मनोनुशासनम्
क्रमशः...
शक्ति का जागरण संयम के द्वारा किया जा सकता है। हमारे मन की अनेक मांगें होती हैं। हम उन मांगों को पूरा करते चले जाते हैं। फलतः हमारी शक्ति स्खलित होती जाती है। उसके जागरण का सूत्र है- मन की मांग का अस्वीकार। मन की मांग के स्वीकार का अर्थ है- संकल्प-शक्ति का विकास। यही संयम है। जिसका निश्चय (संकल्प या संयम) दृढ़ होता है, उसके लिए कुछ भीअसंभव नहीं होता ।
शुभ और अशुभ निमित्त कर्म के उदय में परिवर्तन ला देते हैं। किन्तु मन का संकल्प उन सबसे बड़ा निमित्त है। इससे जितना परिवर्तन हो सकता है, उतना अन्य निमित्तों से नहीं हो सकता। जो अपने निश्चय में एक निष्ठ होते हैं वे महान् कार्य को सिद्ध कर लेते हैं। गौतम ने पूछा- ‘भन्ते ! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है ?’ भगवान् ने कहा- ‘संयम से जीव आस्रव का निरोध करता है। संयम का फल अनाश्रव है। जिसमें संयम की शक्ति विकसित हो जाती है, उसमें विजातीय द्रव्य का प्रवेश नहीं हो सकता। संयमी मनुष्य बाहरी प्रभावों से प्रभावित नहीं होता। दशवैकालिक में कहा है- ‘काले कालं समायरे’ - सब काम ठीक समय पर करो। सूत्रकृतांग में कहा है-खाने के समय खाओ, सोने के समय सोयो। सब काम निश्चित समय पर करो। यदि आप नौ बजे ध्यान करते हैं और प्रतिदिन उस समय ध्यान ही करते हैं, मन की किसी अन्य मांग को स्वीकार नहीं करते तो आपकी संयमशक्ति प्रबल हो जाएगी।
संयम एक प्रकार का कुंभक है। कुंभक में जैसे श्वास का निरोध होता है, वैसे ही संयम में इच्छा का निरोध होता है। भगवान् महावीर ने कहा-सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, बीमारी, गाली, मारपीट-इन सब घटनाओं को सहन करो। यह उपदेश नहीं है। यह संयम का प्रयोग है। सर्दी लगती है, तब मन की मांग होती है कि गर्म कपड़ों का उपयोग किया जाए या सिगड़ी आदि की शरण ली जाए। गर्मी लगती है, तब मन ठंडे द्रव्यों की मांग करता है। संयम का प्रयोग करने वाला उस मांग की उपेक्षा करता है। मन की मांग को जान लेता है, देख लेता है, पर उसे पूरा नहीं करता। ऐसा करते-करते मन मांग करना छोड़ देता है, फिर जो घटना घटती है, वह सहजभाव से सह ली जाती है।
प्रेक्षा संयम है, उपेक्षा संयम है। आप पूरी एकाग्रता के साथ अपने लक्ष्य को देखें, अपने आप संयम हो जाएगा। फिर मन, वचन और शरीर की मांग आपको विचलित नहीं करेगी। उसके साथ उपेक्षा, मन, वचन और शरीर का संयम अपने आप सध जाता है।
संयम-शक्ति का विकास इस प्रक्रिया से किया जा सकता है जो करना है या जो छोड़ना है, उसकी धारणा करो, उस पर मन को पूरी एकाग्रता के साथ केन्द्रित करो। निश्चय की भाषा में उसे बोलकर दोहराओ, फिर उच्चारण को मंद करते हुए उसे मानसिक स्तर पर ले आओ। उसके बाद ज्ञान-तन्तुओं और कर्मशील ज्ञानतन्तुओं को कार्य करने का निर्देश दो। फिर ध्यानस्थ और तन्मय हो जाओ। इस प्रक्रिया के द्वारा हम शक्ति के उस स्रोत को उद्घाटित करने में सफल हो जाते हैं, जहां सहने की क्षमता स्वाभाविक होती है।
अनुप्रेक्षा और भावना
ध्यान का अर्थ है प्रेक्षा- देखना। उसकी समाप्ति होने के पश्चात् मन की मूर्च्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। जिस विषय का अनुचिन्तन बार-बार किया जाता है या जिस प्रवृत्ति का बार-बार अभ्यास किया जाता है, उससे मन प्रभावित हो जाता है, इसलिए उस चिन्तन या अभ्यास को भावना कहा जाता है।
जिस व्यक्ति को भावना का अभ्यास हो जाता है उसमें ध्यान की योग्यता आ जाती है। ध्यान की योग्यता के लिए चार भावनाओं का अभ्यास आवश्यक है-
१. ज्ञान भावना - राग-द्वेष और मोह से शून्य होकर तटस्थ भाव से जानने का अभ्यास।
