साँसों का इकतारा
ु साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ु
(13)
चिर प्रतीक्षित इस धरा पर जन्म तेरा।
तिमिर-तट पर उतरता स्वर्णिम सवेरा॥
खोलते ही आँख होता नया स्पंदन
परस पा तेरा बने यह धूल चंदन
मधुर सपनों से सजाकर छंद कितने
कर रही साँसें जगत की मौन वंदन
टूट जड़ता का गया है सघन घेरा॥
पथ अपरिचित चल रहा राही अकेला
बीच में है रातरानी और बेला
ज्योति का झरना यहाँ जो उतर आए
स्वयं खुशियों का लगेगा यहाँ मेला
पंथ ही फिर तो बने स्थायी बसेरा॥
हृदय-मंदिर कर रहा पल-पल प्रतीक्षा
है न दर दीवार कोई भी जहाँ पर
जब मिले अवकाश भीतर झाँक लेना
रूप तेरा ही मिलेगा बस वहाँ पर
एक दीपक ही बहुत हरने अँधेरा॥
(14)
आज धरा में क्यों पुलकन है क्यों नभ में नूतन उच्छ्वास
प्राणों के पंछी क्यों चहकें क्यों है कण-कण में मृदुहास॥
क्यों कल-कल निनाद निर्झर का नाच रहे हैं क्यों मन-मोर
बहती क्यों मलयजी हवाएँ उदित हुई क्यों उजली भोर
मुसकानों का मौसम लेकर उतरा क्यों कोई मधुमास॥
गाती क्यों बुलबुलें तराना क्यों उठता सागर में ज्वार
दीप जले क्यों आज मांगलिक क्यों मन का निर्बन्ध विहार
मौसम खिला-खिला-सा लगता बिखर रहा है क्यों उल्लास॥
जग के सभी झमेलों से हूँ अब तक मैं पूरी अनजान
साथ तुम्हारे चलकर मैंने पाई है अपनी पहचान
तुम ही मंजिल मेरे पथ की तुम ही मानस के विश्वास॥
ऐसी प्यास जगाओ मन में खुद ही जलधर भू पर आएँ
मचल रहे सपने आँखों में कैसे सारे सच कर पाएँ
तुम हो कल्पवृक्ष इस युग के तुम आस्था की मधुर सुवास॥
शक्ति कौन-सी पास तुम्हारे शांत हो गया हर तूफान
धूप-छाँव झेली समता से रहे सदा ही तुम गतिमान
लोकगीत-सा पावन जीवन खुला-खुला चिंतन-आकाश॥
(क्रमश:)