ज्ञान का भंडार है भगवती सूत्र आगम: आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन (मुंबई), 5 जुलाई, 2023
अर्हत् वाङ्मय के उद्गाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र हमारे आगमों में सबसे बड़ा आगम है। ग्यारह अंग आगम स्वतः ही प्रमाण वाली स्थिति के हैं। 12 उपांग इन ग्यारह से मिलते हुए हैं। कई बार निर्भरता की इसके कारण से ये ठीक है। ग्यारह अंग गरिमामय हैं। प्रथम अंग आचारंग पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने संस्कृत में भाष्य लिखा है। पाँचवाँ अंग है-भगवई विवाह पण्णति। बोलचाल की भाषा में भगवती ही बोलते हैं। ये आगम अर्द्ध मागधी-प्राकृत भाषा में है। वर्तमान में प्राकृत भाषा आम लोगों के लिए सुबोध नहीं है। इनकी छाया-टिप्पण संस्कृत-हिंदी भाषा में भी दिया गया है। विभिन्न विषयों का ज्ञान इस आगम के पढ़ने से मिल सकता है। हमारे यहाँ आगम एक गरिमापूर्ण स्थान रखने वाले होते हैं। वर्तमान में इसके सातवें अध्ययन के सातवें उद्देश्य का पाठ किया है। यह प्रश्नोत्तर के रूप में गौतम स्वामी से संबंधित है। भगवान भी बार-बार अपने शिष्य गोयमा गोयमा का नाम लेकर उत्तर दे रहे हैं।
प्रश्न किया गया भगवान्! काम रूपी होते हैं या अरूपी होते हैं। हमारी दुनिया में पाँच विषय हैं, जो इंद्रियों के द्वारा ग्रहीत होते हैं। शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श-ये एक भौतिक जगत है। पाँच विषयों को दो भागों में बाँटा गया है-काम और भोग। शब्द और रूप की संज्ञा है काम और गंध, रस और स्पर्श की संज्ञा है भोग। शब्द रूप की प्रकृति अलग है, गंध, रस, स्पर्श की प्रकृति अलग है। जिन विषयों की कामना की जाती है, किंतु संवेदन या अनुभव नहीं होता इसलिए वे काम कहलाते हैं। जो विषय संवेदन उत्पन्न करते हैं या जिनका अनुभव होता है वे भोग कहलाते हैं। शब्द और रूप को जाना जा सकता है, पर अनुभव नहीं होता है। इंद्रियाँ प्राप्यकारी व अप्राप्यकारी भी होती हैं।
जैन दर्शन में केवल चक्षु को अप्राप्यकारी माना है शेष प्राप्यकारी होती हैं। काम शब्द और रूप रूपी हैं। काम सचित भी हो सकते हैं तो अचित भी हो सकते हैं। इनमें जो चैतन्य है, वह सचित है, चैतन्य रहित है, वे अचित हो जाते हैं। समनस्क प्राणी का रूप सचित है, असमनस्क का रूप अचित है, यह एक वृत्ति भी है। पर जीव सारे सचित ही होते हैं। काम सजीव भी होते हैं और अजीव भी होते हैं। जीव ही देखेगा या सुनेगा। ऐसे ही भोग होते हैं। जीव कामी भी होते हैं और भोगी भी होते हैं। एक से तीन इंद्रिय वाले सिर्फ भोगी हैं। चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय कामी-भोगी दोनों होते हैं। ये तथ्यात्मक जानकारी आगमकार ने दे दी है। पर हम इन काम भोग का दुरुपयोग तो नहीं करते हैं। हम इनके उपयोग में भी संयम रखें। इनके प्रति राग-द्वेष का भाव न हो।
दो शब्द हैं-चाह और आवश्यकता। आवश्यकता हो सकती है, पर पदार्थ के प्रति चाह न हो। पूज्यप्रवर ने छापर के बाद पुनः कालू यशोविलास के शेष भाग का वाचन शुरू किया। इसके चौथे खंड की व्याख्या करते हुए फरमाया कि गुरु का व्याख्यान किया जा सकता है। वि0सं0 1880 सुजानगढ़ चतुर्मास के प्रसंगों को समझाया। पूज्यप्रवर ने 21 रंगी तप के संभागी तपस्वियों को प्रत्याख्यान करवाए। अन्य तपस्वियों को भी प्रत्याख्यान करवाए। साध्वी समताप्रभा जी ने महिलाओं के कार्यक्रमों की सूचना दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।