प्रवचन श्रवण करना भी स्वाध्याय है : आचार्यश्री महाश्रमण
13 सितम्बर 2023 नन्दनवन, मुम्बई
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पर्युषण पर्वाधिराज के दूसरे दिन भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा का विवेचन करते हुए फरमाया कि भगवान महावीर की आत्मा ने तीर्थंकर बनने से पूर्व अनन्त-अनन्त जन्म ग्रहण किये थे। हम सबकी आत्माओं ने भी अब तक अनन्त-अनन्त जन्म ग्रहण किये हैं। कोई आदि बिन्दु नहीं है। अनादि काल से जन्म-मरण की परम्परा चल रही है।
पर्यषुण पर्वाधिराज में भगवान महावीर के 27 भवों की अध्यात्म यात्रा पर भी अभिव्यक्ति किया करते हैं। इन सत्ताईस भवों का संग्रहण सम्यकत्व प्राप्ति के भव से किया गया है। नयसार के रूप् में भगवान महावीर की आत्मा के जन्म का पूज्यवर ने विस्तार से विवेचन करवाया कि कैसे परम् प्रभु की आत्मा को सम्यकत्व प्राप्त हुआ।
जम्बूद्वीप में जयंती नामक नगर के शत्रुमर्दन राजा थे। राजतंत्र और लोकतंत्र प्रणालियां शासन चलाने के लिए प्रचलित है। राजतंत्र की प्रणाली में राजा प्रमुख होता है। राजा के तीन कर्तव्य होते हैं- ‘सज्जनों की सुरक्षा, असज्जनों पर अनुशासन करना और अपने आश्रितों का भरण-पोषण करना। राजा अपने सचिवों को नियुक्ति कर अलग-अलग सौप दे।
एक बार नयसार को जंगल से लकड़ी जाने की जिम्मेदारी दी जाती है। नयसार जंगल जाने के बाद अपने कुछ लोगों के साथ भोजन के लिए बैठता है कि उसी समय वहां साधु पधार जाते हैं। वह साधुओं को नमस्कार करता है। साधुओं ने नयसार को भी कुछ ज्ञान प्रदान किया। साधु की अल्प समय की सत्संगति भी कल्याण करने वाली हो सकती है।
स्वाध्याय दिवस पर स्वाध्याय की महत्ता को बताते हुए महान साहित्यकार आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि स्वाध्याय से ज्ञान का विकास हो सकता है। तपस्या के बारह भेदों में स्वाध्याय दसवां भेद है। स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त होता है, आलोक मिलता है। स्वाध्याय के समान कोई दूसरा न तो तप है और न कभी होगा। ज्ञानपूर्वक तप ज्यादा हितकारी हो सकता है। प्रवचन देना या प्रवचन श्रवण करना भी स्वाध्याय है। हमारे धर्मसंघ में अनेक चारित्रात्माएं अनेक विषयों के वक्ता हैं, गीत का संगान करने वाले हैं, समणियां भी हैं, गृहस्थ भी कई हो सकते हैं। साधु का तो काम ही है कि मौके पर उपदेश देना, ज्ञान देना, यह भी स्वाधाय का ही एक अंग है। स्वाध्याय साधु के संयम पोषण की खुराक है। ज्ञान को बांटने से बढ़ता है, दूसरों को भी लाभ मिलता है, इसलिए साधु-साध्वियों को अपने श्रम की परवाह किये बिना उपदेश-व्याख्यान देना चाहिये।
श्रावक-श्राविकाओं को भी स्वाध्याय करते रहना चाहिये। पर्युषण के इन आठ दिनों में अठारह पापों से जितना बचा जा सके, बचने का प्रयास रहे। धर्ममय चिन्तन धारा रहे।
साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने फरमाया कि ज्ञान से समस्या को समाहित किया जा सकता है। ज्ञान से एक आलोक की प्राप्ति होती है। आलोक के आधार पर हम अपना मार्ग ढूंढ सकते हैं। स्वयं का अध्ययन करना भी स्वाध्याय है एवं श्रुत के अध्ययन को भी स्वाध्याय कहते हैं।
मुख्य मुनिश्री महावीरकुमारजी ने फरमाया कि जिस व्यक्ति का मानसिक संतुलन बना रहता है,वही व्यक्ति सहिष्णुता की कला में निपुण कहलाता है। सहनशील व्यक्ति चाहे कम पढ़ा-लिखा हो, वह अपने जीवन को शांति से गुजार सकता है।
साध्वीवर्या सम्बुद्व यशाजी ने फरमाया कि जहां लाभ बढ़ता है, वहां लोभ बढ़ता जाता है। जैसे ही आसक्ति छूटती है, अनासक्ति की भावधारा प्रवर्धमान होती है और वहां संयम के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। साध्वीवर्याजी ने गीत का संगान भी किया।
मुनि जयेशकुमारजी ने तीर्थ और तीर्थंकर विषय पर अपनी अभिव्यक्ति दी। समणी प्रणवप्रज्ञाजी ने स्वाध्याय दिवस के संदर्भ में गीत का संगान किया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमारजी ने किया।