मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आसक्ति द्वैत में पैदा होती है। अद्वैत की भावना पुष्ट होने पर वह विलीन हो जाती है। उपनिषद् का स्वर है-वहाँ क्या मोह और क्या शोक होगा जो एकत्व को देखता है-
 
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।
 
एकत्व की भावना का दृढ़ अभ्यास करने पर शरीर, उपकरण आदि पर होने वाली आसक्ति क्षीण हो जाती है। संयोग हमारी व्यावहारिक सचाई है। हम उसका अतिक्रमण नहीं कर सकते किंतु इस वास्तविकता को भी नहीं भुला सकते कि अंततः आत्मा उन सबसे भिन्न है। इस भेद ज्ञान की अनुभूति को पुष्ट कर साधक देह में रहते हुए भी देह के बंधन से मुक्त हो जाता है।
बल की भावना से साधना की यात्रा में आने वाले कष्टों को सहन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। इन पाँच भावनाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि साधक वही व्यक्ति हो सकता है जो तपस्वी है, पराक्रमी है, ज्ञानी है, जिसे भेदज्ञान का दृढ़ अभ्यास है और जो बलवान् है। ये भावनाएँ कुछ लोगों में-जिनका शारीरिक संहनन सुदृढ़ और मनोबल विकसित होता है-अधिक जागृत होती है।
कुछ लोगों की धारणा है कि ये भावनाएँ पुराने जमाने में ही हो सकती थीं, आज नहीं हो सकतीं। किंतु यह धारणा निराशा को जन्म देती है। आज भी शक्ति के अनुसार ये भावनाएँ हो सकती हैं। यदि हम यह मानकर बैठ जाएँ तो हमारे सामने कुछ करने का अवकाश ही नहीं रहता। यदि हम इनकी संभावना को स्वीकार करते हैं तो अवश्य ही कुछ न कुछ आगे बढ़ते हैं।
 
परिशिष्ट
 
(1) प्रेक्षा की पाँच भूमिकाएँ
 
प्रेक्षा की सामान्य विधि का शिविर काल में उपयोग किया जाता है। प्रस्तुत भूमिकाएँ विशेष प्रयोग की हैं जो व्यक्ति अनेक शिविर कर लेते हैं उन्हें तथा जो प्रशिक्षक की अर्हता प्राप्त करते हैं उन्हें इन भूमिकाओं का अभ्यास आवश्यक करना चाहिए।
 
प्रथम भूमिका
 
(1) प्रेक्षाध्यान: श्वास प्रेक्षा
 
(क) प्रेक्षाध्यान: दीर्घ श्वास के साथ
कायोत्सर्ग मुद्रा में, सुखासन या पद्मासन में स्थित होकर प्रयत्नपूर्वक श्वास और प्रश्वास को दीर्घ-लंबा करते हुए श्वास की प्रेक्षा का अभ्यास करें।
समय-दस मिनट से एक घंटा तक।
 
(ख) प्रेक्षाध्यन: समवृत्ति श्वास के साथ
मुद्रा और आसन-ऊपरवत्।
संकल्पपूर्वक श्वास के स्वर को बदलते हुए, प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में समान समय लगाएँ और श्वास की प्रेक्षा का अभ्यास करें।
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
 
(ग) प्रेक्षाध्यान: सहज श्वास के साथ
मुद्रा और आसन-ऊपरवत्।
सहज श्वास की प्रेक्षा करें।
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
 
(2) प्रेक्षाध्यान: अनिमेष प्रेक्षा
एक बिंदु पर दृष्टि टिकाकर अभिमेष ध्यान करें। बिंदु दृष्टि की समरेखा में तीन फीट की दूरी पर होना चाहिए। भृकुटि या नासाग्र पर भी किया जा सकता है।
समय-एक मिनट से पाँच मिनट तक।
 
(3) भावना-योग
(क) अनित्य अनुप्रेक्षा
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
 
(ख) अर्हम् भावना
समय-पाँ मिनट से आधा घंटा तक।
(ग) ‘हुं’ भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
 
(4) श्वास-संयम
रेचनपूर्वक बाह्य कुम्भक।
समय-पाँच मिनट तक सुविधापूर्वक जितनी आवृत्तियाँ हो सकें।
 
(5) संकल्प-योग
प्रातःकालीन जागरण के साथ पाँच मिनट तक भावना का अभ्यास करें। जिन गुणों का विकास चाहें, उन गुणों की तन्मयता का अनुभव करें-उन गुणों से चित्त को भावित करें।
 
(6) प्रतिक्रमण-योग
रात्रि-शयन से पूर्व पाँच मिनट तक अपनी अतीत की प्रवृत्तियों का सजगतापूर्वक निरीक्षण करें-समय की अपेक्षा से प्रतिलोम निरीक्षण करें।
 
(7) भाव-क्रिया
अपनी दैनिक प्रवृत्तियों में भाव-क्रिया का अभ्यास करें-वर्तमान क्रिया में तन्मय रहने का अभ्यास करें। जैसे-चलते समय केवल चलने का ही अनुभव हो, खाते समय केवल खाने का, इत्यादि। जो क्रिया करें उसकी स्मृति बनी रहे।
 
द्वितीय भूमिका
 
(1) प्रेक्षाध्यान
(क) श्वास-प्रेक्षा-प्रेक्षाध्यान सूक्ष्म श्वास के साथ-कायोत्सर्ग मुद्रा में सुखासन या पद्मासन में स्थित हो सूक्ष्म श्वास-प्रेक्षा का अभ्यास करें।
(ख) प्रकम्पन-प्रेक्षा-सिर से लेकर पैर तक क्रमशः शरीर के प्रत्येक अवयव में सूक्ष्म श्वास के साथ प्रकम्पन पैदा करें और उनकी प्रेक्षा करें।
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
(ग) सहज प्रकम्पन-प्रेक्षा-सिर से लेकर पैर तक प्रत्येक अवयव में होने वाले सहज प्रकम्पनों का निरीक्षण करें।
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
(2) प्रेक्षाध्यान: अभिमेष प्रेक्षा
समय-तीन मिनट से सात मिनट तक।
(3) भावना-योग
(क) एकत्व-अनुप्रेक्षा
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
(ख) अर्हम् भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(ग) ‘हुं’ भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(4) श्वास-संयम
रेचकपूर्वक बाह्य कुम्भक।
समय-पाँच मिनट तक सुविधापूर्वक जितनी आवृत्तियाँ हो सकें।
(5) संकल्प योग
प्रातःकालीन जागरण के साथ पाँच मिनट तक भावना का अभ्यास करें। जिन गुणों का विकास चाहें, उन गुणों की तन्मयता का अनुभव करें-उन गुणों से चित्त को भावित करें।
(6) प्रतिक्रमण-योग
रात्रि-शयन से पूर्व पाँच मिनट तक अपनी अतीत की प्रवृत्तियों का सजगतापूर्वक निरीक्षण करें-समय की अपेक्षा से प्रतिलोम निरीक्षण करें।
(7) भाव-क्रिया
अपनी दैनिक प्रवृत्तियों में भाव-क्रिया का अभ्यास करें-वर्तमान क्रिया में तन्मय रहने का अभ्यास करें। जैसे-चलते समय केवल चलने का ही अनुभव हो, खाते समय केवल खाने का, इत्यादि। जो क्रिया करें, उसकी स्मृति बनी रहे।
(क्रमशः)