मनोनुशासनम्‌‍

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्‌‍

नाम                   प्रकृति
गहरा नीला या आसमानी ठंडा
शुभ्र (बनफशी) न गर्म, न ठंडा
इनमें नारंगी लाल रंग के परिवार का रंग है। बैंगनी और जामुनी रंग नील रंग के परिवार के अंग हैं ।
रंगों का शरीर पर प्रभाव
लाल ः स्नायुमण्डल को स्फूर्ति देना ।
नीला ः स्नायविक दुर्बलता, धातुक्षय, स्वप्नदोष में लाभ पहुंचाना और हृदय तथा मस्तिष्क को शक्ति देना।
पीला ः मस्तिष्क की शक्ति का विकास, कब्ज, यकृत और प्लीहा के रोगों को शान्त करने में उपयोगी।
हरा ः ज्ञान-तन्तुओं और स्नायुमण्डल को बल देना, वीर्य रोग के उपशमन में उपयोगी।
गहरा नीला ः गर्मी की अधिकता से होने वाले आमाशय सम्बन्धी रोगों के उपशमन में उपयोगी।
शुभ्र ः नींद के  लिए उपयोगी ।
नारंगी ः दमा तथा वात-व्याधियों के रोगों को मिटाने में उपयोगी।
बैंगनी ः शरीर के तापमान को कम करने में उपयोगी ।
रंगों का मन पर प्रभाव
काला ः मनुष्य में असंयम, हिंसा और क्रूरता का विचार उत्पन्न करता है। 
नीला ः मनुष्य में ईर्ष्या, असहिष्णुता, रस-लोलुपता और आसक्ति का भाव उत्पन्न करता है ।
कापोत ः मनुष्य में वक्रता, कुटिलता और दृष्टिकोण का विपर्यास उत्पन्न करता है
अरुण ः मनुष्य में ऋजुता, विनम्रता और धर्म-प्रेम उत्पन्न करता है 
पीला ः मनुष्य में शान्ति, क्रोध-मान-माया और लोभ की अल्पता व इन्द्रिय-विजय का भाव उत्पन्न करता है।
सफेद ः मनुष्य में गहरी शान्ति और जितेन्द्रियता का भाव उत्पन्न करता है।
मानसिक विचारों के रंगों के विषय में एक दूसरा वर्गीकरण भी मिलता है,
जिसका प्रथम वर्गीकरण के साथ पूर्ण सामंजस्य नहीं है। यह इस प्रकार है ः
 
विचार रंग
भक्ति विषयक आसमानी
कामोद्वेग विषयक लाल
तर्क-वितर्क विषयक पीला
प्रेम विषयक गुलाबी
स्वार्थ विषयक हरा
क्रोध विषयक लाल - काले रंग का मिश्रण
इन दोनों वर्गीकरणों के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक रंग दो प्रकार का होता है रू
1.  प्रशस्त 2. अप्रशस्त
कृष्ण, नील और कापोत अप्रशस्त कोटि के ये तीनों रंग मनुष्य के विचारों पर बुरा प्रभाव डालते हैं तथा अरुण, पीला और सफेद प्रशस्त कोटि के ये तीनों रंग मनुष्य के विचारों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं।
क्रोध से अग्नि तत्त्व प्रधान हो जाता है । उसका वर्ण लाल है। मोह से जल तत्त्व प्रधान हो जाता है। उसका वर्ण सफेद या बैंगनी है । भय से पृथ्वी तत्त्व प्रधान हो जाता है। उसका वर्ण पीला है । प्रशस्त लेश्याओं के जो वर्ण हैं, उनकी प्रधानता क्रोध आदि से होती है। इन दोनों निरूपणों में विरोधाभास है।  इससे यह जानने के लिए अवकाश मिलता है कि लाल, पीला और सफेद वर्ण अच्छे विचारों को उत्पन्न नहीं करते, किन्तु प्रशस्त कोटि के लाल, पीला और सफेद वर्ण ही अच्छे विचारों को उत्पन्न करते हैं । नमस्कार मंत्र के जप के साथ जिन रंगों की कल्पना की जाती है, उनसे भी यही तथ्य प्रमाणित होता है। जैसे
