बाह्य सुख में आसक्ति न रखें: आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन (मुंबई), 7 जुलाई, 2023
आगम वाणी व्याख्याता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र के 7वें शतक की व्याख्या करते हुए फरमाया कि नारकीय प्राणियों ने जो पाप कर्म किए हैं, करते हैं, करेंगे, वह दुःख है और जो कर्म निर्जरण हो गए हैं वह सुख है। शास्त्र में यह सुख-दुःख की आध्यात्मिक परिभाषा बताई गई है। अनुकूल वेदनीय संवेदन सुख है, जो संवेदन प्रतिकूल होता है वह दुःख है। यह सुख-दुःख इंद्रिय जन्य बाह्य दुःख-सुख है। शास्त्रकार ने कहा है कि जो पाप कर्म जितने पहले किए, करते हैं, या करेंगे वे सब दुःख हैं। दुःख का बाप पाप कर्म है। यह आध्यात्मिक जगत के अनुसार है। निर्जरा कार्य है, तपस्या कारण है। वैसे ही पाप कारण है, दुःख कार्य है।
आत्मा तो अपने आप में सुख है, पाप कर्मों के कारण वह दुखी होती है। जिसकी दृष्टि में प्रकाश की क्षमता है तो फिर दीया जलाने की जरूरत क्या है। आत्मा अपने आपमें सुख है, फिर बाह्य दुःख की क्या अपेक्षा है। इस तरह सुख के दो प्रकार हो गएµआत्मिक सुख और इंद्रियजन्य बाह्य सुख। मोहनीय कर्म या असातवेदनीय कर्म के उदय से दुःख आ सकता है। शब्द रूप रस गंध से उत्पन्न होने वाला सुख अपारमार्थिक सुख है। पारमार्थिक सुख पाने के लिए अध्यात्म की साधना करनी होती है। तपस्या से, स्वाध्याय और सेवा से, ध्यान इंद्रिय संयम, काय क्लेश की साधना से दुःख दूर होते हैं। निर्जरा अपने आपमें सुख हो जाता है। हम बाह्य सुख में आसक्ति न रखें।
बाह्य सुख पूर्व पुण्य से मिलने वाले होते हैं, ये शाश्वत नहीं है। हम आगे के लिए पुण्य का संचय करने का प्रयास करें। पर मूल लक्ष्य तो हमारा आध्यात्मिक सुख प्राप्त करना है। चतुर्मास में धर्म-आराधना करने का प्रयास करें। कर्म निर्जरण करने का प्रयास करें। संवर की साधना करें। पूज्यप्रवर ने कालू यशोविलास का सुंदर विवेचन करते हुए मारवाड़ के श्रावकों द्वारा पूज्य कालूगणी को मारवाड़ पधारने की अर्ज के प्रसंग को समझाया।
पूज्यप्रवर ने 21 रंगी तपस्या के सहभागी तपस्वियों को प्रत्याख्यान करवाए। तपस्या की प्रेरणा भी प्रदान करवाई। समणी कुसुमप्रज्ञा जी ने अपनी भावना पूज्य चरणों में अभिव्यक्त की। उपासक श्रेणी के व्यवस्थापक जयंतीलाल सुराणा ने उपासक शिविर की जानकारी दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।