सांसारिक चीजों में उलझकर धर्म से विमुख न हो: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सांसारिक चीजों में उलझकर धर्म से विमुख न हो: आचार्यश्री महाश्रमण

14 अगस्त 2023 नंदनवन, मुंबई
आगम वाणी का रसास्वाद कराते हुए युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि भगवती सूत्र में बताया गया है- गौतम ने भगवान महावीर से पूछा कि भंते! जागरिका कितने प्रकार की होती है। भगवान महावीर ने उतर दिया कि सोना और जागना हमारे जीवन में चलते हैं। यह बाहर से संबंधित है, तो भीतर से भी संबधित है। भीतर से जो संबंधित है, वह निद्रा प्रमाद, मुर्छा और अज्ञान के रूप में है, वह भीतरी सुसुप्ति है। जहां ज्ञान, साधना है, वह जागरिका होती है। आदमी बाहर से सोता हुआ भी भीतर से जागता हुआ हो सकता है। अमुनि सोये रहते हैं, मुनि जागते रहते हैं।
जागरिका के तीन प्रकार बताये गये हैं- बुद्ध जागरिका, अबुद्ध जागरिका और अदृष्टा जागरिका। जो केवल ज्ञानी है, जो अर्हत भगवान है, जिन्हें केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त हो गया, जिन है, अतीत वर्तमान व भविष्य को जानने वाले सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, वे बुद्ध हैं। इनकी जागरिका बुद्ध जागरिका है।  हमारी जागरिका में एक बाधक तत्व है- मोहनीय कर्म। मोहनीय कर्म का परिवार अनेक सदस्यों वाला है। दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इन दो में सारे उपभेद समाविष्ट हो जाते हैं। केवलज्ञान वही प्राप्त कर सकता है, जिसके मोहनीय कर्म क्षीण हो गये हैं। सर्वज्ञ सतत् जागरूक रहते हैं, उन्हें कभी नींद नहीं आती है। उनकी यह जागरिका अध्यात्म परायणता है। 
जो जानकार नहीं है, वह अबुद्ध है। यहां बताया गया है जो साधु अणगार है, उनकी जागरिका अबुद्ध जागरिका है। वे अभी तक केवल ज्ञानी बुद्ध नहीं बने हैं। केवल ज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञान उनमें हो सकते है पर जब तक केवल ज्ञान नहीं होता है, उनमें अबुद्ध जागरिका होती है। जो श्रमणोपासक श्रावक होते हैं, जीव-अजीव आदि को जानते हैं और अपने श्रावक धर्म, तप कर्म की आराधना करने वाले होते हैं, उनमें भी अध्यात्म की जागरणा है। उनमें सम्यक् दर्शन है, कुछ व्रत त्याग है। इस जागरिका का नाम है- सुदृष्टा जागरिका। श्रावक तत्वविद् भी होता है। श्रावक अपनी सुदृष्टा जागरिका को अच्छी बनाये रखे। साधना के साथ व्यवहार में भी ईमानदारी रहे। 
आदमी की धर्म के प्रति उच्च कोटि की श्रद्धा हो। धर्म ही जीवन की आत्मा है। सांसारिक चीजों में उलझकर धर्म से विमुख न हो। अर्हनक जैसे श्रावक हांे। प्राण जाए तो जाए पर धर्म को नहीं छोड़ा। धर्म न वह वस्त्र है, जो ओढ़ा-उतारा जा सके। भीतर की धर्मनिष्ठा हो। प्रतिकूल स्थिति में भी हमें धर्म के प्रति जो आस्था है, उसे नहीं छोड़ना चाहिये। कठिनाईयां जीवन में आ सकती है। 
धर्म से जो मिलता है, वह पैसे से नहीं मिल सकता है। परीक्षा हो सकती है, उसमें हम फेल न होकर पास हों। श्रावकों को अपनी जागरिका बनाये रखना चाहिये। साधु और श्रावक दोनों की धर्म के प्रति आस्था बनी रहे।  पूज्यवर ने कालूयशोविलास के अंतर्गत विस्तृत रूप से समझाया कि किस तरह पूज्य कालूगणी ने इतनी वेदना में भी भीलवाड़ा से गंगापुर के लिए विहार कर अपने दिये गये वचन को निभाया। पूज्यवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाये।
महासभा द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय तेरापंथी सभा प्रतिनिधि सम्मेलन के अंतर्गत मंचीय मंचीय कार्यक्रम में परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समागत प्रतिनिधियो को संबोध प्रदान करवाया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।