णमो अरहंताणं श्वेत वर्ण
णमो सिद्धाणं रक्त वर्ण 
णमो आयरियाण पीत वर्ण
णमो उवज्झायाणं हरित वर्ण
णमो लोए सव्व साहूणं कृष्ण वर्ण
लेश्या के प्रसंग में कृष्ण वर्ण को सर्वाधिक निकृष्ट माना गया है किन्तु मुनि के साथ कृष्ण वर्ण की योजना की गई है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि ष्ण लेश्या (निष्टतम चित्त वृत्ति) को उत्पन्न करने का हेतु अप्रशस्त ष्ण वर्ण बनता है। मुनि के साथ जिस ष्ण वर्ण की योजना की गई है, वह प्रशस्त है । 
साधक को वैचारिक पवित्रता, भावना-शुद्धि तथा बौद्धिक व आध्यात्मिक विकास के लिए रंगों का मानसिक अनुचितन करना चाहिए। मुख्यतया अनुचितनीय वर्ण ये हैं अरुण, पीत और श्वेत। मन की एकाग्रता के लिए आकाश में दृष्टि टिकाना बहुत उपयोगी है। मुनि का ध्यान करते समय कृष्ण वर्ण का अनुचितन करना बहुत उपयोगी है। सामान्यतया कृष्ण वर्ण दीनता का सूचक है। किन्तु उसकी एक विशेषता यह हैं कि वह बाहर से आने वाली रश्मियों को अपने में केन्द्रित कर लेता है, इसलिए उसका अनुचितन करने वाला बाहरी प्रभावों से अपने आप को बचा लेता है।
मानसिक विकास और रंग
एकान्त में बैठकर आखें मूंदकर दस मिनट तक मस्तिष्क में पीत वर्ण का ध्यान करने से ओज बढ़ता है और मस्तिष्क बलवान होता है। आंखें मूंदकर पीले रंग की ज्योति का ध्यान करने से आलस्य दूर होता है और बुद्धि तीव्र होती है ।
पांचवा प्रकरण
1. प्राणापान-समानोदान-व्याना: पंच वायव:॥
2. नासाग्र-हृदय-नाभि-पादांगुष्ठान्तगोचरो नीलवर्ण: प्राण:॥
3. पृष्ठ- पृष्ठान्त - पार्ष्णिग: श्यामवर्ण: अपान:॥
4. सर्वसन्धि-हृदय- नाभिग: श्वेतवर्ण: समान:॥
5. हृदय-कण्ठ-तालु - शिरोन्तरगो रक्तवर्ण: उदान:॥
6. सर्वत्वग्वृत्तिको मेघधनुस्तुल्यवर्णो व्यान:॥
प्रधानत: वायु के पांच प्रकार हैं ः
1. प्राण
2. अपान
3. समान
4. उदान
5. व्यान
2. नासिका के अग्रभाग, हृदय, नाभि और पैरों के अंगूठे तक व्याप्त रहने वाला वायु प्राण कहलाता है। इसका वर्णं नील होता है।
3. पीठ, पीठ के अन्त्य भाग और पाष्णियों (एड़ियों) में परिव्याप्त वायु अपान कहलाता है । इसका वर्ण श्याम होता है।
4. सारे सन्धि-भागों, हृदय तथा नाभि में विचरने वाला वायु समान कहलाता है। इसका वर्णं श्वेत होता है।
5. हृदय, कण्ठ, तालु और सिर में विचरने वाला वायु उदान कहलाता है। इसका वर्ण रक्त होता है
6. त्वग्मात्र में विचरने वाला वायु व्यान कहलाता है। इसका वर्ण इन्द्रधनुषी होता है ।
