अधिकरण से बचने के लिए अशुभ योग से बचने का प्रयास हो : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अधिकरण से बचने के लिए अशुभ योग से बचने का प्रयास हो : आचार्यश्री महाश्रमण

7 सितम्बर 2023, नन्दनवन-मुम्बई
तीर्थकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र के सोलहवें उद्देशक प्रथम शतक में प्रश्न किया गया है कि भन्ते! जीव अधिकरणी है या अधिकरण है? उत्तर दिया गया कि जीव अधिकरणी भी होता है, अधिकरण भी है। प्रतिप्रश्न किया गया कि किस कारण से? उत्तर दिया गया कि अविरति के कारण से ऐसा होता है। अधिकरण का मतलब है, जो दुर्गति में ले जाने वाली चीज है, जो दुर्गति में निमित्त बनती है। उसमें शरीर, इन्द्रियां, शस्त्र, प्रयोग आदि चीजंे निमित्त बन जाती है। शरीर, इन्द्रियां अधिकरण भी बन सकते हैं तो यह शरीर धर्म की साधना का साधना भी बन सकता है। यह शरीर दुर्गति का निमित्त भी बन सकता है तो शरीर धर्म का साधन भी बन सकता है। यह जीव पर निर्भर होता है कि इस शरीर को दुर्गति का साधन बनाया जाता है या धर्म, मोक्ष व सुगति का साधन बनाया जाता है।
अप्रमत्त साधु के लिए उस अवस्था में यह शरीर दुर्गति का साधन नहीं बन सकता। असंयमी पापी है, उनका यह शरीर दुर्गति का साधन भी बन सकता है। शरीर तो जड़ है, मूल कारण है अविरति। अविरति की अपेक्षा से जीव को बाल भी कहा जाता है तो विरति की अपेक्षा से जीवन पंडित भी कहलाता है। विरति-अविरति का मिश्र रूप है। उसकी अपेक्षा से जीव बाल-पंडित कहलाता है। गुणस्थान वाला जीव पंडित कहलाता है।
पांचवें गुणस्थान वाला जीव बाल-पंडित कहलाता है, जिसे देश-विरत श्रावक भी कहा जाता है। साधु तो सर्व सावद्य योग के त्यागी होते हैं। गृहस्थ भी अपने जीवन में त्याग, संयम, साधना, स्वाध्याय, जप आदि में अपने समय का नियोजन कर अपनी आत्मा को दुर्गति में जाने से बचा सकते हैं।अव्रत आश्रव को रोकने का साधन है, सावद्य योग का त्याग करना। अशुभ योग का त्याग किया और व्रत संवर उत्पन्न हो गया। त्याग करने से आदमी कई जीवों को अभयदान दे सकता है। अव्रत रूक जाता है। आशा-वांछा पर नियंत्रण हो जाता है। अधिकरण से बचने के लिए अशुभ योग से बचा जाये। पूज्यवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाये।
पूज्यवर ने कालूयशोविलास की विवेचना कराते हुए पूज्य कालूगणी के महाप्रयाण के पश्चात के प्रसंग को विस्तार से व्याख्यायित किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।