मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आचार्य तुलसी
(क्रमशः)
आगम-साहित्य में ध्यान विषयक कोई स्वतंत्र आगम उपलब्ध नहीं है। नंदी-सूत्र की उत्कालिक आगमों की सूची में ‘ध्यान-विभक्ति’ नामक आगम का उल्लेख है, किंतु वह आज उपलब्ध नहीं है। इस स्थिति में उपलब्ध आगम साहित्य में आए हुए ध्यान-विषयक प्रकरणों का अध्ययन शुरू किया और साथ-साथ उनके व्याख्या-ग्रंथों तथा ध्यान-विषयक उत्तरवर्ती साहित्य का भी अवगाहन किया। इस अध्ययन से जो प्राप्त हुआ उसके आधार पर ध्यान की एक रूपरेखा उत्तराध्ययन के टिप्पणों में प्रस्तुत की गई। विक्रम संवत् 2018 में आचार्यश्री ने ‘मनोनुशासनम्’ की रचना की। मैंने पहले उसका अनुवाद किया और वि0सं0 2024 में उस पर विशद व्याख्या लिखी। उसमें जैन-साधना पद्धति के कुछ रहस्य उद्घाटित हुए। वि0सं0 2028 में आचार्यश्री के सान्निध्य में साधु-साध्वियों की विशाल परिषद् में जैन योग के विषय में पाँच भाषण हुए। उससे दृष्टिकोण को और कुछ स्पष्टता मिली। वे ‘चेतना का ऊर्ध्वारोहण’ इस शीर्षक से प्रकाशित हैं। भगवान् महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी के वर्ष में ‘महावीर की साधना का रहस्य’ पुस्तक प्रकाशित हुई। ये सारे प्रयत्न उसी प्रश्न का उत्तर पाने की दिशा में चल रहे थे।
उस प्रश्न का बीज विक्रम संवत् 2012 के उज्जैन चातुर्मास में बोया गया था। वहाँ आचार्यश्री के मन में साधना विषयक नए उन्मेष लाने की बात आई। ‘कुशल-साधना’-इस नाम से कुछ अभ्यास-सूत्र निर्धारित किए गए और साधु-साध्वियों ने उनका अभ्यास शुरू किया। साधना के क्षेत्र में यह एक प्रथम रश्मि थी। उससे बहुत नहीं, फिर भी कुछ आलोक अवश्य मिला। उसके पश्चात् अनेक छोटे-छोटे प्रयत्न चलते रहे। वि0सं0 2020 की सर्दियों में मर्यादा महोत्सव के अवसर पर ‘प्रणिधान कक्ष’ का प्रयोग किया गया। उस दस दिवसीय साधना सत्र में काफी बड़ी संख्या में साधु-साध्वियों ने भाग लिया। उसमें ‘जैन योग’ पर काफी चर्चा हुई। भावक्रिया के विशेष प्रयोग किए गए। उस चर्चा का संक्षिप्त संकलन ‘तुम अनंत शक्ति के स्रोत हो’ पुस्तक में प्राप्त है।
कई शताब्दियों से पहले विच्छिन्न ध्यान-परंपरा की खोज के लिए ये सभी प्रयत्न पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए। जैसे-जैसे कुछ रहस्य समझ में आते गए, वैसे-वैसे प्रयत्न को तीव्र करने की आवश्यकता अनुभव होती गई। वि0सं0 2029 में लाडनूं में एकमासीय साधना-सत्र का आयोजन किया गया। उसके बाद चूरू, राजगढ़, हिसार और दिल्ली-इन चारों स्थानों में दस-दस दिवसीय साधना-सत्र आयोजित किए गए। ये सभी साधना-सत्र ‘तुलसी अध्यात्म नीड्म’ जैन विश्व भारती के तत्त्वावधान में और आचार्य तुलसी के साहित्य में संपन्न हुए। इन शिविरों ने साधना का पुष्ट वातावरण निर्मित किया। अनेक साधु-साध्वियाँ तथा गृहस्थ ध्यानसाधना में रुचि लेने लगे। अनेक साधु-साध्वियाँ इस विषय में विशेष अभ्यास और प्रयोग भी करने लगे।
