मनोनुशासनम्
अप्रमाद
ध्यान का स्वरूप है अप्रमाद, चैतन्य का जागरण या सतत जागरूकता। भगवान् महावीर दिन-रात जागृत रहते थे। जो जागृत होता है, वही अप्रमत्त होता है। जो अप्रमत्त होता है, वही एकाग्र होता है। एकाग्रचित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान कर सकता है। भगवान् महावीर ने कहा-जो प्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति, अपने चैतन्य के प्रति जागृत नहीं होता, वह सब ओर से भय का अनुभव करता है। जो अप्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति, अपने चैतन्य के प्रति जागृत होता है, वह कहीं भी भय का अनुभव नहीं करता, सर्वथा अभय होता है।
भगवान् ने अपने ज्येष्ठ शिष्य गौतम से कहा-‘समयं गोयम! मा पमायए’ गौतम! तू क्षणभर भी प्रमाद मत कर। यह उपदेश-गाथा है। पर अभ्यास की कुशलता के बिना कैसे संभव है कि व्यक्ति क्षणभर भी प्रमाद न करे? भगवान् ने गौतम को अप्रमाद का उपदेश दिया तो अप्रमत्त रहने की साधना भी बतलाई होगी। अन्यथा इस उपदेश का कोई अर्थ भी नहीं होता। मन इतना चंचल और मोहग्रस्त है कि मनुष्य क्षणभर भी अप्रमत्त नहीं रह पाता। वह अप्रमाद की साधना क्या है? अप्रमाद के आलंबन क्या हैं? जिनके सहारे गौतम अप्रमत्त रहे और कोई भी व्यक्ति अप्रमत्त रह सकता है। उन आलंबनों की क्रमबद्ध व्याख्या आज उपलब्ध नहीं है, फिर भी महावीर की वाणी में वे आलंबन-बीज यत्र-तत्र बिखरे हुए आज भी उपलब्ध हैं। इस प्रेक्षाध्यान की पद्धति में उन्हीं बिखरे बीजों को एकत्र किया गया है। अप्रमाद के मुख्य आलंबन ये हैं-
(1) श्वास-प्रेक्षा, (2) कायोत्सर्ग, (3) शरीर-प्रेक्षा, (4) वर्तमान क्षण की प्रेक्षा, (5) समता, (6) संयम, (7) भावना, (8) अनुप्रेक्षा, (9) एकाग्रता।
(1) श्वास-प्रेक्षा
मन की शांत स्थिति या एकाग्रता के लिए श्वास का शांत होना बहुत जरूरी है। शांत श्वास के दो रूप मिलते हैं-(1) सूक्ष्म श्वास-प्रश्वास, (2) मंद श्वास-प्रश्वास। कायोत्सर्ग शतक में बताया गया है कि धर्म्य और शुक्ल ध्यान के समय श्वास-प्रश्वास को सूक्ष्म कर लेना चाहिए।
ध्यान तीन प्रकार के होते हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक। शरीर की प्रवृत्तियों का निरोध करना कायिक ध्यान है। इस ध्यान में श्वास-प्रश्वास का निरोध नहीं किया जाता किंतु उसे सूक्ष्म कर लिया जाता है। आचार्य मलयगिरि ने इसके विवरण में लिखा है कि कायोत्सर्ग में सूक्ष्म श्वास का निरोध नहीं होता, क्योंकि वह किया नहीं जा सकता। ‘कायोत्सर्ग शतक’ में भी सूक्ष्म श्वास-प्रश्वास के विधान के साथ सर्वथा श्वास के निरोध का निषेध किया गया है-‘अभिनव-कायोत्सर्ग’ करने वाला भी संपूर्ण रूप से श्वास का निरोध नहीं करता तो फिर चेष्टा-कायोत्सर्ग करने वाला उसका निरोध क्यों करेगा? श्वास के निरोध से मृत्यु हो जाती है, अतः कायोत्सर्ग में यतनापूर्वक सूक्ष्म श्वासोच्छ्वास लेना चाहिए। यह सूक्ष्म श्वास स्थूल श्वास-निरोध या कुंभक की कोटि में आ जाता है।
पार्श्वनाथ चरित्र में ध्यानमुद्रा का स्वरूप प्राप्त होता है। वह इस प्रकार है-पर्यंक-आसन, मन, वचन और शरीर के व्यापार का निरोध, नासाग्रदृष्टि और मंद श्वास-प्रश्वास। सोमदेव सूरी ने लिखा है-वायु को मंद-मंद लेना चाहिए और मंद-मंद छोड़ना चाहिए।
श्वास-विजय या श्वास-नियंत्रण के बिना ध्यान नहीं हो सकता-यह सचाई सर्वात्मना स्वीकृत रही है। बृहद् नयचक्र में योगी का पहला विशेषण श्वासविजेता है।
सोमदेव सूरी ने भी ‘मरुतो नियम्य-इस वाक्य में श्वास-नियंत्रण का निर्देश किया है।
श्वास-प्रश्वास पर ध्यान केंद्रित करने का कितना महत्त्व है, यह कायोत्सर्ग की विधि से जाना जा सकता है।
कायोत्सर्ग श्वास-प्रश्वास परिमाण
सायंकालीन सौ
प्रातःकालीन पचास
पाक्षिक तीन सौ
चातुर्मासिक पाँच सौ
वार्षिक एक हजार आठ
चेष्टा पचीस
अध्ययनकालीन (उद्देस, समुद्देस) सत्ताईस
अध्ययनकालीन (अनुज्ञा, प्रस्थापना) आठ
प्रायश्चित्त सौ
नदी-संतरण पचीस
श्वास-प्रश्वास का कालमान (या लंबाई) श्लोक के एक चरण के समान निर्दिष्ट है। एक चरण के चिंतन में जितना समय लगता है उतना श्वास-प्रश्वास का काल होता है।
