। इस प्रकार आग्नेयी धारणा के द्वारा दोषक्षय की क्रिया संपन्न की जाती है।
इसके पश्चात् तीसरी कक्षा में मारुती धारणा का उपयोग किया जाता है। पवन का काम सफाई करना है। आग्नेयी धारणा के द्वारा दोषों का दहन होने पर जो भस्म हो जाती है, उसे शरीर के बाहर ले जाने के लिए मारुती धारणा का प्रयोग किया जाता है। समूचे शरीर में चारों ओर से तेज हवा का प्रवेश हो रहा है और वह नाभिकमल स्थित भस्म को उड़ाकर बाहर ले जा रही है। इस प्रकार की तीव्र अनुभूति करते-करते साधक को आत्मस्थता का अनुभव होने लगता है।
चौथी कक्षा में अवशेषों की शुद्धि के लिए वारुणी धारणा का उपयोग किया जाता है। मारुती धारणा के द्वारा दोष-भस्म को बाहर ले जाने पर भी जो कुछ शेष रह जाता है, उसे वारुणी धारणा के द्वारा साफ कर दिया जाता है। साधक अनुभव करता है कि गहरे बादल उमड़ रहे हैं। घनघोर वृष्टि हो रही है। उसका जल शरीर में प्रवेश कर नाभिकमल को पखाल रहा है और वह अत्यंत निर्मल हो रहा है। इस निर्मलता की अनुभूति के साथ अपने आत्मस्वरूप की निर्मलता में विलीन हो जाए और फिर धारणा से ध्यान की स्थिति में पहुँच जाए।
धारणा के अनेक रूप और प्रकार हो सकते हैं। इसलिए इसकी व्याख्या भी अनेक रूपों में की गई है।
पार्थिवी द्रव्यों-चित्र, मूर्ति आदि पर चित्त को स्थिर करना पार्थिवी धारणा है।
दीप आदि तेजोमय पदार्थ पर दृष्टि को स्थिर करना आग्नेयी धारणा है।
वायु के स्पर्श का श्वास-प्रश्वास पर मन को स्थिर करना मारुती धारणा है।
जलाशय के तट पर बैठकर शांत जल पर दृष्टि को स्थिर करना वारुणी धारणा है।
धारणा ध्यान की प्रथम तैयारी है। इसमें चित्त पूर्णतः स्थिर नहीं होता किंतु वह एक दिशा में होते-होते ध्यान की पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर देता है। फिर साधक धारणा से मुक्त होकर ध्यान की कक्षा में चला जाता है।
पदस्थ ध्यान
यह ध्यान पदों-मंत्रों व बीजाक्षरों के आलंबन से किया जाता है। पिण्डस्थ ध्यान जैसे देहावलम्बी है, वैसे पदस्था ध्यान शब्दावलम्बी है। पिण्डस्थ ध्यान में देहवर्ती चैतन्य केन्द्र, देह की अनुप्रेक्षा तथा देह और आत्मा की पृथकता- ये मुख्य ध्येय बनते हैं। पदस्थ ध्यान में शब्द की सूक्ष्म शक्ति, उसके सुक्ष्म और स्थूल उच्चारण की प्रक्रिया और शब्दवर्ती अर्थ के साथ तन्मयता -ये मुख्य ध्येय होते हैं। इस ध्यान के आधार पर ध्यान-मंत्रों का पर्याप्त विकास हुआ है। जप भी शब्दावलम्बी होता हैै और पदस्थ स्थान भी ष्शब्दावलम्बी होता है। ये दोनों किसी रेखा पर भिन्न होते हैं और किसी पर अभिन्न हो जाते हैं। जप का अर्थ है- शब्द की अर्थात्मा में तन्मय हो जाना। पदस्थ ध्यान में भी यही तन्मयता अपेक्षित है।
तप के तीन प्रकार हैं : 1- वाचित 2- उपांशु 3- मानसिक
उच्चारणपूर्वक किया जाने जप वाचिक होता है। मन्द उच्चारण होंठों से बाहर न निकलने वाले उच्चारण के द्वारा जप उपांशु होता है। उच्चारण से अतीत केवल मानसिक चिंतन के रूप में किया जाने वाला जप मानसिक होता है। वाचिक जप से उपांशु और उपांशु जप से मानसिक जप में शब्द की ऊर्मियां सूक्ष्म होती है और सूक्ष्म होने के कारण वे अधिक शक्तिशाली होती हैं। इसी आधार पर वाचिक की अपेक्षा उपांशु और उपांशु की अपेक्षा मानसिक जप अधिक शक्तिशाली होता है।
जप पदस्थान की ध्यान की पूर्वावस्था है। प्रारंभ में वाचिक जप का अभ्यास करना चाहिए। उसका अभ्यास हो जाने पर उपांशु का अभ्यास होना चाहिए। उसके पश्चात् मानसिक जप का अभ्यास करना चाहिए। मानसिक जप की अवस्था जब ध्येय पर एकाग्र हो जाती है, तब वह पदस्थ ध्यान के रूप में वह सूक्ष्म हो जाता है। मानसिक जप में वह चिंतन का आकार ले लेता है। पदस्थ ध्यान में वह दृश्य बन जाता है।
पदस्थ ध्यान के लिए इष्ट मंत्रों का चुनाव अपनी भावना, रुचि और श्रद्धा के आधार पर किया जा सकता है।
रूपस्थ और रूपातीत ध्यान
