साध्ना के द्वारा इन्द्रियातीत बनने का हो प्रयास: आचार्यश्री महाश्रमण
07 अगस्त 2023 नन्दनवन
अणुव्रत अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र की व्याख्या कराते हुए फरमाया कि जैन दर्शन में छह द्रव्य बताये गये हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। इन छहों में एक है- पुद्गलास्तिकाय। पुद्गल जो हमें दिखाई देते हैं, वे अजीव हैं, मूर्त हैं। परमाणु भी पुद्गल हैं। प्रश्न किया गया है कि जीव पुद्गली है, पुद्गल है। उत्तर दिया गया कि जीव पुद्गली भी है, पुद्गल भी है। जीव को पुद्गल कहा जाना नई बात हो सकती है, सामान्य भाषा में जीव अमूर्त है, पुद्गल मूर्त है। सिद्धों की आत्मा भी पुद्गल है। इन्द्रियों की अपेक्षा से जीव को पुद्गली भी कहा जा सकता है। संसारी चारों गतियों के जीवों के इन्द्रियां होती है, इसलिए वे पुद्गली ही कहलाते हैं। छत्र जिसके पास है- वह छत्री, दंड जिसके पास है- वह दंडी, घट जिसके पास है- वह घटी, पट जिसके पास है- वह पटी और कर (हाथी की सूंड) जिसके पास है- वह करी कहलाता है। वैसे ही जीव इन्द्रियों की अपेक्षा से पुद्गली कहलाता है। सिद्ध भगवान पुद्गल ही है। उनके इन्द्रियां नहीं होती।
पांच प्रकार की इन्द्रियों का वर्णन किया गया है- श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय। इन पांच इन्द्रियों में श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षुरेन्द्रिय हमारे ज्ञान की सक्षम माध्यम बनती है। मेरे शब्द आप सब के कानों में पड़ते हैं तो कितनी जानकारी मिल सकती है। आंखों से देखकर हम कितना जान लेते हैं। अन्य इन्द्रियों के माध्यम से ही ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है। जीव की वह अवस्था परम अवस्था होती है, जहां वह इन्द्रियों से मुक्त हो जाता है। साधना के द्वारा इन्द्रियातीत सिद्ध अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। पूज्यवर ने कालूयशोविलास का सुन्दर विवेचन करते हुए वड़नगर मर्यादा महोत्सव के प्रसंग को समझाया। लम्बी तपस्याओं के क्रम में प्रकाश परमार ने 38, हेमलता पोखरना ने 30, सारिका बड़ाला ने 28 एवं निधि कोठारी ने 15 की तपस्या के प्रत्याख्यान पूज्यवर से ग्रहण किये। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।