उपासना

स्वाध्याय

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जैन जीवनशैली
प्रेक्षाध्यान
सम्पूर्ण कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग खड़े रहकर, बैठकर और लेटकर तीनों मुद्राओं में किया जाता है। खड़े रहकर करना उत्तम कायोत्सर्ग, बैठकर करना मध्यम कायोत्सर्ग, लेटकर करना सामान्य कायोत्सर्ग है।
१- खड़े रहकर कायोत्सर्ग करने की मुद्रा- सीधे खड़े रहें। दोनों हाथ साथल से सटे रहें। दोनों पैरों के मध्य आधा फुट का फासला रहे। मेरुदण्ड और गर्दन सीधी रहे। सिर थोड़ा झुका हुआ। ठुड्डी छाती से चार अंगुल ऊपर हो।
२- बैठकर कायोत्सर्ग करने की मुद्रा-सुखासन में बैठें। मेरुदण्ड और गर्दन को सीधा रखें। ठुड्डी छाती से चार अंगुल ऊपर हो। ब्रह्म मुद्रा-बाईं हथेली नाभि के नीचे और दाहिनी हथेली बाईं हथेली के ऊपर स्थापित करें। अंगूठे एक दूसरे से सटे रहेंगे।
३- लेटकर कायोत्सर्ग करने की मुद्रा-पीठ के बल लेटें। दोनों पैरों के मध्य एक फुट का फासला रहे। दोनों हाथ शरीर के समानान्तर आधा फुट दूरी पर रहे। हथेलियां आकाश की तरफ खुली रखें। गर्दन और सिर सीधा रहे। आंखें कोमलता से बन्द रहे। शरीर स्थिर एवं शिथिल रहे।
पहला चरण
कायोत्सर्ग के लिए तैयार हो जाएं। कायोत्सर्ग का प्रारम्भ खड़े-खड़े होगा। लेटने जितने स्थान की व्यवस्था कर, खड़े-खड़े कायोत्सर्ग का संकल्प करें।
‘तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउसग्गं।’
‘मैं शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों से मुक्त होने के लिए कायोत्सर्ग का संकल्प करता हूं।’ (कायोत्सर्ग की अवधि निश्चित करने का निर्देश दें।) (तीन मिनट)
दूसरा चरण
सीधे खड़े रहें। दोनों हाथ साथल से सटे रहें। एड़ियां मिली हुई, पंजे खुले रहें। श्वास भरते हुए हाथों को ऊपर की ओर ले जाएं। पंजों पर खड़े होकर पूरे शरीर को तनाव दें। श्वास को छोड़ते हुए हाथों को साथल के पास ले आएं और शिथिलता का अनुभव करें। (इस प्रकार तीन आवृत्तियों द्वारा क्रमशः तनाव और शिथिलता की स्थिति का अनुभव कराएं।) (तीन मिनट)
तीसरा चरण
पीठ के बल लेटें। दोनों पैर मिले हुए हों। दोनों हाथों को सिर की ओर फैलाएं। जितना तनाव दे सकें, दें। साथ में मूलबन्ध का प्रयोग करें। फिर शरीर को शिथिल छोड़ दें। (इस प्रकार तीन आवृत्तियों द्वारा क्रमशः तनाव और शिथिलता की स्थिति का अनुभव कराएं।)
दोनों पैरों के मध्य में एक फुट का फासला रहे। हाथों को शरीर के समानान्तर आधा फुट की दूरी पर फैलाएं। कायोत्सर्ग की मुद्रा में आ जाएं, आंखें बन्द, श्वास मन्द। शरीर को स्थिर रखें। प्रतिमा की भांति अडोल रहें। पूरे कायोत्सर्ग-काल तक पूरी स्थिरता ।
प्रत्येक अवयव में सीसे की भांति भारीपन का अनुभव करें। (एक मिनट) प्रत्येक अवयव में रुई की भांति हलकेपन का अनुभव करें। (दो मिनट)
चतुर्थ चरण
श्वास मन्द और शांत। दाएं पैर के अंगूठे पर चित्त को केन्द्रित करें। शिथिलता का सुझाव दें-अंगूठे का पूरा भाग शिथिल हो जाए000 अंगूठा शिथिल हो रहा है। अनुभव करें-अंगूठा शिथिल हो गया है। इसी प्रकार प्रत्येक अंगुली, पंजा, तलवा, एड़ी, टखना, पिण्डली, घुटना, साथल तथा कटिभाग को क्रमशः शिथिलता का सुझाव दें और उसका अनुभव करें।
इसी प्रकार बाएं पैर के अंगूठे से कटिभाग तक प्रत्येक अवयव पर चित्त को केन्द्रित करें, शिथिलता का सुझाव दें और उसका अनुभव करें। (सात मिनट) 
पेडू का पूरा भाग, पेट के भीतरी अवयव-दोनों गुर्दे, बड़ी व छोटी आंत, अग्नाशय, पक्वाशय, आमाशय, तिल्ली, यकृत, तनुपट।
