जैन विद्या परीक्षा ज्ञान संवर्धन का माध्यम: आचार्यश्री महाश्रमण
नन्दनवन-मुम्बई 24 अगस्त 2023
जैन विश्व भारती के तत्त्वावधान में पूज्य सन्निधि में समण संस्कृति संकाय का त्रिदिवसीय 23वां दीक्षांत समारोह समायोजित हुआ। परमपूज्य आचार्यश्री ने उपस्थित संभागीगण को पावन आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि स्वाध्याय के द्वारा कर्म की निर्जरा भी होती है और चित्त की निर्मलता का विकास भी हो सकता है। जैन विश्व भारती के अंतर्गत समण संस्कृति संकाय जैन विद्या का अच्छा ज्ञान कराने वाला है। आगम मंथन प्रतियोगिता स्वाध्याय का अच्छा माध्यम है। जैन विद्या परीक्षा ज्ञान संवर्धन का माध्यम है। इसके द्वारा लोग अपने ज्ञान का संवर्धन करें। तेरापंथी के साथ-साथ अन्य जैन लोग भी जैन विद्या का अध्ययन करें तो अच्छा लाभ मिल सकता है। जैन विश्व भारती और अधिक धार्मिक-आध्यात्मिक विकास करती रहे। आचार्यश्री से आशीष प्राप्त कर सभी संभागी प्रफुल्लित नजर आ रहे थे।
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र के बारहवें शतक के दसवें उद्देशक की विवेचना कराते हुए फरमाया कि प्रश्न किया गया है कि आत्मा कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? उतर दिया गया कि अध्यात्म जगत में आत्मा एक मौलिक तत्त्व है। आत्मा है तो यह अध्यात्म का जगत टिका हुआ है। आत्मवाद धर्म जगत का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। आत्मा और शरीर को अलग-अलग माना गया है। आत्मा के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं। द्रव्य आत्मा, कषाय आत्मा, योग आत्मा, उपयोग आत्मा, ज्ञान आत्मा, दर्शन आत्मा, चारित्र आत्मा और वीर्य आत्मा। इनमें मूल तो द्रव्य आत्मा है, जो असंख्य प्रदेशों का पिंड है। द्रव्य आत्मा तो सिद्ध हो या संसारी सभी में होती है। द्रव्य आत्मा ही अन्य सात आत्माओं का आधार है। गुण और पर्याय रहने का स्थान द्रव्य आत्मा ही है।
द्रव्य और भाव का अनेक संदर्भों में प्रयोग किया जाता है। द्रव्य आत्मा के सिवाय शेष सात आत्माएं पर्याय है। द्रव्य आत्मा पाप को ग्रहण नहीं करती, भाव आत्मा ही पाप का ग्रहण कर सकती है। जिसमें कषाय है, वह कषाय आत्मा है। यह दसवें गुणस्थान तक होती है। मन, वचन, काया की प्रवृृत्ति कराने वाला जो व्यापार है, वो योग आत्मा है। तेरहवें गुणस्थान तक योग आत्मा है।
चैतन्य क्रिया में प्रवृत्त जीव है, वह जो व्यापार है, वह उपयोग आत्मा है। उपयोग आत्मा हर जीव में होती है। सिद्धों में भी उपयोग आत्मा होती है। द्रव्य आत्मा है तो उपयोग आत्मा तो होगी ही। सम्यक् दर्शन युक्त जीव में ही ज्ञान आत्मा होती है। जिन जीवों में मिथ्यात्व है, उनमें ज्ञान आत्मा नहीं हो सकती। दर्शन आत्मा सब जीवों में होती है। चारित्र आत्मा सावद्य प्रवृत्ति से निवृृत्त, व्रत सम्पन्न साधु में होती है। सिद्धों में चारित्र आत्मा नहीं होती। गृहस्थ श्रमणोपासक, आंशिक रूप में देशतः चारित्र आत्मा हो सकती है।
उत्थान-बल आदि की शक्ति है, वह वीर्य आत्मा होती है। यह आत्मा सिर्फ संसारी जीवों में ही होती है। कारण वीर्य आत्मा शरीर के बिना नहीं हो सकती। सिद्धों में तो चार आत्मा ही होती है- द्रव्य आत्मा, उपयोग आत्मा, ज्ञान आत्मा और दर्शन आत्मा। आठ आत्माओं में कषाय आत्मा तो छोड़ने की ही है। चारित्रात्मा सम्यक्् दर्शन आत्मा मेरी पुष्ट रहे। हम वीर्य शक्ति का सदुपयोग करें। अलग-अलग जीवों में अलग-अलग आत्माएं हो सकती है। पूज्यवर ने कालूयशोविलास की विवेचना कराते हुए पूज्य कालूगणी एवं भावी युवाचार्य के बीच हुए वार्तालाप के प्रसंग को व्याख्यायित किया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने फरमाया कि मनुष्य के पास व्यक्त भाषा होती है। बोलना एक बात है, कलापूर्ण बोलना अलग बात है। हम वाणी का सदुपयोग करें। दूसरों के गुणगान करें। प्रमोद भावना से मन प्रसन्न रहता है। वाणी अमूल्य रतन है। हम सुभाषित वाणी का उपयोग करें।
दीक्षांत समारोह के तीसरे दिन आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में उसका मंचीय उपक्रम हुआ। जैन विश्व भारती व समण संस्कृति संकाय के पदाधिकारियों द्वारा गीत की प्रस्तुति की गई। समण संस्कृति संकाय के विभागाध्यक्ष मालचंद बेंगानी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। जैन विश्व भारती के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि कीर्तिकुमारजी ने संकाय को एक परिवार की तरह बताया जो आध्यात्मिक प्रचार-प्रसार एवं ज्ञानार्जन में लगा हुआ है। पूज्यवर ने सिद्धि तप में साधनारत पुष्पा भण्डारी एवं अन्य तपस्वियों को तपस्या के प्रत्याख्यान करवाये। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।