२. दर्शन भावना- राग-द्वेष और मोह से शून्य होकर तटस्थ भाव से देखने का अभ्यास।
३. चारित्र भावना- राग-द्वेष और मोह से शून्य समत्वपूर्ण आचरण का अभ्यास ।
४. वैराग्य भावना- अनासक्ति, अनाकांक्षा और अभय का अभ्यास।
मनुष्य जिसके लिए भावना करता है, जिस अभ्यास को दोहराता है, उसी रूप में उसका संस्कार निर्मित हो जाता है। यह आत्मा-सम्मोहन की प्रक्रिया है। इसे ‘जप’ भी कहा जा सकता है। आत्मा की भावना करने वाला आत्मा में स्थित हो जाता है। ‘सोऽहं’ के जप का यही मर्म है। ‘अर्हम्’ की भावना करने वाले में ‘अर्हत्’ होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कोई व्यक्ति भक्ति से भावित होता है, कोई ब्रह्मचर्य से और कोई सत्संग से। अनेक व्यक्ति नाना भावनाओं से भावित होते हैं। जो किसी भी कुशल कर्म से अपने को भावित करता है, उसकी भावना उसे लक्ष्य की ओर ले जाती है।
भगवान् महावीर ने भावना को नौका के समान कहा है। नौका यात्री को तीर तक ले जाती है। उसी प्रकार भावना भी साधक को दुःख के पार पहुंचा देती है।
प्रतिपक्ष की भावना से स्वभाव, व्यवहार और आचरण को बदला जा सकता है। मोह कर्म के विपाक पर प्रतिपक्ष भावना का निश्चित परिणाम होता है। उपशम की भावना से क्रोध, मृदुता की भावना से अभिमान, ऋजुता से भावना से माया और संतोष की भावना से लोभ को बदला जा सकता है। राग और द्वेष का संस्कार चेतना की मूर्च्छा से होता है और वह मूर्च्छा चेतना के प्रति जागरूकता लाकर तोड़ी जा सकती है। प्रतिपक्ष भावना चेतना की जागृति का उपक्रम है, इसलिए उसका निश्चित परिणाम होता है।
साधनाकाल में ध्यान के बाद स्वाध्याय और स्वध्याय के बाद फिर ध्यान करना चाहिए। स्वाध्याय की सीमा में जप, भावना और अनुप्रेक्षा- इन सबका समावेश होता है। यथासमय और यथाशक्ति इन सबका प्रयोग आवश्यक है। ध्यान शतक में बताया गया है कि ध्यान को समाप्त कर अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास करना चाहिए।’ ध्यान में होने वाले विविध अनुभवों में चित्त का कहीं लगाव न हो- इस दृष्टि से अनुप्रेक्षा के अभ्यास का बहुत महत्व है। धर्म्यध्यान के पश्चात् चार अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास किया जाता है।
१. एकत्व अनुप्रेक्षा
२. अनित्य अनुप्रेक्षा
३. अशरण अनुप्रेक्षा
४. संसार अनुप्रेक्षा ।
एकत्व अनुप्रेक्षा
आत्मा एक है और अनन्त है। ये दोनों सत्य स्वीकृत हैं। प्रत्येक आत्मा अपने आप में अखण्ड और परिपूर्ण है। इस दृष्टि से आत्मा एक है। अपनी आत्मा से भिन्न अनन्त आत्माओं का अस्तित्व है, इसलिए आत्माएं अनन्त है। प्रत्येक व्यक्ति अनन्त आत्माओं के मध्य जीता है, समुदाय के मध्य जीता है। यह सामुदायिक जीवन की अनुभूति ही राग और द्वेष उत्पन्न करती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति विभिन्न प्रभावों से संक्रान्त होता है और उन प्रभावों से वह बच भी नहीं सकता और वह इसलिए नहीं बच सकता कि उन प्रभावों को सक्रियता से ग्रहण करता है। उनसे बचने का एक ही उपाय है और वह है अक्रियता की अवस्था का निर्माण। ध्यान से अक्रियता की अवस्था का निर्माण होता है। समुदाय में रहते हुए अकेलेपन का अनुभव करने से भी इस अवस्था का निर्माण होता है। ‘मैं अकेला हूं, शेष सब संयोग है।’ संयोगों को अपना अस्तित्व मानना सक्रियता है। उन्हें अपने-अपने अस्तित्व से भिन्न देखना, अनुभव करना अक्रियता है। इस एकत्व अनुप्रेक्षा के लम्बे ( छह मास के ) अभ्यास से बाह्य पदार्थों के प्रति होने वाली अपनत्व की मूर्च्छा को तोड़ा जा सकता है। यह विवेक या भेदज्ञान का प्रयोग है ।
