मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

भोगी तथा रोगी व्यक्ति के काम-वासना की उद्दीप्ति तथा वायुविकार आदि शारीरिक रोग होने पर वीर्य का व्यय जननेंद्रिय से होता है।
योगी लोग वीर्य का प्रवाह ऊपर की ओर मोड़ देते हैं। अतः उनके वीर्य का व्यय मस्तिष्क में होता है। वीर्य का प्रवाह नीचे की ओर अधिक होने से काम-वासना बढ़ती है और उसका प्रवाह ऊपर की ओर होने से काम-वासना घटती है।
काम-वासना के कारण जननेन्द्रिय द्वारा जो वीर्य व्यय होता है, वह अब्रह्मचर्य का ही एक प्रकार है। वह सीमित होता है तो उसका शरीर पर अधिक हानिकारक प्रभाव नहीं होता। मन में मोह और संस्कारों में अशुद्धि उत्पन्न होती है। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से हानि ही कहा जाएगा।
जो आदमी अब्रह्मचर्य में अति आसक्त होता है, उसकी वृषण ग्रंथियों में आने वाले रस-रक्त का उपयोग बहिःस्राव उत्पन्न करने वाले अवयव कर लेते हैं। इसका फल यह होता है कि अंतःस्राव उत्पन्न करने वाली अवयव उचित सामग्री के अभाव में अपना काम करने में अक्षम रह जाते हैं। फलतः सर्व धातुओं और सर्वांग पर होने वाल अंतःस्राव के महत्त्वपूर्ण प्रभावों से वंचित रह जाता है और अनेक प्रकार के विकास उसके शरीर में उत्पन्न होते हैं।
आयुर्वेद के ग्रंथों में इस विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझाया गया है। सात क्यारियों में सातवीं क्यारी में बड़ा गर्त हो या उसमें से जल निकलने के लिए छेद हो तो सीधी-सी बात है कि पहले संपूर्ण जल उस गड्ढ़े में भरने लगेगा या उस क्यारी को पूर्ण करने में व्यय होगा। यही स्थिति अति-मैथुन आदि के कारण होने वाले शुक्रक्षय में होती है। निश्चित ही संपूर्ण रस प्रथम शुक्र-धातु की पुष्टि में लगता है किंतु अति मैथुनवश शुक्र पुष्ट हो ही नहीं पाता। परिणामतया अन्य वस्तुओं की पुष्टि रस से हो नहीं पाती और शरीर में विभिन्न विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
ब्रह्मचर्य से इंद्रिय-विजय और इंद्रिय-विजय से ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। वस्तुतः इंद्रिय-विजय
और ब्रह्मचर्य दो नहीं हैं। ब्रह्मचर्य की इंद्रिय-विजय से एकात्मकता है, इसलिए उससे शरीर की स्थिरता, मन की स्थिरता और अनुद्विग्नता, अदम्य उत्साह, प्रबल सहिष्णुता, धैर्य आदि अनेक गुण विकसित होते हैं।
ब्रह्मचर्य से हमारे स्थूल अवयव उतने प्रभावित नहीं होते, जितने सूक्ष्म अवयव होते हैं।
कुछ लोगों का मत है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य का शरीर और मन पर अनुकूल प्रभाव नहीं होता। इस मत में सच्चाई का अंश भी है पर उसी स्थिति में जब ब्रह्मचर्य का पालन करके विवशता की परिस्थिति में हो। चिंतन के प्रवाह को काम-वासना की लहरों से मोड़कर अन्य उदात्त भावनाओं की ओर ले जाया जाए तो ब्रह्मचर्य स्ववशता की परिस्थिति में विकास पाता है। उसका शरीर और मन की सूक्ष्मतम स्थितियों पर बड़ा लाभदायी प्रभाव पड़ता है।
बहुत सारे लोग ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, फिर भी नहीं कर पाते। ऐसा क्यों होता है? अब्रह्मचर्य की भावना सहज ही क्यों उभर आती है? इस प्रश्न का उत्तर कर्मशास्त्रीय भाषा में यह है कि यह सब मोह के कारण होता है। पर शरीरशास्त्र की भाषा में कर्म का स्थान नहीं है। उसके अनुसार कामवाहिनी नाड़ियों में रक्त का संचरण होने से अब्रह्मचर्य की भावना उभरती है। उसका संचरण नहीं होता तो वह भावना नहीं उभरती। संचरण कम होने से वह भावना कम उभरती है और संचरण अधिक होने से वह भावना अधिक उभरती है। इस संदर्भ में हम उस तथ्य की ओर संकेत कर सकते हैं कि ब्रह्मचारी के लिए गरिष्ठ या दर्पक आहार का निषेध क्यों किया गया?
अब्रह्मचर्य एक आवेग है। हर आवेग पर मनुष्य अपनी नियंत्रण-शक्ति से विजय पाता है। मन की नियंत्रण-शक्ति का विकास ब्रह्मचर्य का प्रमुख उपाय है। पर यह प्रथम उपाय नहीं है। प्रथम है-ब्रह्मचर्य के प्रति गाढ़ श्रद्धा होना। दूसरा है-वीर्य या रक्त के प्रवाह को मोड़ने की साधना। इसमें ब्रह्मचर्य जितना सहज हो सकता है, उतना नियंत्रण शक्ति से नहीं।
काम-वासना मस्तिष्क के पिछले भाग में प्रारंभ होती है, इसलिए जैसे ही वह उभरे, वैसे ही उस स्थान में मन को एकाग्र कर कोई शुभ-संकल्प किया जाए, जिससे वह उभार शांत हो जाए। पेट में मल, मूत्र और वायु का दबाव बढ़ने से काम-वाहिनी नाड़ियाँ उत्तेजित होती हैं। खान-पान और मल-शुद्धि में सजग रहना ब्रह्मचर्य की बहुत बड़ी शर्त है। वायु विकार न बढ़े इस ओर ध्यान देना भी बहुत आवश्यक है। काम-जनक अवयवों के स्पर्श से भी वासना बढ़ सकती है। इन सारी बातों का ब्रह्मचर्य के परिपार्श्व में बहुत महत्त्व है, पर इन सबसे जिसका अधिक महत्त्व है, वह है वीर्य या रक्त-प्रवाह को मोड़ने की प्रक्रिया। उसकी कुछ विधियाँ इस प्रकार हैं-