द्रव्य दो प्रकार के होते हैं- रूपी और अरूपी। आत्मा अरूप है। पुद्गरूपी है। वह रूपी होने के कारण इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। आत्मा का इन्द्रिय के द्वारा इसलिए ग्रहण नहीं होता कि वह अरूप है। ध्यानकाल में ये दोनों प्रकार के द्रव्य ध्येय बनते हैं। रूपी ध्येय स्थूल होता है। और अरूपी ध्येय सूक्ष्म। इसीलिए साधक प्रारंभ में रूपी ध्येय का आलम्बन लेता है। उस पर मन की एकाग्रता सध जाने पर वह अरूपी ध्येय पर ध्यान का अभ्यास करता है। रूपी ध्येय में परमाणु से लेकर किसी बड़े आकार का आलम्बन लिया जा सकता है। वैसे पिण्डस्थ ध्यान भी रूपस्थ ध्यान से भिन्न नहीं है। शरीर स्वयं रूपी है। उस पर ध्यान करना रूपस्थ ध्यान ही है। शब्द रूपी है। उन पर ध्यान करना भी रूपस्थ ध्यान है।
किन्तु शरीर और शब्द की अपनी विशेषता है, इसलिए उन्हें रूपस्थ ध्यान से पृथक स्थान दिया गया है। शरीर में चैतन्य की अभिव्यंजना होती है, इसलिए बाहरी रूपी ध्येयों की अपेक्षा शरीरगत ध्येय अधिक सफल होता है। शब्द का भी चैतन्य केन्द्र से निकट का सम्बन्ध होता है, इसलिए उसका भी अपना विशेष महत्व है। शरीर और शब्द के अतिरिक्त शेष जितने रूपी ध्येय होते हैं, वे सब रूपस्थ ध्येय की कोटि में आते हैं।
रूपातीत ध्यान में अरूप आत्मा का आलम्बन लिया जाता है। हम उसे साक्षात् देख नहीं पाते हैं। शाब्दिक ज्ञान के द्वारा उसके स्वरूप निश्चित कर उस पर मन को एकाग्र करते हैं। रूपातीत ध्यान शाब्दिक भावना के माध्यम से होता है। वह माध्यम निरालम्बन ध्यान की स्थिति में ही छूट सकता है।
आचार्य रामसेन ने रूपस्थ और रूपातीत दोनों को पिण्डस्थ ध्यान माने जाने के अभिमत का उल्लेख किया है। उसका आशय यह है कि ध्येय-अर्थ ध्याता के पिण्ड (देह) में स्थित होकर ही ध्यान का विषय बनता है, इसलिए चेतन और अचेतन दोनों का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान कहलाता हैः
ध्यातुः पिण्डस्थितश्चैव, ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः।
ध्येयं पिण्डस्थमित्याहुरतएव च केचन।।
-तत्त्वानुशासन -134
26- निर्विचारं निरालम्बनम्।।
26- निर्विचार (विचारातीत, भावातीत या विकल्पातीत) ध्यान को निरालम्बन कहा जाता है।
निरालम्बन ध्यान
सालम्बन ध्यान का अभ्यास करते-करते मन दीर्घकाल तक एकाग्र होने लग जाता है। एकाग्रता की अन्तिम परिणति विचार-शुन्यता है। ध्यान के आरंभ काल में किसी एक लक्ष्य पर चित्त की एकाग्रता होती है और अन्त में वह लक्ष्य छूट जाता है। केवल चित्त स्थिरता रह जाती है। इसीलिए अनेक साधकों का यह अनुभव है कि सालम्बन ध्यान में योग्यता प्राप्त कर लेने पर निरालम्बन ध्यान की योग्यता स्वयं प्राप्त हो जाती है।
कुछ साधक भिन्न प्रकार से सोचते हैं। उनका चिंतन है कि सालम्बन ध्यान परावलम्बी ध्यान है। उनकी दृष्टि में उसकी उपयोगिता नहीं है। उनका मानना है कि प्रारंभ से ही विचार-शुन्यता का अभ्यास करना चाहिए।
विचार शुन्यता ध्यान की वास्तविक स्थिति है, इसमें कोई सन्देह नहीं। सालम्बन ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न होते हैं, जबकि निरालम्बन ध्यान में ध्याता और ध्येय के बीच में कोई भेद नहीं होता। सालम्बन ध्यान में चित्त बाह्य विषयों पर स्थित होता है जबकि निरालम्बन ध्यान में वह आत्मगत हो जाता है- जिस चैतन्य केन्द्र से वह प्रवाहित होता है, उसी में जाकर विलीन हो जाता है। निरालम्बन ध्यान से आत्मा की आवृत और सुषुप्त शक्तियां जितनी जागृत होती हैं, उतनी सालम्बन ध्यान से नहीं होती। सालम्बन ध्यान का प्रभाव मुख्य रूप से नाड़ी-संस्थान और चित्त पर होता है। निरालम्बन ध्यान का मुख्य प्रभाव चैतन्य केन्द्र पर होता है।
प्रश्न केवल क्षमता का है। यदि किसी साधक में निरालम्बन ध्यान की क्षमता सहज हो तो उसे सालम्बन ध्यान की अपेक्षा नहीं होगी किन्तु जो साधक प्रारंभ में निरालम्बन ध्यान न कर सके उसके लिए इस अभ्यास का महत्व है कि वह सालम्बन ध्यान के द्वरा निरालम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त करें।
निरालम्बन ध्यान की कुछ पद्धतियां हैं। उन्हें जान लेने पर उसका अभ्यास सहज हो जाता है। उनका पहला अंग है- प्रयत्न की शिथिलता। सालम्बन ध्यान में जैसे शरीर वाणी और श्वास का प्रयत्न भी शिथिल कर दिया जाता है। निरालम्बन ध्यान वस्तुतः अप्रयत्न की स्थिति है।
(क्रमशः)