संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
 
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
 
भगवान् प्राह
 
(34) एकत्वभावनादेव, निःसङ्गत्वं प्रजायते।
निःसङ्गो जनमध्येऽपि, स्थितो लेपं न गच्छति।।
 
एकत्व-भावना से निःसंगता-निर्लिप्तता उत्पन्न होती है। निःसंग मनुष्य जनता के बीच रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता।
 
एक उत्पद्यते तनुमानेक एव विपद्यते।
एक एव हि कर्म चिनुते, सैकिकः फलमषूनुते।।
 
‘जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। जीव अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है।’ यह एकत्व भावना का चिंतन है। इसके अभ्यास से व्यक्ति में निःसंगता पैदा होती है और अपने-आप पर निर्भर रहने की वृत्ति पनपती है। प्रत्येक बुद्ध नमि मिथिला के राजा थे। एक बार वे दाहज्वर से पीड़ित हुए। उपचार चला। रानियाँ स्वयं चंदन घिस रही थीं। उनके हाथों में पहने हुए कंगन बज रहे थे। उस आवाज से नमि खिन्न हो गए। कंगन उतार दिए गए। केवल एक-एक कंगन रखा। आवाज बंद हो गई। नमि ने कारण पूदा। मंत्री ने कहाµ‘सभी कंगन उतार दिए गए हैं। केवल एक-एक कंगन रखा गया है। एक में आवाज नहीं होती।’µनमि ने सोचाµ‘सुख अकेलेपन में है। जहाँ दो हैं वहाँ दुःख है।’ इस एकत्व-भावना से प्रबुद्ध होकर वे प्रव्रजित हो गए।
 
(35) न प्रियं कुरुते कस्याप्यप्रियं कुरुते न यः।
सर्वत्र समतामेति, समाधिस्तस्य जायते।।
 
जो किसी का प्रिय भी नहीं करता और अप्रिय भी नहीं करता, सर्वत्र समता का आचरण करता है, उसे समाधि प्राप्त होती है।
 
इस श्लोक में आत्मनिष्ठ व्यक्ति के कर्तव्य का निर्देश है। उसमें राग-द्वेष नहीं होता। उसके लिए ‘मेरा’ और ‘पराया’ कुछ नहीं होता। वह प्रवृत्ति करता है, किसी का इष्ट या अनिष्ठ करने के लिए नहीं, किंतु अपना कर्तव्य-पालन करने के लिए। उसमें किसी का इष्ट सध सकता है। इष्ट या अनिष्ठ प्रवृत्ति का मूल राग-द्वेष है। जो व्यक्ति इनसे प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है, वह सदा पवित्र नहीं रह सकता। जो आत्मनिष्ठ होता है, उसके लिए सब समान हैं। वह सारी प्रवृत्तियाँ आत्म-साक्षात्कार करने के लिए करता है। यही उसकी आत्म-निष्ठा है। यह सामान्य अवस्था नहीं है। यह ऊँची साधना से प्राप्त होती है। अप्रिय करने की बात हरेक की समझ में आ जाती है, किंतु प्रिय न करनाµयह कुछ अमानवीय तथ्य-सा लगता है, किंतु भूमिका-भेद से यह भी मान्य होता है। सभी व्यक्तियों के कर्तव्य अपनी-अपनी भूमिका से उत्पन्न हैं। अतः उस ऊँची भूमिका पर पहुँचे मनुष्य के कर्तव्य भी भिन्न हो जाते हैं। यह समता का परम विकास है।
 
(क्रमशः)