छाती का पूरा भाग-हृदय, दायां फेफड़ा, बायां फेफड़ा, पसलियां, पीठ का पूरा भाग- मेरुदण्ड, सुषुम्ना, गर्दन। दाएं हाथ का अंगूठा, अंगुलियां, हथेली000 मणिबन्ध से कोहनी और कोहनी से कन्धा। इसी प्रकार बाएं हाथ के प्रत्येक अवयव पर चित्त को केन्द्रित करें। (तीन मिनट)
कंठ, स्वर-यंत्र, ठुड्डी, मसूड़े, दांत, जीभ, तालु, दायां कपोल, बायां कपोल, नाक, दायीं कनपटी, दायां कान, बायीं कनपटी, बायां कान, दायीं आंख, बायीं आंख, ललाट और सिर-प्रत्येक अवयव पर क्रमशः चित्त को केन्द्रित करें। प्रत्येक को शिथिलता का सुझाव दें और उसका अनुभव करें। (पांच मिनट)
शरीर के प्रत्येक अवयव के प्रति जागरूक रहें। शरीर के चारों और श्वेत रंग के प्रवाह का अनुभव करें। शरीर के कण-कण में शांति का अनुभव करें। (दस मिनट)
श्वेत प्रवाह में शरीर तेज बहता जा रहा है
जैसे पानी की धारा में तिनका, लकड़ी का टुकड़ा अथवा शव बहता है उसी प्रकार शरीर को श्वेत प्राण के प्रवाह में बहने दें बहने... दें... अनुभव करें-शरीर बहता जा रहा है।
पांचवां चरण
पैर के अंगूठे से सिर तक चित्त और प्राण की यात्रा करें। (तीन बार सुझाव दें)। अनुभव करें- पैर से सिर तक चैतन्य पूरी तरह से जागृत हो गया है... प्रत्येक अवयव में प्राण का अनुभव करें।
तीन दीर्घश्वास के साथ कायोत्सर्ग संपन्न करें। दीर्घश्वास के साथ प्रत्येक अवयव में सक्रियता का अनुभव करें। बैठने की मुद्रा में आएं।
शरण सूत्र का उच्चारण करें। ‘वंदे सच्चं’ से कायोत्सर्ग संपन्न करें।
जीवन विज्ञान
खण्ड-खण्ड जीवन समस्या है। अखण्ड जीवन समाधान है। खण्ड-खण्ड चिन्तन समस्या है। अखण्ड चिन्तन समाधान है। खण्ड-खण्ड सत्य समस्या है। अखण्ड सत्य समाधान है। खण्ड-खण्ड आनन्द समस्या है। अखण्ड आनन्द समाधान है। खण्ड-खण्ड व्यक्तित्व समस्या है। अखण्ड व्यक्तित्व समाधान है। इसी प्रकार खण्ड-खण्ड शिक्षा समस्या है और अखण्ड शिक्षा समाधान है।
शिक्षा के दो आयाम हैं- बौद्धिक विकास और भावनात्मक विकास। बौद्धिक विकास शिक्षा का अंग है। उसे ही पूर्ण या अन्तिम लक्ष्य मानना भ्रान्ति है। बौद्धिक विकास आवश्यक है पर वही सबकुछ नहीं है। उसे सबकुछ मानने वाले शिक्षाविदों ने साइंस और टेक्नालॉजी के क्षेत्र में पर्याप्त विकास किया है पर उससे वांछित परिणाम नहीं आया।
देश की शिक्षानीति पर बातचीत के दौरान अनेक व्यक्तियों ने कहा- हमारी शिक्षा पद्धति गलत है। आचार्य तुलसी इस विचार से सहमत नहीं हुए। उन्होंने कहा- ‘शिक्षा पद्धति के मूलभूत अंग हैं- शिक्षक, पुस्तकें और स्कूल। आज के शिक्षक प्रशिक्षित हैं। पुस्तकें विद्वानों द्वारा लिखी हुई हैं। स्कूल एवं कॉलेज के भवन पहले से बेहतर हैं। अन्य साधन सामग्री भी उत्तरोत्तर विकसित होती जा रही है। इतना सबकुछ है तब शिक्षा पद्धति गलत कैसे हुई ? मेरे अभिमत से शिक्षा पद्धति गलत नहीं, अधूरी है। यदि वह गलत होती तो अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वकील आदि कैसे निकलते? यदि हमारा इंगित अच्छे मनुष्य के निर्माण की ओर है तो शिक्षा में उसके लिए कोई संकाय ही कहां है? जो आवश्यक तत्त्व शिक्षा में नहीं हैं, उनका वहां समावेश करना है, न कि पूरी शिक्षा पद्धति को गलत ठहराकर देश की एक महत्त्वपूर्ण पीढ़ी को हीन भावना से आक्रान्त करना है।’
