पर्युषण पर्वाराधना का कार्यक्रम
कालू
साध्वी उज्ज्वलरेखाजी एवं सुदीर्घ- जीवी शतायुपार साध्वी बिदामांजी के पावन सान्निध्य में कालू तेरापंथी सभा द्वारा पर्युषण आराधना का आयोजन बहुत ही उत्साह एवं उमंग के साथ संपन्न हुआ। पर्युषण प्रारंभ के अवसर पर साध्वी उज्ज्वलरेखाजी ने कहा कि पर्युषण पर्व जैन संस्कृति का एक महान पर्व है। यह आत्म शुद्धि का पर्व है। पर्युषण का अर्थ है- अपने आप में स्थित होना, बाहरी दौड़ से हटकर भीतर की ओर मुड़ना, भेदभाव को भूलकर वैमनस्य की दीवारें तोड़कर मैत्री की निर्मल धारा में अभिस्नात होना। पर्युषण पर्व अध्यात्म और श्रद्धा का पर्व है।
खाद्य संयम दिवस- पर्युषण के प्रथम दिन पर खाद्य संयम के महत्व को प्रतिपादित करते हुए साध्वीश्री ने कहा- ‘हमारे शरीर में दो मुख्य तंत्र है- पाचन तंत्र और उत्सर्जन तंत्र। हमें भोजन करने से पहले इन दोनों पर ध्यान देना जरूरी है। यह दोनों तंत्र यदि स्वस्थ है तो शरीर की प्रत्येक क्रिया सम्यक रूप से गतिशील रहती है। पाचन तंत्र यदि ठीक है तो जो भोजन किया जाता है, उसका सम्यक पाचन होगा, फलस्वरुप व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक व्याधियों से मुक्त रहेगा। पाचन तंत्र का संबंध है उत्सर्जन तंत्र से। यदि उत्सर्जन तंत्र स्वस्थ है तो शरीर हल्का एवं मन और इंद्रिय प्रसन्न रहेगी, चिंतन स्वस्थ होगा। उत्सर्जन तंत्र की गड़बड़ी से कब्ज व अपान वायु दूषित हो जाती है।’ कार्यक्रम का प्रारंभ महावीर स्तुति से किया गया। साध्वी अमृतप्रभाजी ने चतुर्थ आचार्य जीतमलजी के जीवन पर प्रकाश डाला। साध्वी स्मिथप्रभाजी ने पर्युषण के विषय में अपने विचार व्यक्त किये।
स्वाध्याय दिवस- पर्युषण पर्व का दूसरा दिन स्वाध्याय दिवस के रूप में मनाया गया। साध्वीश्रीजी ने कहा- ‘पर्युषण पर्व पुरुषार्थ का पर्व है, दूसरे शब्दों में यह वासनाओं को उखाड़ फेंकने का पर्व है। पर्युषण पर्व सिखाता है आत्म जगत में फिर से नई क्रांति उत्पन्न करना, इंद्रिय भोगांे पर अंकुश लगाना। पर्युषण पर्व बाहर से हटकर भीतर प्रवेश का द्वार है।’ साध्वीश्री ने कालचक्र का वर्णन करते हुए बताया कि कालचक्र जागतिक ह्रास और विकास के क्रम का प्रतीक है। काल का पहिया नीचे की ओर जाता है तब भौगोलिक परिस्थिति तथा मानवीय सभ्यता और संस्कृति ह्रासोन्मुखी और काल का पहिया जब ऊपर जाता है तब वह विकासोन्मुखी होती है। काल की ह्रासोन्मुखी गति को अवसर्पिणी और विकासोन्मुखी गति को उत्सर्पिणी कहा जाता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में छह-छह काल विभाग होते हैं। पूरा कालचक्र 20 कोटि-कोटि सागर का होता है। कार्यक्रम का प्रारंभ साध्वियों के द्वारा स्वाध्याय गीत के सामूहिक संगान से हुआ। साध्वी अमृतप्रभाजी ने स्वाध्याय के बारे में अपने विचार व्यक्त किए।