भद्रबाहु स्वामी ने ‘महाप्राण’ ध्यान की साधना की थी। उसमें दीर्घकालीन कायोत्सर्ग औरश्वास की अत्यंत सूक्ष्मता, आंतरिक श्वास के निरोध की स्थिति होती है। इसीलिए इसे सूक्ष्म ध्यान कहा जाता है। ध्यान-संवर योग भी यही है। आचार्य पुष्पभूति के शिष्य पुष्पमित्र थे। आचार्य ने पुष्पमित्र को अपना सहायक नियुक्त कर सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश किया। उस सूक्ष्म ध्यान को ‘महाप्राण ध्यान’ के समान कहा गया है। उसमें न चेतना-मन होती है, न चलन और न स्पंदन। सूक्ष्म ध्यान की साधना में श्वास के निरोध की स्थिति भी मान्य रही है, किंतु सामान्य ध्यान की स्थिति में श्वास को सूक्ष्म करना ही मान्य रहा है। श्वास को तेज करना मान्य नहीं रह है। ध्यान की दृष्टि से उसकी उपयोगिता नहीं है। अहिंसा की दृष्टि से यह निर्देश प्राप्त है कि तेज श्वास से जीव-हिंसा होती है, इसलिए भस्त्रिका जैसे तीव्र श्वास वाले प्राणायाम नहीं करने चाहिए।
श्वास को सूक्ष्म, मंद, विजित और नियंत्रित करने के सूत्र उपलब्ध हैं, किंतु श्वास-प्रेक्षा की अभ्यास-विधि प्रत्यक्ष रूप में उपलब्ध नहीं है। उसे आनापान स्मृति तथा श्वास-दर्शन की अभ्यास-पद्धतियों के आधार पर विकसित किया गया है। भाव-क्रिया के रूप में उसका सूत्र उपलब्ध था, किंतु अभ्यास परंपरा के प्राप्त न होने के कारण, वह पकड़ा नहीं जा सका। श्वास के विषय में भाव-क्रिया का अर्थ होगा कि हम श्वास लेते समय ‘श्वास ले रहे हैं’-इसी का अनुभव करें, वही स्मृति रहे, मन किसी अन्य प्रवृत्तियों में न जाए, वह श्वासमय हो जाए, उसके लिए समर्पित हो जाए, श्वास की भाव-क्रिया ही श्वासप्रेक्षा है। यह नासाग्र पर की जा सकती है, श्वास के पूरे गमनागमन पर भी की जा सकती है। श्वास के विभिन्न आयामों और विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है।
(2) कायोत्सर्ग
शरीर की चंचलता, व्राणी का प्रयोग और मन की क्रिया-इन सबको एक शब्द में योग कहा जाता है। ध्यान का अर्थ है-योग का निरोध। प्रवृत्तियाँ तीन हैं और तीनों का निरोध करना है। फलतः ध्यान के भी तीन प्रकार हो जाते हैं-कायिक ध्यान, वाचिक ध्यान और मानसिक ध्यान। यह कायिक ध्यान ही कायोत्सर्ग है। इसे कायगुप्ति, काय-संवर, काय-विवेक, काय-व्युत्सर्ग और काय प्रतिसंलीनता भी कहा जाता है।
कायोत्सर्ग मानसिक एकाग्रता की पहली शर्त है। यह अनेक प्रयोजनों से किया जाता है, प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का संतुलन रखने के लिए जो किया जाता है, उसे ‘चेष्टा कायोत्सर्ग’ कहते हैं। प्राप्त कष्टों को सहने तथा कष्टजनित भय को निरस्त करने के लिए ‘अभिभव कायोत्सर्ग’ किया जाता है। क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन भी उसका एक प्रयोजन है। वह स्वयं प्रायश्चित्त है। अमंगल, विघ्न और बाधा के परिहार के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है। यात्रा के समय या अन्य किसी कार्यारम्भ के समय कोई अपशकुन या बाधा उपस्थित हो जाए तो आठ श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर, नमस्कार महामंत्र का चिंतन करना चाहिए। दूसरी बार भी बाधा उपस्थित हो तो सोलह श्वास-प्रश्वास कायोत्सर्ग कर, दो बार नमस्कार महामंत्र का चिंतन करना चाहिए। यदि तीसरी बार भी बाधा उपस्थित हो तो बत्तीस श्वास-प्रश्वास का कायोत्सर्ग कर चार बार नमस्कार महामंत्र का चिंतन करना चाहिए। चौथी बार भी बाधा उपस्थित हो तो विघ्न को अवश्यंभावी मानकर यात्रा का कार्यारम्भ नहीं करना चाहिए।
कायोत्सर्ग की अनेक उपलब्धियाँ हैं-
(1) देहजाड्यशुद्धि-श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट हो जाती है।
(2) परमलाघव-शरीर बहुत हल्का हो जाता है।
(3) मतिजाड्यशुद्धि-जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट हो जाती है।
(4) सुख-दुःख तितिक्षा-सुख-दुःख को सहने की क्षमता बढ़ती है।
(5) सुख-दुःख मध्यस्थता-सुख-दुःख के प्रति तटस्थ रहने का मनोभाव बढ़ता है।
(6) अनुप्रेक्षा-अनुचिंतन के लिए स्थिरता प्राप्त होती है।
(7) मन की एकाग्रता सधती है।
(क्रमशः)