मंत्री मुनि सुमेरमल ‘लाडनूं’

स्वाध्याय

मंत्री मुनि सुमेरमल ‘लाडनूं’

कर्म बोध
प्रश्न २५- उपशम में जब सर्वथा अनुदय है फिर इसे कर्म की अवस्थाओं में कैसे लिया ?
उत्तर: उपशम में सर्वथा अनुदय है पर मोह कर्म सत्ता रुप में विद्यमान रहता है, इसलिए इसका कर्म की अवस्थाओं में ग्रहण किया गया है।
प्रश्न २६- उपशम कर्म की एक अवस्था है फिर यह शुभ है या अशुभ, सावद्य है या निरवद्य ?
उत्तर: मोह कर्म की उदयमान अवस्था के बीच में अन्तर्मुहुर्त्त तक सर्वथा अनुदय रहना उपशम है, उस समय में प्रकृति के अनुरूप सम्यक्त्व व चारित्र, दोनों की प्राप्ति होती है, इसलिए वह अशुभ नहीं, शुभ है। सावद्य नहीं, निरवद्य है।
प्रश्न २७- उपशम भाव कर्म की अवस्था मात्र है, उसे संवर कैसे माना गया? 
उत्तर: उपशम भाव कर्म की वह अवस्था है, जिसका आत्मा पर कोई असर नहीं रहता। इस अवस्था में सम्यक्त्व और चारित्र की प्राप्ति होती है। चारित्र संवर धर्म है, इसलिये उसे संवर कह दिया गया।
प्रश्न २८- निधत्ति किसे कहते हैं?
उत्तर: जिन कर्म प्रकृतियों में उदीरणा व संक्रमण नहीं होता, उनको निधत्ति कहते हैं।
प्रश्न २९- निकाचना किसे कहते हैं?
उत्तर: जिन कर्मों की जितनी स्थिति व विपाक है, उनको उसी रूप में भोगना निकाचना है। उनका आत्मा के साथ गाढ़ सम्बन्ध होता है।
प्रश्न ३0- निधत्ति व निकाचित में क्या अंतर है ?
उत्तर: निकाचित में उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, संक्रमण कुछ नहींे होता। निधत्ति मेें भी उदीरणा व संक्रमण नहीं होता पर उद्वर्तन, अपवर्तन होता है।
प्रश्न ३१- क्या तप आदि विशिष्ट धार्मिक उपक्रमों से निकाचित कर्म को तोड़ा जा सकता है ?
उत्तर: इस बारे में दो चिंतन धाराएं हैं। कई आचार्यों का मत है- तप से निकाचित कर्माें का भी क्षय हो सकता है। देवगुप्त सूरी भी इसी अभिमत के पोषक थे। कई आचार्यों का अभिमत है- तपस्या से निकाचित कर्मों का निर्जरण नहीं हो सकता। उन्हें तो यथावत् भोगना ही पड़ता है।
प्रश्न ३२- किसी भी परिस्थिति के निर्माण या कार्य की निष्पत्ति में क्या कर्म की ही भूमिका रहती है?,
उत्तर: परिस्थिति के निर्माण या कार्य की निष्पत्ति में केवल कर्म की भूमिका ही नहीं रहती। इसके लिए कर्म सहित पांच कारण माने गए हैं-
१- काल २- स्वभाव ३- कर्म
४- पुरुषार्थ ५- नियति 
इन पांचों को समवाय कहा जाता है।
प्रश्न ३३- काल को कारण क्यों कहा गया है?
उत्तर: किसी भी कार्य की निष्पत्ति में काल के परिपाक की महीत अपेक्षा है। शुभ, अशुभ कर्मों का फल तुरन्त नहीं मिलता, कालांतर में एक निश्चित समय पर ही मिलता है। तीर्थंकर अतुलबली होते हैं पर जन्म के साथ ही बोलने, चलने आदि की क्रियाएं नहीं कर पाते। दवा लेते ही रोग शांत नहीं होता, बीज-वपन करते ही वह वृक्ष नहीं बनता, वृक्ष बनते ही वह फल नहीं देता। प्रत्येक वस्तु की निष्पत्ति में काल की अहम भूमिका है।
प्रश्न ३४- स्वभाव को कारण क्यों कहा गया है? 
उत्तर: हर वस्तु अपने स्वभाव के अनुरूप निर्मित होती है। बीज में वृ़़क्ष बनने का स्वभाव है। बबूल कभी आम पैदा नहीं कर सकता।
प्रश्न ३५- कर्म को कारण क्यों कहा गया है ?
उत्तर: एक माता के एक समय में दो बच्चे पैदा हुए। उनमें एक सुरूप व दूसरा कुरूप, एक विद्वान् व दूसरा मूर्ख रह जाता है। यह सब कर्म का ही प्रभाव है। शुभाशुभ कर्म के संयोग से ही व्यक्ति को अनुकुलता व प्रतिकूलता मिलती है।
प्रश्न ३६- पुरुषार्थ को कारण क्यों कहा गया है?
उत्तर: कर्म और पुरुषार्थ का परस्पर गहरा सम्बंध है। कर्म को बांधने व उन्हें विपाकोदय के रूप में भोगने में पुरुषार्थ की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।