धर्म की भावना से भावित रहना श्रेयस्कर : आचार्यश्री महाश्रमण
1 सितम्बर, 2023 नन्दनवन-मुम्बई
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य की आराधना में प्रगति कराने वाले आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र के चौदहवें उद्देशक के चौथे शतक में प्रश्न किया गया है कि यह जीव है, इस जीव ने अनन्त-जन्म लिए हैं। अनादि काल से जन्म-मरण की पम्परा चल रही है। इस सृष्टि में मानव हमेशा था, है और हमेशा रहेगा। नरक, तिर्यन्च, मनुष्य और देवगति है, वो प्रवाह रूप में शाश्वत है। मोक्ष भी शाश्वत है। अभव्य जीव शाश्वत हैं तो अन्य जीव भी शाश्वत है। अभव्य जीव तो अनन्त काल पहले अभव्य था, वर्तमान में अभव्य ही है और अनन्त काल तक अभव्य ही बना रहेगा। भव्य जीव कुछ मोक्ष जा सकते हैं।
प्रश्न है कि यह जो जीव अतीत में अनन्त काल जीता है, उसमें सुखी-दुःखी होता है क्या? इस संदर्भ में बताया गया है कि हां ऐसा है। जब तक संसारी अवस्था है, जीव सुखी-दुःखी होता रहता है। जीव एक साथ सुखी-दुःखी हो सकता है क्या? हो सकता है तो कैसे होता है?
सुख-दुःख की संवेदना एक समय में एक साथ नहीं हो सकती। सत्ता की दृष्टि से सुख-दुःख दोनों एक साथ भीतर हो सकते हैं। अभिव्यक्ति के रुप में या तो दुःख होता है या सुख होता है। ये सारे सुख-दुःख भौतिक हैं। वेदनीय कर्म के उदय से सुख-दुःख हो सकते हैं। वेदनीय कर्म पूर्णतया क्षीण हो गया तो फिर बाहर के सुख-दुःख नहीं रहेंगे। केवल भीतरी सुख विराजमान रहेगा।
कई बार एक जीवनकाल में ही विभिन्न संदर्भों में आदमी कभी सुखी हो जाता है, कभी दुःखी हो जाता है। अनेक प्रकार के सुख-दुःख गृहस्थों के जीवन में भी आ सकते हैं। भगवान ने श्रमणों से प्रश्न पूछा था कि श्रमणो! प्राणी किससे डरते हैं? श्रमण उत्तर नहीं दे सके तो भगवान ने फरमाया कि प्राणी दुःख से भय खाते हैं। दुःख होने से कई बार धर्म की, भगवान की याद आ जाती है।
इस मनुष्य जीवन में परिस्थितियां- समस्याएं आ सकती है। साधु हो या श्रावक समस्या आ जाये तो भी तपस्या करते रहें। तपस्या करते-करते समस्या विदा हो सकती है। दुःख आ जाये तो समता रखें। सुख-दुःख हमेशा नहीं रहता है। वेदनीय कर्म के क्षय के बाद जो परम सुख आयेगा वो जायेगा नहीं, वो शाश्वत है। दुनिया में जो दुःखी है, उनको कोई चित्त समाधि देने वाला मिले तो वह अच्छी बात हो सकती है। दुःख कठिनाई, समस्या किसी के जीवन में आ सकती है, पर उस समय समता का भाव रखें। परेशान न हो। समता रखना भीतरी सुख होता है। धर्म की भावना से भावित रहने का प्रयास करें, यह हमारे लिए श्रेयस्कर हो सकता है।
कालूयशोविलास का सुन्दर विवेचन कराते हुए पूज्यवर ने पूज्य कालूगणी द्वारा युवाचार्यश्री तुलसी को दी गयी प्रेरणाओं के प्रसंग को समझाया। मुनि मगनलालजी आदि कई संतों को भी पूज्य कालूगणी ने अनेक बख्शीस करवायी।
पूज्यवर ने अगस्त महीने में चले नमस्कार महामंत्र का सपाद कोटि जप करने वालों को आशीर्वचन फरमाया। इसकी संपन्नता की घोषणा करवायी। तपस्या के प्रत्याख्यान पूज्यवर ने करवाये। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।