आगम वाणी सुनने से भी हो सकता है वैराग्यभाव का विकास: आचार्यश्री महाश्रमण
09 अगस्त 2023 नन्दनवन मुम्बई
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र के नौंवे दशक की व्याख्या करते हुए फरमाया कि भगवान महावीर जब विराजमान थे, उस समय ब्राह्मण कुंड ग्राम का नगर था। वहां बहुशालक चैत्य भी था। उस नगर में एक ब्राह्मण था, जिसका नाम था- ऋषभदत्त। वह वेदों का ज्ञाता था। वह श्रमणोपासक था। जीव-अजीव को जानने वाला था। वह अपना तप कर्म भी करता रहता था। उस ब्राह्मण की भार्या का नाम देवानन्दा था। वह भी तपस्या करती रहती थी। ऋषभदत्त को ज्ञात हुआ कि भगवान महावीर इस ब्राह्मण्ड कुंड के पास ही पधारे हैं। वह अपनी भार्या को साथ लेकर भगवान के दर्शन करने गये। भगवान के दृष्टिगोचर होते ही वे गरिमापूर्ण तरीके से वन्दना कर रहे हैं। दर्शन करने के बाद देवानन्दा को अपार हर्ष हुआ और उसके स्तनों से दूध की धार बह चली। आंखों से आंसू भी आने लगे।
यह दृश्य देख गौतम स्वामी भगवान से बोले कि भन्ते! यह जो बहन श्राविका बैठी है, इसके स्तन से दूध की धार बह रही है, आंखों से अश्रु धारा बह रही है, वह इतनी हर्षोल्लासित कैसे हो रही है ? वह आपको त्राटक हो अनिमेष देख रही है। भगवान बोले- गौतम! यह श्राविका देवानन्दा मेरी माता है। इसलिए वह इतनी हर्षातिरेक हो रही है। यह मां का ममत्व भाव है।
भगवान की दो माताएं थी। मूल माता-पिता तो देवानन्दा और ऋषभदत्त ही थे। बाद में गर्भ संहनन कर त्रिशला की कुक्षी में गर्भ को स्थापित किया गया था। आगम वाणी एवं प्रवचन श्रवण से जागृति -वैराग्यभाव का विकास हो सकता है। ऋषभदत्त ने भी प्रभु की वाणी सुनकर हाथ जोड़ प्रभु से कहा कि आपने जो फरमाया वह ही सही है। ऋषभदत्त के मन में वैराग्य भाव आये। वह अपने गहने, कपड़े उतार देता है। सिर का लोच कर भगवान के चरणों में पहुंच जाता है। भगवान से बोले कि इस संसार में तो कष्ट भरेे हैं, आग लगी है, अनेक कष्ट हैं। मैं इस संसार से निकलकर दीक्षा लेना चाहता हूं। भगवान ऋषभदत्त को मुंडित कर दीक्षा प्रदान कर शिक्षा भी प्रदान कराते हैं। दीक्षा ग्रहण कर ऋषभदत्त आगमों का अध्ययन कर तपस्या से अपने को भावित करता हुआ केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष चला जाता है। देवानन्दा भी भगवान से दीक्षा ग्रहण कर लेती है। भगवान देवानन्दा को चन्दनबाला को सौंप देते हैं। दोनों का कल्याण हो गया।
इस घटना से यह जाना जा सकता है और प्रेरणा ली जा सकती है कि माता का पुत्र के प्रति कितना स्नेह भाव होता है। मां तो मां ही होती है। मां की ममता बड़ी निर्मल होती है। पुत्र कितना ही बड़ा हो जाये, कितना ही बड़ा पद प्राप्त कर ले, मां के लिए तो वह पुत्र ही रहता है। दूसरी बात जानने की है कि भगवान ने बहुत लोगों के साथ अपने पहले माता-पिता का भी कल्याण कर दिया। यों पुत्र के हाथों माता-पिता मोक्ष को प्राप्त हो गये। यह व्यावहारिक जगत में महत्वपूर्ण बात है। जप-तप से आत्मा का कल्याण हो सकता है। गुरुदेव तुलसी ने भी अपनी मां को दीक्षा प्रदान की थी। हम भी जो संसारपक्षीय हैं, उनका कल्याण हो ऐसा प्रयास कर सकते हैं। परमपावन पूज्य कालूगणी के जीवन चरित्र कालूयशोविलास की सुन्दर व्याख्या कराते हुए पूज्यवर ने उनके मेवाड़ प्रस्थान के प्रसंग को समझाया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने फरमाया कि बाह्य शल्य की तरह आभ्यंतर शल्य भी मन को व्यथित करते हैं। शल्य के तीन प्रकार बताये गये हैं- माया, मिथ्यादर्शन और निदान शल्य। माया विष से भरे कुंभ के समान है। व्यवहार जगत हो या धार्मिक जगत, हमें माया नहीं करनी चाहिये। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।