संयम संग्राम के विजेता - मुनि अजय प्रकाश जी

संयम संग्राम के विजेता - मुनि अजय प्रकाश जी

जीवन की जंग में विजय प्राप्त करने वाले मुनि अजय प्रकाश जी आज मात्र स्मृतियों में जीवंत हैं। उनकी जीवन की पोथी के पन्ने एक-एक करके स्वयं ही पलट रहे हैं। अतीत को एक-एक पल आँखों के सामने विविध दृश्य बनकर उभर रहा है। उनके जीवन में अनेक ऐसे पड़ाव आए जहाँ मैंने उन्हें विविध रूपों में देखा। उनका विलासी रूप भी देखा तो वैराग्य का भी। स्नेह का संसार भी देखा और संयम में सजगता भी देखी। उनकी आहार रुचि भी देखी तो आहार त्याग की उत्कृष्टता भी देखी। सहृदयता भी देखी तो समता भी देखी। दूसरों के प्रति कोमलता भी देखी और स्वयं के प्रति कठोरता भी देखी। उनका जीवन विविधताओं को धारण किए हुए था। वो अजय से अजयप्रकाश बनकर मेरे लिए प्रेरणा के प्रकाश स्तंभ बन गए। आज भी अनेक प्रेरक स्वर मेरे कर्ण कुहर में अनुगूंजित हो रहे हैं-‘बेटी! जिस मार्ग पर हम कदम बढ़ा रहे हैं, उससे कभी भी पीछे नहीं लौटना है। आज तो तुम्हारे साथ खड़ा हूँ पर आगे बढ़ने के बाद पुनः पीछे नहीं मुड़ना है। उनके ये प्रेरक बोल मेरे लिए सतत् आगे का मार्ग प्रशस्त करते रहें। भले आज वे सदेह मेरे समक्ष नहीं हैं। परंतु वे मेरी स्मृतियों में सदा अमर रहेंगे।
उन्होंने जीवन के अनेक पड़ावों को पार कर आखिर कार विजय पताका फहरा दी। उनके जीवन के ये मुख्य पड़ाव-
(1) प्रथम पड़ाव-गृहस्थ जीवन
अजय कुमार ने यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही स्नेह के बंधन में बंध गए। सन् 1989 में उनका पाणिग्रहण हुआ, पर पत्नी मंजु का साथ शीघ्र ही वियोग में बदल गया। मात्र 11 माह बाद ही वो दिवंगत हो गई। मन में विरक्ति का अस्फुट बीज वपन हुआ, परंतु काल का परिपाक नहीं हुआ इसलिए पुनः नई गृहस्थी बसानी पड़ी। इस बार उनका विवाह नगीना (साध्वी नीतिप्रभा) से हुआ। नगीना उनके जीवन को नया मोड़ देने ही आई थी। नगीना को अर्धांगिनी के रूप में प्राप्त कर अजय कुमार की दिशा एवं दशा दोनों ही बदल गई। देर रात तक दोस्तों के साथ रहना, जर्दा खाना, ताश खेलना आदि आदतें पत्नी के प्रयास से दूर होती गईं। कालांतर में पुत्री खुशबू का जन्म हुआ।
(2) दूसरा पड़ाव - वैराग्य का वपन
ज्यों-ज्यों वैवाहिक जीवन व्यतीत होता गया त्यों-त्यों उनका झुकाव धर्म के प्रति बढ़ता गया। जीवन में संयम, सादगी आदि को तो स्थान मिला, पर दीक्षा लेने का विकल्प नहीं उठा। उन्हें तो नीतिप्रभाजी की दीक्षा लेने की बात भी पसंद नहीं थी। परंतु नीतिप्रभा जी ने अपनी बेटी में वैराग्य के बीज बोए। माँ-बेटी अध्यात्म पथ पर बढ़ने हेतु आतुर थी। अजय उनका अगला प्रयास था अजय कुमार को भी तैयार कर सपरिवार दीक्षा लेना। एक दिन उन दोनों की वार्ता चल रही थी, तभी बेटी का समागम हुआ और कहा-पापा! आप मम्मी को क्यों रुलाते हो? हम दोनों की पक्की भावना है कि हम दीक्षा ही लेंगे, पर आप अकेले पीछे रहकर क्या करोगे? पत्नी का वर्षों का प्रयत्न बेटी के वाक्य से सफल हो गया। उस दिन उन्होंने निर्णय लिया कि मुझे वैराग्य, दीक्षा के पथ पर अग्रसर होना है।
(3) तीसरा पड़ाव - संन्यास का स्वीकरण
सन् 2002 का साल, दीवाली की छुट्टियों में सपरिवार गुरु दर्शनार्थ गए। अवसर देख आचार्य महाप्रज्ञ के चरणों में दीक्षा की भावना निवेदन की। उसी दिन संस्था प्रवेश की अनुमति भी प्राप्त हो गई। अब अजय कुमार भौतिक जीवन को छोड़कर सपरिवार भगवत्ता के पथ पर बढ़ने लगे। आखिर वर्षों की प्रतीक्षा का परिणाम आया और सूरत में आचार्य महाप्रज्ञ जी के शासनकाल में सपरिवार दीक्षित होकर मुनि अजय प्रकाश जी ने नव इतिहास का सृजन किया है। दीक्षा के पश्चात् जप, तप, स्वाध्याय आदि द्वारा संन्यास को सुनहरा बना दिया।