इन बहु-आयामी प्रयत्नों के द्वारा भावक्रिया, कायोत्सर्ग, अनुप्रेक्षा, भावना-ये विषय उत्तरोत्तर स्पष्ट होते हुए, किंतु ध्यान का विषय उतना स्पष्ट नहीं हुआ जितना कि होना चाहिए था। ध्यान के सूत्र हाथ लगे पर उनका अर्थ हाथ नहीं लगा। गुरुमुख से जो अर्थ समझाया जाता था। जो पद्धति सिखाई जाती थी, वह प्राप्त नहीं हो सकी। वि0सं0 2028 के लाडनूं चातुर्मास में मैंने आचारांग का अनुवाद प्रारंभ किया। उसके ध्यान सूत्रों की ओर दृष्टि आकर्षित हुई। वह सूत्रात्मक शैली में लिखा हुआ आगम है। उसमें ध्यान के सूत्र पकड़ में आए, किंतु उनकी अभ्यास-पद्धति परंपरा के अभाव में कैसे पकड़ी जा सकती थी? महर्षि पतंजलि के ‘योगसूत्र और बौद्धों के ‘विशुद्धिमग्ग’ के आलोक में आचारांग के ‘ध्यानसू.त्रों की अभ्यास-पद्धति को समझने का प्रयत्न किया गया और उसमें कुछ सफलता मिली। वि0सं0 2031 में ‘अध्यात्म साधना केंद्र’ दिल्ली में सत्यनारायणजी गोयनका ने ‘विपश्यना ध्यान शिविर’ का आयोजन किया। उसमें अनेक साधु-साध्वियों ने भाग लिया। मैं भी उसमें सम्मिलित था। उस शिविर में हम लोग ‘आनापानसती’ और ‘विपश्यना’ का प्रयोग कर रहे थे। मैं प्रयोग के साथ-साथ अपने प्रश्न का समाधान भी खोज रहा था और उससे कुछ समाधान मिला भी। जैन और बौद्ध-दोनों एक ही श्रमण परंपरा के अंग हैं। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध-दोनों सम-सामयिक हैं। दोनों की ध्यान पद्धति में साम्य है। राग-द्वेष के मल को क्षीण कर चित्त को निर्मल बनाना और चैतसिक निर्मलता के द्वारा चेतना को जागृत करना, दोनों परंपराओं को इष्ट है। बौद्ध परंपरा में ध्यान शाखा का अस्तित्व उपदेश शाखा से स्वतंत्र रहा, इसलिए उसमें ध्यान के अभ्यास की पद्धति अविच्छिन्न रूप में चलती रही। जैन परंपरा में ध्यान की कोई स्वतंत्र शाखा नहीं रही, इसलिए उसके ध्यानसूत्रों की अभ्यास-पद्धति विच्छिन्न हो गई। उस विच्छिन्न अभ्यास-पद्धति को समझने में विपश्यना ध्यान का प्रयोग बहुत सहायक सिद्ध हुआ। गोयनका जी जैसे साधना-सिद्ध, उदारमना और ऋजु-प्रकृति के व्यक्ति से विपश्यना के रहस्यों को समझने में और अधिक सहायता मिली। उसी वर्ष (वि0सं0 2031) लाडनूं में तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती के तत्त्वावधान में फिर बीस दिवसीय विपश्यना ध्यान शिविर आयोजित किया गया। उसमें सौ से अधिक साधु-साध्वियाँ सम्मिलित थीं। बीस दिन के निरंतर अभ्यास से जहाँ विपश्यना की गहराई में उतरने का अवसर मिला, वहाँ उसके अंतस्थल की गहराई को समझने का भी मौका मिला। जैन परंपरा के ध्यान-सूत्रों की अभ्यास पद्धति और अधिक स्पष्ट हो गई। हमने साधना की सभी पद्धतियों-हठयोग, तंत्रशास्त्र, शैव, शाक्त, राजयोग आदि का अनुशीलन किया और उनसे लाभ भी उठाया, किंतु उनके शिविरकालीन अभ्यास में सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिला। ध्यान का रहस्य सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता, वह अभ्यास से समझा जा सकता है।