सामायिक दिवस- पर्युषण पर्व का तीसरा दिवस सामायिक दिवस के रूप में मनाया गया। साध्वी उज्ज्वलरेखाजी ने कहा कि पर्युषण पर्व को मनाने की विधियां, तौर-तरीके अनेक हो सकते हैं। यह पर्व बाह्य दर्शन का नहीं है बल्कि आत्मलक्षी बनकर धर्माराधना करने का अनूठा पर्व है। साध्वीश्रीजी ने कुलकर व्यवस्था के बारे में बताते हुए कहा कि यौगलिक व्यवस्था जब धीरे-धीरे टूटने लगती है एवं तब तक दूसरी कोई व्यवस्था जन्म नहीं पाई। अपराध और अव्यवस्था ने एक नई व्यवस्था के निर्माण की प्रेरणा दी। उसके फलस्वरुप कुल व्यवस्था का विकास हुआ। लोग कुल के रूप में संगठित होकर रहने लगे। उन कुलों का एक मुखिया होता वह ‘कुलकर’ कहलाता। यह शासन तंत्र का आदि रूप था। कुलकर व्यवस्था में सात कुलकर हुए। साध्वीश्रीजी ने आगे कहा कि आज का दिवस सामायिक दिवस है। यह हमारे लिए अन्तरदर्शन की प्रेरणा लेकर आया है। सामायिक का अर्थ है- समता का आचरण। सामायिक अभिव्यक्ति नहीं अनुभूति का क्षण है, प्रदर्शन नहीं दर्शन की प्रक्रिया है। सामायिक योगक्षेम की यात्रा है। कार्यक्रम का प्रारंभ साध्वीवंृद के द्वारा सामयिक गीत के संगान से हुआ। साध्वी नम्रप्रभाजी ने सामायिक के विषय में जानकारी दी। तेयुप द्वारा अभिनव सामायिक का प्रयोग करवाया गया, जिसमें लगभग लोगों ने उत्साह के साथ भाग लिया।
वाणी संयम दिवस- साध्वी उज्ज्वल रेखाजी ने कहा कि मानसिक उच्चता का प्राण बिंदु है धर्म। कालचक्र के तीसरे और के अंतिम समय में जब मानव जगत की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति में कठिनाई पैदा होनी शुरू हो जाती है ऐसी स्थिति में महामानव का अवतार होता है, जिन्हें जनमानस भगवान ऋषभ के रूप और नाम से पुकारता है। वह इस युग के आदि कर्ता, आदि राजा, आदि गुरु हैं। साध्वी स्मितप्रभाजी ने पर्युषण आराधना के अंतर्गत मौन व्रत की चर्चा करते हुए कहा कि मौन का सामान्य अर्थ है- नहीं बोलना। आध्यात्मिक दृष्टि से मौन का प्रयोजन है- अंतरदृष्टि का विकास करना। मौन प्रत्येक दृष्टि से जीवन के लिए हितकारी है। अवसर को पहचान कर बोलना मौन की सबसे बड़ी कला है।
अणुव्रत दिवस- साध्वी उज्ज्वल रेखाजी के सान्निध्य में पांचवा दिन अणुव्रत दिवस के रूप में मनाया गया। सभा को संबोधित करते हुए साध्वीश्रीजी ने कहा- ‘अणुव्रत का अर्थ है- छोटे-छोटे व्रत। मानवीय आचार संहिता का नाम ही है- अणुव्रत। इन छोटे-छोटे संकल्पों से बहुत बड़ी क्रांति घटित हो सकती है। अणुव्रत ने देश के सभी वर्गों को जीवन मूल्यों से जोड़ा। अणुव्रत के अंतर्गत विद्यार्थी, शिक्षक, कर्मचारी आदि सभी के लिए आचार संहिता बनी हुई है। यह नैतिक क्रांति का आंदोलन है। इस आचार संहिता का पालन करने वाला ही अणुवर्ती बन सकता है। इसमें शब्द, जाति, लिंग, रंग आदि का कोई भेद नहीं है।’ कार्यक्रम का प्रारंभ साध्वियों के द्वारा अणुव्रत गीत के संगान से हुआ। साध्वी हेमप्रभाजी ने अणुव्रत के विषय में अपने विचार व्यक्त किये।