(4) चौथा पड़ाव - यात्रा (विहारचर्या)
मुनि जीवन का रसास्वादन करते हुए प्रथम चातुर्मास गुरु के सान्निध्य में किया। तदनंतर राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडू आदि की यात्रा करते हुए तिन्नाणं-तारयाणं हेतु अपनी शक्ति व श्रम का नियोजन कर श्रावक समाज की संभाल हेतु दूर-दूर तक गोचरी जाना उन्हें आह्लादजनक लगता था। शहरों की गगनचुंबी इमारतों में भी उत्साह से गोचरी हेतु कई मंजिलों तक बढ़ते थे।
(5) पाँचवाँ पड़ाव - सेवा कार्य
जीवन के इस पड़ाव में उन्होंने बड़ी सजगता का परिचय दिया। दीक्षा के पश्चात् उसी साल गुरुदेव ने उन्हें छोटी खाटू में मुनि बच्छराज जी की सेवा में नियुक्त किया। वहाँ 3 वर्ष तक रहकर तन, मन से सेवा कार्य का निर्वहन किया। तदनंतर जब उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञजी के दर्शन किए तब गुरुदेव ने मुझे इंगित कर फरमाया-तन्मयप्रभा! अजयप्रकाश जी ने 3 साल की चाकरी कर ली। अच्छी सेवा की है। क्या तुम्हें भेजते तो कर लेती? आचार्यप्रवर की प्रसन्नता व सेवाकार्य से संतुष्टि मेरे लिए हर्ष मिश्रित गौरव का विषय बन गई। धन्य होते हैं वे शिष्य, जो अपने कार्य से गुरु को प्रसन्न करते हैं।
(6) छठा पड़ाव - सहना ही धर्म (सहिष्णुता)
मुनि अजय प्रकाश जी ने सहिष्णुता, समता का जो आदर्श रूप प्रस्तुत किया, वह बेजोड़ है। असह्य व्याधि की स्थिति में भी उन्होंने समता की ज्योत को अखंड रखा। जब वे मुनि धर्मेशकुमार जी के साथ दक्षिण की यात्रा पर थे तब उनके स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव हुआ। पता चला कि उनके पॉलिसिसटिक किडनी है। डॉक्टर द्वारा चलने की मनाही करने पर भी उन्होंने मजबूत मनोबल से किसी भी सुविधा, वाहन का उपयोग नहीं किया। एक किडनी काम नहीं कर रही थी, फिर भी आपने 5 वर्ष तक फौलादी संकल्प से यात्रा की।
जब वे कोरोना की गिरफ्त में आए तब किडनी, लिवर आदि पर कोरोना का विशेष प्रभाव देखकर डॉक्टर ने बचने की संभावना कम बताई, पर गुरुकृपा से वो स्वस्थ हो गए। थोड़े ठीक हुए ही थे कि बैठक के स्थान पर व्रण हो गया। उठने-बैठने आदि में तकलीफ होने के बावजूद भी उनकी सहिष्णुता, उनकी प्रसन्नता बरकरार रहती थी। प्रायः पेट व पैर में सूजन रहती, दर्द भी रहता, चलते समय में साँस की तकलीफ भी होती, फिर भी जो समता का जीवन जीया, वो मेरे लिए प्रेरक है। अंतिम समय में भी बिना किसी हलचल के शांति की साधना की। उनकी वेदना के साथ-साथ उनकी समता भी प्रकर्ष को प्राप्त होती रही।
(7) सातवाँ पड़ाव - तप में तल्लीनता
उनकी तपरुचि दीक्षा के बाद उछालें भरने लगी। ‘तवसा कम्म विज्जरइं’ इस सूक्ति के अनुसार उन्होंने तप से अशुभ कर्मों की निर्जरा की। उनके उपवास, बेले की तो कोई गिनती नहीं है, अपने इस साधुकाल में 8 मासखमण, 41 का तप 1 बार, 11 तक की लड़ी 1 बार, 21 माह तक 2-2 बेले की तपस्या, 10 वर्ष तक एकांतर तप-ये सब तपरुचि का ही परिणाम है। 6 माह में मासखमण व 41 दिन का तप रसनाविजय का उदाहरण है।
जब भी उनके ठीक नहीं होता तो वे यही कहते कि मुझे संथारा बिना जाने मत देना। जब भी व्याधि सताती तो आपने डॉक्टर की अपेक्षा तप चिकित्सा को महत्त्व दिया। आपका तपोबल सदा प्रवर्धमान रहा। उनका यह तेजस्वी तप अनुष्ठान सदा आदर्श प्रस्तुत करता रहेगा।