ऊर्ध्वाकर्षण

(क) सिद्धासन में बैठिए। श्वास का रेचन कीजिए-बाहर निकालिए। बाह्य कुम्भक कीजिए-श्वास को बाहर रोके हुए रहिए। इस स्थिति में संकल्प कीजिए कि वीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में घूम रहा है। उसका प्रवाह ऊपर की ओर हो रहा है। संकल्प इतनी तन्मयता से कीजिए कि वैसा प्रत्यक्ष अनुभव होने लगे। जितनी देर सुविधा से कर सकें, यह संकल्प कीजिए। फिर पूरक कीजिए-श्वास को अंदर भरिए। पूरक की स्थिति में मूलबंध कीजिए-गुदा को ऊपर की ओर खींचिए तथा जालंधरबंध कीजिए-ठुड्डी को तानकर कंठकूप में लगाइए। फिर पेट को सिकोड़िए और फुलाइए। आराम से जितनी बार ऐसा कर सकें, कीजिए, फिर रेचन कीजिए। यह एक क्रिया हुई। इसे अभ्यास बढ़ाते-बढ़ाते सात या नौ बार दोहराइए।
(ख) पीठ के बल चित लेट जाइए। सिर, गर्दन और छाती को सीध में रखिए। शरीर को बिलकुल शिथिल कीजिए। मुँह को बंद कर पूरक कीजिए। पूरक करते समय यह संकल्प कीजिए कि काम-शक्ति का प्रवाह जननेन्द्रिय से मुड़कर मस्तिष्क की ओर जा रहा है। मानसिक चक्षु से यह देखिए कि वीर्य रक्त के साथ ऊपर जा रहा है। कामवाहिनी (जननेन्द्रिय के आसपास की) नाड़ियाँ हल्की हो रही हैं और मस्तिष्क की नाड़ियाँ भारी हो रही हैं।
पूरक के बाद अंतःकुंभक कीजिए-श्वास को सुखपूर्वक अंदर रोके रहिए। फिर धीमे-धीमे रेचन कीजिए।
पूरक और रेचन का समय समान और कुंभक का समय उससे आधा होना चाहिए। यह क्रिया बढ़ाते-बढ़ाते पंद्रह-बीस बार तक करनी चाहिए। वीर्य के ऊर्ध्वारोहण का संकल्प जितना दृढ़ और स्पष्ट होगा, उतनी ही काम-वासना कम होती जाएगी।

