संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
45. असतो वारयत्रित्यं, ध्रुवे सत्ये प्रवर्तनम्।
धर्मो जागर्ति तेजस्वी, तस्य ग्लानिः कुतो भवेत्।।
मेघ ने कहा-धर्म मनुष्यों को असत् कार्य करने से रोकता है और उन्हें सदा सत्य में प्रवृत्त करता है। धर्म तेजस्वी है और सदा जागृत रहता है, ऐसी स्थिति में धर्म की ग्लानि कैसे हो सकती हैं?
भगवान् प्राह 
46. दृष्टिः सम्यक्त्वमाप्नोति, ज्ञानं सत्यसमन्वितम्।
आचारोऽपि समीचीनः, तदा धर्मः प्रवर्धते।। 
जब दृष्टि सम्यक् होती है, ज्ञान सही होता है और आचार समीचीन होता है, तब धर्म बढ़ता है।
47. दृष्टिर्विपर्ययं याति, ज्ञानमेति विपर्ययम्।
आचारोऽपि विपर्यस्तः, तदा धर्मः प्रहीयते।।
जब दृष्टि, ज्ञान और आचार विपरीत होते हैं, तब धर्म की हानि होती है। 
48 पालिर्जलस्य रक्षार्थं, तस्याः रक्षा प्रवर्धते।
जलाभावो न चिन्त्यः स्यात् तदा कृषिः प्रशुष्यति।।
पाल पानी की सुरक्षा के लिए होती है। जब पाल की सुरक्षा मुख्य बन जाती है और जल का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब कृषि सूख जाती है। 
49. वाटिर्धान्यस्य रक्षार्थ, तस्याः रक्षा प्रवर्धते।
धान्याभावो न चिन्त्यः स्यात्, तदा कृषिर्विहीयते।। 
बाड़ अनाज की सुरक्षा के लिए होती है। जब बाड़ की सुरक्षा ही मुख्य बन जाती है और अनाज का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब कृषि क्षीण हो जाती है। 
50. नियमा यमरक्षार्थे, तेषां रक्षा प्रवर्धते।
यमाभावो न चिन्त्यः स्यात् तदा धर्मः प्रहीयते।। 
नियम यम की सुरक्षा के लिए होते हैं। जब नियमों की सुरक्षा ही मुख्य बन जाती है और यम का अभाव चिंतन का विषय नहीं रहता, तब धर्म क्षीण होता है। 
51. यमाः सततमासेव्याः, नियमास्तु यथोचितम्। 
सत्यमीषां विपर्यासे, धर्मग्लानिः प्रजायते।। 
यमों का आचरण सदा करना चाहिए और नियमों का देश, काल और स्थिति के औचित्य के अनुसार। जब यम गौण और नियम प्रधान बन जाते हैं, तब धर्म की ग्लानि होती है।