जप दिवस- पर्युषण आराधना के छठे दिवस पर जप के महत्व को उजागर करते हुए साध्वीश्रीजी ने कहा- ‘वर्णमाला का हर अक्षर मंत्र है। जगत में ऐसा कोई अक्षर नहीं है, जो मंत्र ना हो। ऐसी कोई वनस्पति नहीं है, जो औषधि ना हो। अपेक्षा यह है कि उसकी सम्यक संयोजना हो। व्यक्ति आत्म आराधना, कष्ट निवारण, रोग निवारण, इच्छा प्राप्ति, सुख-समृद्धि आदि अनेक कारणों से मंत्र आराधना करता है। नमस्कार महामंत्र जैनियों का सर्वमान्य व सर्वोत्कृष्ट मंत्र है। मंत्र के सतत जप से अनजाने में ही इतने लाभ मिलते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है। मंत्रों को आत्मविकास के लिए ही अपनाना चाहिए। पर-अनर्थ के लिए मंत्र जपना हानिकारक है, ऐसा करने वाला स्वयं पतन के गर्त में गिरता है।’ कार्यक्रम का प्रारंभ साध्वियों के मंगलाचरण से हुआ। साध्वी अमृतप्रभाजी ने जप के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये।
ध्यान दिवस- परिषद को संबोधित करते हुए साध्वी उज्ज्वलरेखाजी ने कहा- ‘पर्युषण महापर्व सुख-शांति और आनंद की राह दिखाता है। यह बाहर से हटकर आत्मदर्शन का संदेश वाहक आध्यात्मिक पर्व है, आत्म शुद्धि का पर्व है। आत्म शुद्धि का सबसे सुंदर उपक्रम है- आलोचना। दूसरे की नहीं, स्वयं की आलोचना। आलोचना के द्वारा गुरुमुख से प्रायश्चित करके आदमी हल्का, निर्भार हो सकता है। आज ध्यान दिवस हमें गहराई से आत्मावलोकन की प्रेरणा दे रहा है। बाहुबली ने बहिन ब्राह्मी व सुंदरी की प्रेरणा पाकर भीतर में छिपे अहं के शल्य को निकाला और केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।’ साध्वी अमृतप्रभाजी ने प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम का प्रारंभ साध्वियों के प्रेक्षाध्यान गीत के संगान के साथ हुआ।
संवत्सरी महापर्व - साध्वी उज्ज्वल रेखाजी व सुदीर्घजीवी साध्वी बिदामांजी के सान्निध्य में संवत्सरी महापर्व मनाया गया। जनमेदिनी को संबोधित करते हुए साध्वी उज्ज्वलरेखाजी ने फरमाया- ‘यह जैन धर्म का महापर्व शिखर दिन है। यह एक ऐसा पर्व है, जिसमें त्याग और संयम को महत्व दिया जाता है। अन्य पर्वों में व्यक्ति विविध पकवान आदि खाकर मौज-मस्ती से मनाते हैं लेकिन संवत्सरी महापर्व का संदेश त्यागने का है, भोगने का नहीं। छोटे-छोटे बच्चे भी निर्जल उपवास और पौषध की आराधना कर साहस का परिचय देते हैं। यह दिन अपने आपमें निवास करने का दिन है।’ साध्वीश्री ने भगवान महावीर की भव परंपरा का उपसंहार करते हुए उनके जीवन के विशिष्ट पहलुओं को उजागर किया।
क्षमापना दिवस- साध्वी उज्ज्वल रेखाजी ने कहा कि क्षमापना दिवस दिन वर्ष भर में हुई भूल के परिमार्जन का दिन है। यह दिन आत्मावलोकन का दिन है। इस दिन व्यक्ति वर्ष भर में हुई भूलों को समता के जल से सफाई कर स्वयं को निर्मल व पवित्र बनाता है। चौरासी लाख जीवयोनि से क्षमा मांग कर अपनी आत्मा को निर्मलतम बनाया जाता है। साध्वीश्रीजी ने सभी से खमत-खामणा किया एवं उपस्थित परिषद् ने भी साध्वीवृंद से खमत-खामणा किया। सभा-संस्थाओं की ओर से खमत-खामणा के संदर्भ में विचारा- भिव्यक्तियां की गई।