संबोधी
आचार्य महाप्रज्ञ
मिथ्या सम्यक् ज्ञान मिमांसा
निर्वेद का अर्थ है-काम तृष्णा, भव तृष्णा आदि जो दु:ख जनक हैं उनसे पार चला जाना। अब साधक को बाहर में आकर्षण नहीं रहता। सुख या वासनाएं उसे दिग्मूड नहीं बना सकतीं। ‘वेद’ शब्द का दूसरा अर्थ- ज्ञान करें तो यह भी हो सकता है कि अब बाह्य ज्ञान के प्रति उसके मानस में कोई अनुराग नहीं रहता। आत्मज्ञान के अतिरिक्त सब ज्ञान बोझ रूप है। इसलिए दु:ख और ज्ञान- दोनों के जाल से वह छूट जाता है।
अनुकंपा अर्थात् करुणा। बुद्ध ने कहा है-ध्यान के बाद यदि करुणा का जन्म न हो तो समझना चाहिए कि कहीं भूल रह गई है।
‘सव्वजगजीवरक्खणट्ठाए भगवया पावयणं सुकहियं’ भगवान ने सब जीवों की रक्षा के लिए प्रवचन दिया है। यह अनंत कारुणिकता का प्रतीक है। वे देखते हैं-दु:ख से व्याकुल हैं प्राणी अनंत अनंत जन्मों से भटक रहे हैं। उनके लिए भगवान शरण बनते हैं, मार्ग दर्शक बनते हैं और दिव्य नेत्र बनते हैं जिससे कि आदमी स्वयं को जान सके और समझ सके कि मैं क्यों और किसलिए यहां आया हूँ ?
आस्तिक्य का अर्थ है-अस्तित्व के प्रति श्रद्धा। स्वयं के साक्षात्कार के बिना स्वयं के प्रति जो श्रद्धा है, वह सिर्फ मानी हुई होती है और दर्शन के जिस श्रद्धा का जन्म होता है, वह अनुभूत होती है। धर्म की यात्रा अनुभूति की यात्रा है, मनाने की नहीं। मानने से भ्रांतियां टूटती नहीं। मिथ्यादर्शन की बेड़ियों को तोड़ने के लिए दर्शनरूपी पुरुषार्थ का हथौड़ा उठाना ही होता है।
दर्शन के अनंतर दूसरा चरण उठता है-स्वयं के बोध के लिए। देखा और जाना मैं कौन हूं? किसने मुझे बांध रखा है? मैं अपने ही अज्ञान के कारण। बंधा रहा। स्वभाव और विभाव की रेखाएं स्पष्ट हो जाती है। सम्यग्ज्ञानी विभाव को काट आत्मस्थता के लिए उद्यत हो जाता है।
सम्यग् चारित्र स्व स्थिति है, स्व-रमण है। बस, स्वभाव में ठहरे रहना, स्वभाव से बाहर नहीं जाना। चारित्र का यह अंतिम कदम है। उससे पूर्व कदम में वे सब साधन निहित होते हैं जिनके माध्यम से वह स्थिति बनती है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तप आदि सब इसमें समाहित किए जा सकते हैं। समाधि स्वरूप की अविच्युति है। यह चारित्र का अंतिम सोपान है। कर्मों का निरोध, कर्मों का निर्जरण और कर्मों का क्षय कर चारित्र कृतकृत्य हो जाता है।
19. ज्ञानञ्च दर्शनञ्चौव, चरित्रं च तपस्तथा।
एष मार्ग इति प्रोक्तं, जिनै: प्रवरदर्शिभि:॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इनका समुदय मोक्ष का मार्ग है। श्रेष्ठ दर्शन वाले वीतराग ने ऐसा कहा है।
20. ज्ञानेन ज्ञायते सर्वं, विश्वमेतच्चराचरम्।
श्रद्धीयते दर्शनेन, दृष्टिमोहविशोधिना॥
ज्ञान से समस्त चराचर विश्व जाना जाता है। दर्शन-मोह की विशुद्धि से उत्पन्न होने वाले दर्शन से उसके प्रति यथार्थ विश्वास होता है।
21. भाविदु:खनिरोधाय, धर्मेा भवति संवर:।
कृतदु:खविनाशाय, धर्मो भवति सत्तप:॥
संवर धर्म के द्वारा भावी दु:ख का निरोध होता है और सम्यक् तप के द्वारा किए हुए दु:खों का नाश होता है।
भगवान् का दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। केवल ज्ञान या केवल तप से मुक्ति नहीं होती। भगवान् ने कहा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इनके समन्वय से मोक्ष सधता है। जब व्यक्ति इन चारों की आराधना करता है, तब वह दु:खमुक्त होता है। ज्ञान से प्राणी हेय और उपादेय को जानता है और दर्शन से उसमें विवेक जागृत होता है तब वह सत्य की ओर बढ़ता है। जब उसमें चारित्र का विकास होता है तब हेय को छोड़ उपादेय को ग्रहण करता है। इससे आने वाले कर्मों का निरोध होता है और जो पूर्वबद्ध कर्म हैं, उनका वह तपस्या द्वारा निर्जरण करता है। इस प्रकार वह बंधन से बंधन मुक्ति की ओर बढ़ता जाता है।
22. दृष्टिमोहं परिष्त्य, व्रती भवति मानव:।
अप्रमत्तोऽकषायी च ततोऽयोगी विमुच्यते॥
पहले दृष्टि-दर्शन मोह का परिष्कार होता है, फिर मनुष्य क्रमश: व्रती, अप्रमत्त, अकषायी और अयोगी होकर मुक्त होता है। (क्रमश:)