संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(41) अस्तित्वमुच्यते सत्यं, निरपेक्षमिदं भवेत्।
सार्वभौमश्च नियमः, अपि सत्यमुदाहृतः।।
 
(42) पर्याया अपि सत्यं स्याद्, इदं सामयिकं भवेत्।
यथार्थवचन×चापि,       सत्यमित्युक्तमर्हता।।
(युग्मम्)
 
सत्य के अनेक अर्थ हैं। अस्तित्व निरपेक्ष सत्य है। सत्य का एक अर्थ है-सार्वभौम नियम। पर्याय सामयिक सत्य है। यथार्थ वचन को भी सत्य कहा गया है।
सत् शब्द से सत्य की निष्पत्ति हुई है। सत् पदार्थमात्र का धर्म है। सत् का अर्थ है-अस्ति-अस्तित्व। अस्तित्व ही सत्य है। इस जगत में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है या अस्तित्व होने के कारण पदार्थ है। अस्तित्व के अभाव में कोई पदार्थ नहीं होता। ‘नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः’ असत् पदार्थ नहीं होता और सत् अपदार्थ नहीं होता-यह समीचीन व्याख्या है।
इस असार संसार में सार सत्य-अस्तित्व है। ‘सच्चं लोयंमि सारभूयं’ सत्य ही इस श्लोक में सारभूत है, यह घोषणा द्रष्टा-पुरुषों की है। क्योंकि सत्य का दर्शन उन्हें ही होता है या वे ही सत्य का दर्शन करते हैं। अद्रष्टा व्यक्ति सत्य का दर्शन नहीं कर सकता। इससे यह फलित होता है कि सत्य को देखना है तो द्रष्टा बनो। द्रष्टा बनने का तात्पर्य है, अपने को देखना, जो स्वयं को देखता है वही सत्य को देखता है।
अपने अस्तित्व दर्शन के साथ-साथ सबका अस्तित्व प्रकट हो जाता है। अस्तित्व से भिन्न कुछ है ही नहीं। सत्य की यह परिभाषा निरपेक्ष है, शुद्ध है, पूर्ण है और शाश्वतिक है। अन्य परिभाषाएँ उसी से जुड़ी हुई हैं।
सार्वभौम नियम को भी सत्य कहते हैं। चेतनत्व चेतन का नियम है और अचेतनत्व अचेतन का। दोनों का कभी मिश्रण नहीं होता। आत्मा अनात्मा नहीं होता ओर अनात्मा आत्मा नहीं होता। पदार्थ में अन्य अपनी स्वभावगत विशिष्टताएँ होती हैं, वे सब सत्य हैं। उत्पत्ति और विनाश का भी अपना नियम है। यह प्रत्येक पदार्थ के साथ है, इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता है।
अवस्थाओं के परिवर्तन से पदार्थ में परिवर्तन आता है, यह भी सत्य है। किंतु यह शाश्वतिक नहीं, सामयिक है। जीव की विविध योनियों में विविध शरीरों के आधार पर भिन्न-भिन्न नामों की परिकल्पना। ये उनकी पर्यायगत अवस्थाएँ हैं। अंगूठी सोने की है तो चैन भी सोने की है, कड़ा भी सोने का है-स्वर्णत्व अस्तित्व है। यह उनकी विविध पर्यायें हैं। पर्याय की दृष्टि से ये सामायिक-व्यावहारिक सत्य है। ऐसे ही दृश्य जगत के जितने स्वरूप हैं वे सब उन-उन पुद्गलों की अवस्थाएँ हैं। नाम-रूप संसार की सत्यता सामयिक है, यह हमारे ध्यान में रहे। (क्रमशः)