वि0सं0 2032 जयपुर चातुर्मास में जैन परंपरागत ध्यान का अभ्यास-क्रम निश्चित करने का संकल्प हुआ। हम लोग आचार्यश्री के उपपात में बैठे और संकल्पपूर्ति का उपक्रम शुरू हुआ। हमने ध्यान की इस अभ्यास-विधि का नामकरण ‘प्रेक्षाध्यान’ किया। इसकी पाँच भूमिकाएँ निर्धारित की गई। यह ‘प्रेक्षाध्यान-पद्धति’ के विकास का संक्षिप्त इतिहास है।
प्रेक्षा
प्रेक्षा शब्द ईक्ष् धातु से बना है। इसका अर्थ है-देखना। प्र$ईक्षा त्र प्रेक्षा, इसका अर्थ है-गहराई में उतरकर देखना। विपश्यना का भी यही अर्थ है। जैन साहित्य में प्रेक्षा और विपश्यना-ये दोनों शब्द प्रयुक्त हैं। प्रेक्षाध्यान और विपश्यना ध्यान-ये दोनों शब्द इस ध्यान-पद्धति के लिए प्रयुक्त किए जा सकते थे, किंतु ‘विपश्यना-ध्यान’ इस नाम से बौद्धों की ध्यान-पद्धति प्रचलित है। इसलिए ‘प्रेक्षाध्यान’ इस नाम का चुनाव किया गया। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है-‘संपिक्खए अप्पगमप्पएणं’-‘आत्मा के द्वारा आत्मा की संप्रेक्षा करो, मन के द्वारा सूक्ष्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो। ‘देखना’ ध्यान का मूल तत्त्व है। इसीलिए इस ध्यान-पद्धति का नाम ‘प्रेक्षाध्यान’ रखा गया है।
जानना और देखना चेतना का लक्षण है। आवृत चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है-जानो और देखो। भगवान् महावीर ने साधना के जो सूत्र दिए हैं, उनमें ‘जानो और देखो’ यही मुख्य है। ‘चिंतन, विचार या पर्यालोचन करो’-यह बहुत गौण और बहुत प्रारंभिक है। यह साधना के क्षेत्र में बहुत आगे नहीं ले जाता।
भगवान् महावीर ने बार-बार कहा-जानो और देखो। आचारांग सूत्र इसका साक्ष्य है। महावीर कहते हैं-‘हे आर्य! तू जन्म और वृद्धि के क्रम को देख। जो क्रोध को देखता है, वह मान को देखता है। जो मान को देखता है, वह माया को देखता है। जो माया को देखता है, वह लोभ को देखता है। जो लोभ को देखता है, वह प्रिय को देखता है। जो प्रिय को देखता है, वह अप्रिय को देखता है। जो अप्रिय को देखता है, वह मोह को देखता है। जो मोह को देखता है, वह गर्भ को देखता है। जो गर्भ को देखता है, वह जन्म को देखता है, जो जन्म को देखता है, वह मृत्यु को देखता है। जो मृत्यु को देखता है, वह नरक और तिर्यंच को देखता है। जो नरक और तिर्यंय को देखता है, वह दुःख को देखता है। जो दुःख को देखता है वह क्रोध से लेकर दुःख पर्यन्त होने वाले इस चक्रव्यूह को तोड़ देता है। ‘यह निरावरण द्रष्टा का दर्शन है।’ ‘तू देख यह लोक चारों ओर प्रकंपित हो रहा है।’ ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं और मध्य में स्रोत हैं। उन्हें तुम देखो। महान् साधक अकर्म (ध्यानस्थ-मन, वचन और शरीर की क्रिया का निरोध कर) होकर जानता-देखता है। जो देखता है उसके लिए कोई उपदेश नहीं होता। जो देखता है उसके कोई उपाधि होती है या नहीं होती? उत्तर मिला-नहीं होती।