हमारी आकांक्षा है कि हमारी आने वाली पीढ़ी अपने देश और समाज की बनावट के अनुरूप अपने व्यक्तित्व का निर्माण करे। वह संस्कारी बने, अनुशासित बने, चरित्र सम्पन्न बने, व्यसनमुक्त बने और अपनी संस्कृति को जीने वाली बने।
इसके लिए अपेक्षा है कि विद्यार्थी के बौद्धिक विकास के साथ उसका भावनात्मक विकास भी हो। मनुष्य में दो प्रकार के भाव होते हैं- विधायक भाव और निषेधात्मक भाव। विधायक भावों से शक्ति का जागरण होता है और निषेधात्मक भावों से आचार एवं व्यवहार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस दृष्टि से विद्यार्थी में विधायक भावों का विकास आवश्यक है। पर यह काम उपदेश से नहीं हो सकता। इसके लिए अपेक्षा है प्रायोगिक शिक्षा की।
वि0सं0 २0३३ (सन् १६७६ ) सरदारशहर चतुर्मास प्रवास में अध्यापकों से सम्पर्क किया गया। फिर समय-समय पर अनेक शिविर आयोजित हुए। सैकड़ों शिक्षकों ने प्रशिक्षण लिया। विद्यालयों में कार्य प्रारम्भ हुआ। फिर इस प्रशिक्षण एवं प्रायोगिक प्रक्रिया के नाम पर चिन्तन चला। अनेक नाम सामने आए- योग शिक्षा, नैतिक शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा, मूल्यपरक शिक्षा आदि-आदि।
शिक्षण संस्थाओं की शरद्कालीन छुट्टियां चल रही थीं। २५ दिसम्बर, १६७८ से ३१ दिसम्बर, १६७८ तक ‘अध्यात्म-योग-नैतिक शिक्षा प्राध्यापक प्रशिक्षण शिविर’ तुलसी अध्यात्म नीडम् (लाडनूं) में आयोजित किया गया। यह शिविर श्री महाप्रज्ञ के सान्निध्य में हुआ। इस शिविर में नाम के बारे में व्यापक चर्चा चली। २८ दिसम्बर, 1978 को श्री महाप्रज्ञ ने इस ‘अध्यात्म-योग-नैतिक शिक्षा’ उपक्रम को ‘जीवन-विज्ञान’ की संज्ञा दी और कहा- यह नाम समग्र मानव जीवन का प्रतिनिधित्व करता है। यह व्यापक है000 असाम्प्रदायिक है। यह नैतिक शिक्षा, योग- शिक्षा सबको समाहित करता है। यह सम्पूर्ण उपक्रम ‘जीवन-विज्ञान’ अर्थात् जीवन जीने की कला के विज्ञान के नाम से आगे बढ़ा। जीवन-विज्ञान का उद्देश्य है भाव और व्यवहार में परिवर्तन के माध्यम से व्यक्तित्व का सर्वाङ्गीण विकास करना। इसमें श्वास कैसे लेना, इस बिन्दु से प्रयोग का प्रारम्भ होता है और कैसे जीना, इस बिन्दु पर जाकर उसका समापन होता है।
थोड़े शब्दों में अभिव्यक्ति दी जाए तो जीवन-विज्ञान का अर्थ है- जीने की सम्पूर्ण कला। इसमें मनोविज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान, शरीर रचना विज्ञान, समाज विज्ञान आदि अनेक विषयों का प्रशिक्षण दिया जाता है और आवश्यक प्रयोग कराए जाते हैं। इन प्रयोगों से विद्यार्थी के ग्रंथि तंत्र और नाड़ी तंत्र प्रभावित होते हैं। ग्रंथि तंत्र के स्राव ठीक होते रहें और नाड़ी तंत्र सन्तुलित रहे, यही विकास की सीधी प्रक्रिया है। जीवन-विज्ञान का पाठ्यक्रम इसी दिशा में उठा हुआ एक कदम है। उसे शिक्षा के साथ जोड़ दिया जाए तो शिक्षा जगत की अनेक समस्याओं का सहज समाधान हो सकता है।
पिछले वर्षों में जीवन-विज्ञान का प्रसार हुआ है। भारत के विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न विद्यालयों में उसके प्रयोग शुरू हुए। उन प्रयोगों से विद्यार्थी जगत् में परिष्कार की जानकारियां भी प्राप्त हुईं। एतद्विषयक साहित्य भी प्रकाशित हुआ है। जीवन-विज्ञान का स्नातकोत्तर अध्ययन भी जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय में चल रहा है। उससे अनेक-अनेक विद्यार्थी जीवन-विज्ञान में स्नातकोत्तर बन गए। इससे एक स्वस्थ, अनुशासित और चरित्र सम्पन्न समाज की संरचना का सपना पूरा हो सकता है।                                     (क्रमशः)