जैन धर्म

संस्थाएं

जैन धर्म

जीने के लिए सांस की जितनी जरूरत है, उससे भी अधिक जरूरत है धर्म की। सांसों के आधार पर आदमी जीवित रहता है। धर्म के आधार पर जीवन बनता है। भारतवर्ष में अनेक धर्म और दर्शन हैं। उनमें एक है जैनधर्म। जिन भगवान्‌‍‍ के द्वारा प्ररूपित धर्म का नाम जैनधर्म है। इस धर्म को मानने वाले जैन कहलाते हैं। यह ज्ञानी पुरुषों और विजेताओं का धर्म है। प्रवाह की दृष्टि से यह अनादि है। इस युग में जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकर हुए, जिन्होंने अपने-अपने समय में नये रूप में धर्म का प्रवर्तन किया। प्रथम तीर्थंकर हुए भगवान्‌‍‍ ऋषभ और चौबीसवें तीर्थंकर हुए भगवान्‌‍‍ महावीर। वर्तमान में जैनधर्म की परम्परा का सम्बन्ध भगवान्‌‍‍ महावीर के साथ है।
जैन लोग आध्यात्मिक विकास के लिए देव, गुरु और धर्म की शरण स्वीकार करते हैं। उनके देव जिन होते हैं। तीर्थंकर, अर्हत्‌‍, जिनेन्द्र आदि शब्दों से भी उन्हें पहचाना जाता है। उनके द्वारा निरूपित धर्म पर वे आस्था करते हैं। उनकी मंजिल मोक्ष है। सम्यक्‌‍‍ दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप मोक्ष का मार्ग है। तपस्या भी मोक्ष का मार्ग है। जो मोक्ष का मार्ग है, वही धर्म है । जो अनुष्ठान व्यक्ति को मोक्ष के निकट नहीं ले जाता, वह कभी धर्म नहीं हो सकता। धर्म का रहस्य समझने के लिए वे गुरु की शरण में जाते हैं। पांच महाव्रतों का पालन करने वाले शुद्ध साधु उनके गुरु होते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत हैं।
अहिंसा आदि पांच व्रतों का आंशिक पालन करने वाले जैन श्रावक कहलाते हैं। वे अहिंसा में विश्वास करते हैं। वे जीवनयापन के लिए होने वाली अनिवार्य हिंसा को नहीं छोड़ सकते पर बिना प्रयोजन किसी भी प्राणी को नहीं सताते। चलने- फिरने वाले प्राणी की तो बात ही क्या, वे बिना मतलब एक वृक्ष को भी नहीं काटते।
गृहस्थ पूर्णत: अपरिग्रही नहीं हो सकते। पर उनका विश्वास अपरिग्रह के सिद्धान्त में रहता है। जैसे अहिंसा में विश्वास रखने वाले गृहस्थ एक सीमा तक ही अहिंसक रह सकते हैं इसी प्रकार अपरिग्रह के प्रति आस्थाशील रहते हुए भी वे एक सीमा तक ही परिग्रह से मुक्त रह सकते हैं। यद्यपि परिवार, समाज व राष्ट्र की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए एक गृहस्थ परिग्रह का अर्जन व संग्रह किए बिना नहीं रह सकता, पर उसे तीन बातों की ओर ध्यान देना जरूरी है-
1. अर्जन में साधन शुद्धि का ध्यान रहे। 2. अर्जित धन का उपयोग विलास के लिये न हो।
3. व्यक्तिगत भोग की सीमा हो ।
जैनधर्म का सिद्धान्त है अनेकान्त
अनेकान्त का अर्थ है प्रत्येक वस्तु को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखना और स्वीकार करना। इस सिद्धान्त में विश्वास करने वाले किसी भी प्रसंग में ऐकान्तिक आग्रह नहीं कर सकते। सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य बन जाता है। वे प्रत्येक बात में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास कर सकते हैं। उनका चिंतन संतुलित होता है।
जैनदर्शन में दुराग्रह और मिथ्या अभिनिवेश को पाप माना गया है। इस दृष्टि से भी वह त्याज्य है। अनेकान्त का सिद्धान्त जिन लोगों की समझ में आ जाता है वे सहज रूप से इससे बच जाते हैं।
जैनधर्म के अनुसार यह संसार शाश्वत है। इसका कोई कर्ता नहीं है, पालक नहीं है और संहर्ता भी नहीं है । सब प्राणी अपने कर्मों के अनुसार संसार में जन्म-मरण लेते हैं और सुख-दु:ख भोगते हैं। सुख-दु:ख का कर्ता प्राणी स्वयं है।
जैनधर्म के अनुसार जातिवाद कोई तात्त्विक बात नहीं है। जाति के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा या ऊंचा -नीचा मानना युक्तिसंगत नहीं है। मनुष्यता के नाते पूरी मनुष्य जाति एक है। मनुष्य अपने कर्म के आधार पर ऊंचा या नीचा बनता है। जब पूरी मनुष्य जाति एक है तब उसे जाति, रंग, वर्ण आदि के आधार पर उच्चता और हीनता की दृष्टि से बांटने का औचित्य ही क्या है ?
जैनधर्म आस्तिकवादी दर्शन है। वह आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म आदि बातों में विश्वास करता है। आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता स्वीकार करता है। इसी मंतव्य के आधार पर हर व्यक्ति सत्पुरुषार्थ करता है। उसका पुरुषार्थ पूर्णता तक पहुंचता है तब आत्मा परमात्मा बन जाता है। जैनधर्म की समग्र साधना परमात्मा बनने के लिए है।
जैनाचार्यों ने मनुष्य को धर्मोपासना के तरीकों से ही परिचित नहीं कराया उन्होंने उनकी जीवन शैली से जुड़ी अनेक बातों को स्पष्टता से समझाया। व्यसनमुक्त जीवन स्वस्थ जीवन शैली का एक अंग है। लोकजीवन में व्याप्त बुराइयों में से सात प्रकार के दुर्व्यसनों का संकलन जैनाचार्यों की अपनी मौलिक देन है। वे सात दुर्व्यसन इस प्रकार हैं जुआ, चोरी, मांस, मदिरा, शिकार, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन ।
जो व्यक्ति इन दुर्व्यसनों से मुक्त रहता है वह सहज रूप में अपने जीवन को स्वस्थ बना सकता है।
जैनधर्म में आस्थाशील लोगों का दायित्व है कि वे अपने बच्चों को धार्मिक संस्कार दें। इसके लिए परिवार में धार्मिक उपासना का क्रम चले। धार्मिक साहित्य के पठन-पाठन की प्रवृत्ति हो। घर की साज-सज्जा जैन संस्ति को उजागर करने वाली हो। इसमें जैन तीर्थंकरों एवं आचार्यों के चित्र, नमस्कार महामन्त्र आदि का उपयोग किया जा सकता है। बच्चों को खान-पान की शुद्धि एवं व्यसन-मुक्ति के प्रति सजग रखने की अपेक्षा है। ऐसा होने से जैनधर्म जीवन व्यवहार के साथ जुड़कर अपनी त्रैकालिक प्रासंगिकता को प्रमाणित कर सकेगा।
(क्रमश:)