उपासना
(भाग - एक)
श्रावक श्री रूपचंदजी सेठिया
वे एक तत्त्वज्ञानी और विद्या-प्रेमी व्यक्ति थे। थोकड़ों के माध्यम से उन्होंने जैन तत्त्वज्ञान को हृदयंगम किया था। उन्हें अनेक स्तवन तथा तात्त्विक ढालें कंठस्थ थीं। सामायिक करते समय वे उसकी परिवर्तना करते रहते थे। तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार की विद्याओं के प्रति भी उनके मन में अगाध अनुराग था। उसी के फलस्वरूप लगभग पैंतालीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रारंभ किया। उन्हीं दिनों में उन्होंने प्राचीन जैन लिपि का भी परिश्रम पूर्वक अभ्यास किया। उससे जहाँ उन्हें प्राचीन ग्रंथों को पढ़ने की क्षमता प्राप्त हुई वहाँ ज्ञान-क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए एक नया साधन भी उपलब्ध हुआ। कालांतर में वे अपना लिखने का सारा कार्य उसी लिपि में करने लगे।
वे अपने हर व्यवहार में सत्यता का पालन किया करते थे। किसी भी विषय में उनका स्वीकार अथवा इन्कार व्यवहार मात्र न होकर वास्तविक होता था। वे एक धनिक व्यक्ति थे। आवश्यकता होने पर अन्य व्यक्ति उनके यहाँ से विभिन्न वस्तुएँ माँगकर ले जाया करते थे। बहली, घोड़ी, बर्तन, आभूषण आदि जिस वस्तु की स्वीकृति वे दे देते फिर चाहे उन्हें स्वयं उसकी आवश्यकता क्यों न हो जाए, वे उसे रोकते नहीं। अपनी पूर्ति वे वस्तु वापस आने पर करते या फिर अन्य किसी से माँगकर करते।
जिस वस्तु को वे देना नहीं चाहते, उसके लिए इन्कार करने का कोई बहाना नहीं खोजते, किंतु सीधा इन्कार ही कर देते। माँगने वाला व्यक्ति चाहे साधारण गृहस्थ होता या उच्च राज्याधिकारी, वे किसी का भय नहीं खाते।
एक बार सुजानगढ़ में एक नए नाजम की नियुक्ति हुई। वे वहाँ पहले-पहल ही आए थे। लोगों से उनको पता लगा कि कोई आवश्यकता की वस्तु हो तो सेठिया-परिवार से मँगाई जा सकती है। उन्होंने अपना आदमी वहाँ भेजा और कुछ वस्तुएँ मँगाई। रूपचंदजी ने अन्य वस्तुएँ देते हुए एक वस्तु के लिए कहा कि यह वस्तु मेरे पास है तो सही पर देने की इच्छा नहीं है। नौकर ने जब यह बात नाजम साहब को बतलाई तो उस विचित्र उत्तर से बड़े विस्मित हुए। उन्होंने लोगों से पूछा-‘यह ऐसा कैसा आदमी है?’ लोगों ने उनको बतलाया कि वे कभी बहाना नहीं करते। जो वस्तु किसी कारण से वे नहीं देना चाहते तो स्पष्ट ही इन्कार कर देते हैं।
नाजम साहब को उनकी उस विचित्र प्रकृति पर क्रोध तो अवश्य आया परंतु लोगों के मुख से उनकी सत्यता का परिचय पाकर वह शांत हो गया।
मुनीम और दो गज कपड़ा
व्यापार में वे पूरी प्रामाणिकता बरतते थे। उनकी दुकान पर किसी भी प्रकार की धोखाधड़ी या मायाचार नहीं होता था। उस विषय में उन्होंने अपने सभी मुनीम-गुमाश्तों को सावधान कर रखा था। वे कहा करते थे कि बिना हक का पैसा ‘जमाल गोटे का जुलाब’ होता है, वह कभी टिक नहीं सकता। लेन-देन में भूल से किसी को कम दे दिया जाता तो अपने जमादार को भेजकर जितनी रकम बाकी रहती उसे व्यापारी के घर भेज दिया करते थे।
एक बार एक व्यक्ति उनकी दुकान पर कपड़ा खरीदने आया तो मुनीम ने उसको कपड़ा फाड़कर दे दिया और दाम ले लिए। जिस भाव से कपड़ा दिया गया था वह भाव दुकान के अनुकूल नहीं पड़ता था। रूपचंदजी ने जब मुनीम को यह पूछा तो उसने बतलाया कि काफी देर तक समझाने पर भी जब वह ठीक भाव में लेने के लिए तैयार नहीं हुआ तो मैंने उसी के कहे हुए भाव पर कपड़ा फाड़ दिया किंतु फाड़ने में लगभग दो गज कपड़ा बचा लिया अतः पड़ता बैठ जाएगी।
(क्रमशः)