उनका यह संकल्प था कि जब शरीर असमर्थ होने लगेगा तभी मैं अनशन के महासंग्राम में उतरूँगा। उन्होंने अंतिम समय में जिस उत्साह व चढ़ते परिणामों के साथ संलेखना एवं अनशन स्वीकार किया। उसी ऊर्ध्वगामी परिणामों के साथ आपने इस नश्वर देह का परित्याग किया।
(8) आठवाँ पड़ाव - संयम में सजगता
‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ संयम की यह चादर उन्होंने पूर्ण जागरूकता के साथ निर्मल बनाए रखी। वे किसी भी कीमत पर संयम में लघुता आने नहीं देते थे। जब कभी भी चिकित्सा आदि का प्रसंग आता तो उनका संकल्प था-(1) मैं अपनी बीमारी की बड़ी चिकित्सा नहीं कराऊँगा। (2) भिन्न समाचारी का प्रयोग नहीं करूँगा।
इन दोनों संकल्पों को सजगता की स्थिति में पूर्ण रूप से निभाया। बेहोशी की हालत में एक बार वाहन का प्रयोग हुआ पर सजगता की स्थिति में उन्हें यह गँवारा नहीं था। भीलवाड़ा का एक प्रसंग मेरे स्मृति पटल पर उभर रहा है-सूर्योदय से 15 मिनट पूर्व सूचना आई कि मुझे संतों के ठिकाणे शीघ्रातिशीघ्र बुलाया है। 2-3 बार यह सूचना आने पर मेरा मन उद्वेलित हो गया। सूर्योदय होते ही मैं अजय प्रकाश जी के कमरे के बाहर पहुँची तो देखा कि उनको स्ट्रेचर पर लाया जा रहा था। मुँह खून से सना हुआ था, शरीर पूरा अचेतवत। यह दृश्य देखते मैं कंपित होने लगी। भीतर में 1 ही प्रश्न-7 साल तक जिसकी सेवा का इंतजार कर रही थी, क्या यह मन ही मन में रह जाएगी। इत्यादि विकल्प आने लगे। वो एम्बुलेंस से रवाना हो गए। इधर मैं और नीतिप्रभाजी गुरुदेव के उपपात में पहुँचे। स्थिति ऐसी जटिल बनी कि डॉक्टर ने बाहर से ही देखकर कहा-जान नहीं, भर्ती नहीं करेंगे। पर उनका तपोबल, गुरुबल का प्रभाव ही था लोगों ने हिम्मत कर एक बार जबरदस्ती भर्ती कर दिया।
कुछ प्रयत्नों के बाद होश आया। इसी दौरान गुरुदेव ने मुझे व नीतिप्रभा जी को 5 दिन तक हॉस्पिटल जाने की अनुमति प्रदान की। वे धीरे-धीरे स्वस्थ हुए। मेरे मन में एक चिंता थी कि अगर उन्हें वाहन प्रयोग का पता चलेगा तो वेदना होगी, चारित्र में छेद असह्य है। ज्योंहि यह गुरुदेव को निवेदन किया तब उनको लाने की व्यवस्था हस्तचालित यंत्र से हुई। 5 दिन बाद वे ठीक होकर आ गए।
गुरुकृपा एवं अनेक संकल्प का ही परिणाम था कि एंबुलेंस का प्रयोग करने पर विधानतः 1 माह का छेद आता परंतु कुछ दिन बाद आचार्यप्रवर ने नियम बताया कि यदि बेहोशी की अवस्था में वाहन का प्रयोग होता है तो छेद नहीं आएगा। आखिर उन्होंने अपनी संयम चादर को उज्ज्वल और निश्छिद्र बनाए रखा।
मुनि अजय प्रकाश जी अनेक पड़ावों की सुखद यात्रा कर परम यात्रा की ओर प्रस्थित हो गए। वे सदा गुरुद्वय की करुणा से अभिस्नात रहे। गुरु अनुग्रह का प्रसाद है कि मेरे निवेदन पर साध्वी नीतिप्रभा जी एवं मुनि अजय प्रकाशजी को भीलवाड़ा में चातुर्मास में साथ रखा।
उन्होंने ज्योतिर्मय जीवन जीया पर नियति का योग ऐसा बना कि 6 तारीख को वह ज्योति सदा-सदा के लिए अदृश्य हो गई। उनके जाने का गम भी है और उन्होंने गुरुदृष्टि की अनुपालना करते हुए ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निर्मल आराधना की। इसका सात्त्विक हर्ष भी है उनके जीवन के ये पड़ाव प्रकाशपुंज बनकर मुझे सदा अलौकिक आलोक देते रहेंगे। अब वे सिर्फ नामशेष, यथाशेष, कथाशेष रह गए हैं।
उनकी आत्मा ऊर्ध्वगामी हो मोक्ष का वरण करें। यही हृदय की अनंत गहराईयों से मंगलकामना।