अनित्य अनुप्रेक्षा
शरीर के यथाभूत स्वभाव और उसकी क्रियाओं का निरीक्षण करने वाला उसके भीतर होने वाले विभिन्न स्रावों को देखने लग जाता है।
शरीर-दर्शन के अभ्यास से शरीर में घटित होने वाली अवस्थाएं स्पष्ट होने लग जाती हैं। भगवान् महावीर ने कहा- ‘तुम इस शरीर को देखो। यह पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही छूट जाएगा । विनाश और विध्वंस इसका स्वभाव है । यह अध्रुव अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं। शरीर की अनित्यता के अनुचिन्तन से शरीर के प्रति होने वाली गहन आसक्ति से मुक्ति पायी जा सकती है। शरीर की आसक्ति ही सब आसक्तियों का मूल है। उसके टूट जाने पर अन्य पदार्थों में होने वाली आसक्तियां अपने आप टूटने लग जाती हैं।
अशरण अनुप्रेक्षा
जो अपने अस्तित्व को नहीं जानता, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकता। धन, पदार्थ और परिवार- ये सब अस्तित्व से भिन्न हैं। जो भिन्न है, वह कभी भी त्राण नहीं दे सकता।
भगवान् महावीर ने कहा- अशरण को शरण और शरण को अशरण मानने वाला भटक जाता है। अपनी सुरक्षा अपने अस्तित्व में है। स्वयं की शरण में आना ही अशरण अनुप्रेक्षा का मूल मर्म है।
संसार अनुप्रेक्षा
कोई भी द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के चक्र से मुक्त नहीं है। जिसका अस्तित्व है, जो ध्रुव है, वह उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। फिर उत्पन्न होता है और फिर नष्ट होता है, फिर उत्पन्न होता है और फिर नष्ट होता है। यह उत्पाद और विनाश का क्रम चलता रहता है। इसी क्रम का नाम संसार है। परमाणु-स्कंध परिवर्तित होते रहते हैं। एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चले जाते हैं। जीव भी बदलते रहते हैं। वे कभी जन्म लेते हैं और कभी मरते हैं। वे कभी मनुष्य होते हैं और कभी पशु। एक जीवन में भी अनेक अवस्थाएं होती हैं। इस समूचे परिवर्तन चक्र का अनुचिन्तन साधक को मुक्ति की ओर ले जाता है।
आत्मा का मौलिक स्वरूप चेतना है। उसके दो उपयोग हैं- देखना और जानना। हमारी चेतना शुद्ध स्वरूप में हमें उपलब्ध नहीं है, इसलिए हमारा दर्शन और ज्ञान निरुद्ध है, आवृत्त है। उस पर एक परदा पड़ा हुआ है। उसे दर्शनावरण और ज्ञानावरण कहा जाता है। वह आवरण अपने ही मोह के द्वारा डाला गया है। हम केवल जानते नहीं हैं और केवल देखते नहीं हैं। जानने-देखने के साथ-साथ प्रियता या अप्रियता का भाव बनता है। वह राग या द्वेष को उत्तेजित करता है। राग और द्वेष मोह को उत्पन्न करते हैं। मोह ज्ञान और दर्शन को निरुद्ध करता है। यह चक्र चलता रहता है। उस चक्र को तोड़ने का एक ही उपाय है और वह है ज्ञाताभाव या द्रष्टाभाव केवल जानना और केवल देखना। जो केवल जानता, केवल देखता है, वह अपने अस्तित्व का उपयोग करता है। जो जानने-देखने के साथ प्रियता-अप्रियता का भाव उत्पन्न करता है, वह अपने अस्तित्व से हटकर मूर्च्छा में चला जाता है। कुछ लोग मूर्च्छा को तोड़ने में स्वयं जागृत हो जाते हैं। जो स्वयं जागृत नहीं होते उन्हें श्रद्धा के बल पर जागृत करने का प्रयत्न किया जाता है। भगवान् महावीर ने कहा- ‘हे अद्रष्टा ! तुम्हारा दर्शन तुम्हारे ही मोह के द्वारा निरुद्ध है, इसलिए तुम सत्य को नहीं देख पा रहे हो। तुम सत्य को नहीं देख पा रहे हो, इसलिए तुम उस पर श्रद्धा करो, जो द्रष्टा द्वारा तुम्हें बताया जा रहा है।’ अनुप्रेक्षा का आधार द्रष्टा के द्वारा प्रदत्त बोध है। उसका कार्य है- अनुचिन्तन करते-करते उस बोध का प्रत्यक्षीकरण और चित्त का रूपान्तरण।
क्रमशः