उक्त कुछ सूत्रों से देखने और जानने की बात समझ में आ सकती है। देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है। जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं हैं और जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं हैं। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अंतिम साधन है-देखना। कल्पना के चक्रव्यूह को तोड़ने का सबसे सशक्त उपाय है-देखना। आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएँगे, विकल्प शून्य हो जाएँगे। आप स्थिर होकर अपने भीतर देखें-अपने विचारों को देखें या शरीर के प्रकंपनों को देखें तो आप पाएँगे कि विचार स्थगित हैं और विकल्प शून्य हैं। भीतर की गहराइयों को देखते-देखते सूक्ष्म शरीर को देखने लगेंगे। जो भीतरी सत्य को देख लेता है, उसमें बाहरी सत्य को देखने की क्षमता अपने आप आ जाती है।
देखना वह है, जहाँ केवल चैतन्य सक्रिय होता है। जहाँ प्रियता और अप्रियता का भाव आ जाए, राग और द्वेष उभर जाएँ वहाँ देखना गौण हो जाता है। यही बात जानने पर लागू होती है। हम पहले देखते हैं, फिर जानते हैं। इसे इस भाषा में स्पष्ट किया जा सकता है कि हम जैसे-जैसे देखते जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं। मन से देखने को ‘पश्यत्ता’ (पासणया) कहा गया है। इंद्रिय-संवेदन से शून्य चैतन्य का उपयोग देखना और जानना है। जो पश्यक-द्रष्टा है, उसका दृश्य के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है। भगवान् महावीर ऊँचे, नीचे और मध्य में प्रेक्षा करते हुए समाधि को प्राप्त हो जाते थे। उक्त चर्चा के संदर्भ में प्रेक्षाध्यान का मूल्यांकन किया जा सकता है।
माध्यस्थ्य या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है। जो देखता है वह सम रहता है। वह प्रिय के प्रति राग-रंजित नहीं होता और अप्रिय के प्रति द्वेषपूर्ण नहीं होता। वह प्रिय और अप्रिय दोनों की उपेक्षा करता है-दोनों को निकटता से देखता है। और उन्हें निकटता से देखता है इसीलिए वह उनके प्रति सम, मध्यस्थ या तटस्थ रह सकता है। उपेक्षा या मध्यस्थता को प्रेक्षा से पृथक् नहीं किया जा सकता। ‘जो इस महान् लोक की उपेक्षा करता है-उसे निकटता से देखता है, वह अप्रमत्त विहार कर सकता है।
चक्षु दृश्य को देखता है पर उसे न निर्मित करता है और न उसका फल-भोग करता है। वह अकारक और अवेदक है। इसी प्रकार चैतन्य भी अकारक और अवेदक है। ज्ञानी जब केवल जानता या देखता है, तब न वह कर्मबंध करता है और न विपाक में आए हुए कर्म का वेदन करता है। जिसे केवल जानने या देखने का अभ्यास उपलब्ध हो जाता है, वह व्याधि या अन्य आगंतुक कष्ट को देख लेता है, जान लेता है, पर उसके साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं करता। इस वेदना की प्रेक्षा से कष्ट की अनुभूति ही कम नहीं होती किंतु कर्म के बंध, सत्ता उदय और निर्जरा को देखने की क्षमता भी विकसित हो जाती है। (क्रमशः)