कुक्कुटामन

इससे काम-वाहिनी स्नायुओं पर दबाव पड़ता है। उससे मन शक्तिशाली और प्रशांत होता है। काम-वासना क्षीण होती है।
मन की स्थिरता होने से वायु की स्थिरता होती है। वायु की स्थिरता से वीर्य की स्थिरता होती है। वीर्य की स्ाििरता से शरीर की स्थिरता प्राप्त होती है। कहा भी है-

मनःस्थैर्यात् स्थिरो वायुस्ततो बिंदुःस्थिरो भवेत्।
बिन्दुस्थैर्यात् सदा सत्त्वं, पिण्डस्थैर्यं च जायते।।

ऊर्ध्वाकर्षण की प्रक्रिया केवल पुरुषों के लिए है। स्त्रियों के लिए संकल्प शुद्धि का अभ्यास सहायक हो सकता है।
(26) शयनकाले सत्संकल्पकरणम्।।
(27) ते च-ज्योतिर्मयोऽहं स्वस्थोऽहं निर्विकारोऽहं वीर्यवानहं-इत्यादयः।।
(28) निद्रामोक्षे जपो ध्यान×ज।।
(29) परानिष्टचिन्तनेन मनोविघातः।।
(30) आत्मौपम्यचिन्तया मनोविकासः।।
(26) सोते समय पवित्र संकलप करने चाहिए।
(27) मैं ज्योतिर्मय हूँ, आनंदमय हूँ, स्वस्थ हूँ, निर्विकार हूँ, वीर्यवान् हूँ-आदि-आदि सत्संकल्प हैं। संकल्प करते समय मन स्थिर और पवित्र होना चाहिए।
(28) नींद टूटते ही जप और ध्यान करना चाहिए।
(29) दूसरों की अनिष्ट चिंता करने से मन की शक्ति का हनन होता है।
(30) आत्मौपम्य (प्राणी मात्र को अपने समान मानकर) चिंतन करने से मन का विकास होता है।

संकल्प

मानसिक विकास के अनेक साधन हैं। उनमें दृढ़ संकल्प भी एक साधन है। दृढ़ संकल्प का व्यक्ति के जीवन पर सीधा असर होता है। उससे व्यक्ति के संस्कारों का निर्माण होता है। मन में अच्छे संस्कार जागते हैं, तब व्यवहार पर भी अच्छाई का प्रतिबिंब पड़ता है। किसी के प्रति बुरी भावना उठती है, तो उसका परिणाम भी लंबे समय तक भुगतना पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति में मानवीय दुर्बलताएँ होती हैं। किसी में क्रोध, किसी में ईर्ष्या तो किसी में आग्रह आदि-आदि वृत्तियों की शुद्धि के लिए संकल्प सीधा मार्ग है। संकल्प की साधना करने वाला इन सूत्रों पर ध्यान दे-
(क) संकल्प दृढ़ निष्ठा व विश्वास के साथ करना चाहिए-मैं यह काम कर सकता हूँ, यह काम होकर रहेगा।
(ख) संकल्प उच्चारणपूर्वक होना चाहिए। कम से कम बीस-तीस बार संकल्प को जोर से बोलकर दोहराना चाहिए।
(ग) संकल्प में तन्मय होने से वह शरीर-व्यापी हो जाता है।

(क्रमशः)