वायु
प्राण का अर्थ है जीवनी-शक्ति उसके दस प्रकार हैं ः
1. स्पर्शनेन्द्रिय प्राण 2. घ्राणेन्द्रिय प्राण
3. रसनेन्द्रिय प्राण 4. चक्षुरिन्द्रिय प्राण
5. श्रोत्रेन्द्रिय प्राण 6. कायबल प्राण
7. मनोबल प्राण 8. वचनबल प्राण
9. श्वासोच्छ्वास प्राण 10. आयुष्य प्राण
इस शक्ति के द्वारा ही प्राणी जीवन को धारण करता है। इसके मूल में चैतन्य और पुद्गल दोनों क्रियाशील रहते हैं। इस प्राणशक्ति को वायु के द्वारा गति मिलती है। इसलिए उसे (वायु को) स्थूल प्राण कहा जाता है। शरीरगत वायु के मुख्य पांच प्रकार हैंः
1. प्राण 2. अपान 3. समान
4. उदान 5. व्यान
इनके स्थान, गति, कार्य, परिणाम व वर्ण इस प्रकार हैं ः
प्राण    इसका स्थान मस्तक है, गतिस्थल छाती व कण्ठ हैं इसके कार्य बुद्धि, हृदय, इन्द्रिय और मन को धारण करना तथा थूकना, छींक, डकार, नि:श्वास और अन्नप्रवेश हैं। यह रुक्षता, व्यायाम, लंघन, चोट, यात्रा तथा वेग- निरोध से विकृत होती है, जिसके परिणाम चक्षु आदि इन्द्रियों का विनाश, अर्दित, प्यास, कास, श्वास आदि रोगों की उत्पत्ति है। इसमें वायु तत्त्व की प्रधानता होने के कारण इसका वर्ण नील होता है।
अपान  इसका स्थान गुदास्थल है तथा कार्यक्षेत्र श्रोणि, वस्ति है। इसका कार्य वीर्य, रज, मल-मूत्र को बाहर निकालना है। विकृति, रुक्ष तथा भारी अन्न सेवन से, वेगों को रोकने या अति प्रवृत्ति करने से, अति बैठने, खड़े होने या चलने से होती है । इसके परिणाम हैं पक्वाशयगत कष्ट साध्य रोगों, मूत्र एवं वीर्य के रोगों, अर्श, गुद-भ्रश आदि रोगों की उत्पत्ति । इसमें पार्थिव तत्त्व की प्रधानता होने के कारण इसका वर्ण श्याम होता है। यहां श्याम का अर्थ काला नहीं किन्तु धूमिल या पीत-बहुल धूसर है।
समान  इसका स्थान पाचनाग्नि के पास है तथा गति क्रोध में है। कार्य अन्न को ग्रहण कर पचाना, विरेचन करना, सार और किट्ट में भेद कर किट्टभाग ( मल-मूत्र) को नीचे सरकाना है । यह विषम भोजन, अजीर्ण भोजन, शीत भोजन व संकीर्ण भोजन तथा असमय में सोने या जागने से विकृत होती है। इसके परिणाम शूल, गुल्म, संग्रहणी आदि पक्वाशय के रोगों की उत्पत्ति है । इसमें जल तत्त्व की प्रधानता होने के कारण इसका वर्णं श्वेत होता है। 
उदान  इसका स्थान छाती है तथा गति नासा नाभि व गले में है। इसके कार्य वाणी की प्रवृत्ति, उत्साह, बल, वर्ण और स्मृति है। छींक, डकार, वमन व निद्रावेग रोकने व अति रुदन-हास्य, भारी बोझ उठाने आदि से यह विकृत होती है। इसके परिणाम हैं कण्ठरोध, मनोभ्रंश, वमन, रुचि क नाश, पीनस, गलगण्ड आदि रोगों की उत्पत्ति। इसमें अग्नि तत्त्व की प्रधानता होने के कारण इसका वर्ण लाल है। (क्रमश:)