धर्माराधना का सर्वोत्कृष्ट पर्व है- पर्युषण

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धर्माराधना का सर्वोत्कृष्ट पर्व है- पर्युषण

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भिक्षु साधना केन्द्र के सभागार में शासनश्री मुनि विजयकुमारजी के सान्निध्य में पर्युषण पर्व मनाया गया।
12 सितंबर को खाद्य संयम दिवस के रूप में प्रथम दिन की आराधना की गई। नमस्कार महामंत्र के उच्चारण के बाद तेरापंथ महिला मंडल की बहिनों ने मंगल गीत का संगान किया। तदनन्तर शासनश्री ने विषय का प्रतिपादन करते हुए कहा- ‘पर्युषण पर्व विभाव से स्वभाव में आने की प्रेरणा देता है। भागदौड़ की जिंदगी में व्यक्ति अपने स्वभाव को भूलता जा रहा है। पर्युषण पर्व की नवाह्निक आराधना में यह विविध प्रयोग करके अपने आत्मभाव के निकट आने का प्रयास करता है। पर्युषण पर्व के प्रथम दिन की प्रेरणा है कि व्यक्ति खाने-पीने के पदार्थों का संयम करें। जो खाद्य संयम रखता है वह बहुत सारी बीमारियों से अपने आपको बचा लेता है।’ पर्युषण पर्व की महत्ता पर मुनिश्री ने प्रेरक गीत प्रस्तुत किया।
13 सितम्बर को स्वाध्याय दिवस पर मुनिश्री ने प्रारंभ में गीत का संगान किया। फिर विषय का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने कहा- ‘स्वाध्याय को आभ्यन्तर तप में लिया गया है। व्यक्ति जैसे-जैसे सद्ग्रंथों का अध्ययन करता है, वह अपने भीतर झांकने लगता है। अपने कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य, हेय और उपादेय का उसे बोध होने लगता है। उसकी जीवन शैली प्रशस्त बन जाती है। आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ और आचार्य महाश्रमण का विपुल साहित्य आज उपलब्ध है, उसका सतत अध्ययन व्यक्ति के जीवन को स्वस्थ और समाधिस्थ बना सकता है।’
14 सितंबर को सामायिक दिवस के उपलक्ष्य में शासनश्री मुनिवर ने कहा- ‘सामायिक अंतर्मुखता की साधना है। गृही जीवन जीने वाला व्यक्ति सामान्यतया बहिर्मुखी जीवन जीता है। उसी का परिणाम है कि अनेक प्रकार की परिस्थितियों का उसे आए दिन सामना पड़ता है। सामायिक 48 मिनट की साधना है। विधिपूर्वक व्यक्ति उसकी आराधना कर लेता है तो वह एक सामायिक भी उसके लिए बड़ी उपलब्धिपूर्ण हो जाती है। संभव हो सके तो प्रतिदिन श्रावक एक सामायिक का लक्ष्य रखे अन्यथा परम पूज्य आचार्य महाश्रमणजी द्वारा निर्दिष्ट हर शनिवार को अवश्यमेव सामायिक करने का संकल्प ले।’
15 सितंबर को वाणी संयम दिवस पर गीत का संगान करके मुनिश्री ने फरमाया- ‘एक इन्द्रिय धारी जीवों के अलावा सभी जीवों को भाषा का योग सुलभ है किंतु जो व्यक्त भाषा मनुष्य को प्राप्त है, वह किसी अन्य प्राणी को नहीं है। भाषा एक वरदान है जिसका सम्यक् प्रयोग करके व्यक्ति सबका प्रिय बन सकता है। जो भाषा का सही प्रयोग करना नहीं जानते वे दूसरों के लिए अप्रिय बन जाते हैं, भाषा उनके लिए अभिशाप तुल्य बन जाती है। भगवान महावीर ने भाषा का विवेक देेते हुए कहा कि ‘नापुठ्ठो वागरे किंचि’, बिना पूछे नहीं बोलें, जो अनावश्यक बोलता है, वह अपना सम्मान स्वयं खो देता है। आवश्यक होने पर भी संयत और सत्य भाषा का प्रयोग कर, कटुता पैदा करने वाली फूहड़ भाषा से व्यक्ति बचा रहे।’
16 सितंबर अणुव्रत चेतना दिवस का प्रारंभ अणुव्रत गीत से हुआ। मुनिश्री ने अपने वक्तव्य में अणुव्रत की महत्ता पर प्रकाश डालते हुआ बताया कि अणुव्रत नैतिक और चारित्रिक बल को उजागर करने वाला आचार्यश्री तुलसी का एक अनुपम अवदान है। सदियों की गुलामी के बाद जब देश आजाद हुआ, नए भारत के निर्माण की ओर हमारे नेताओं का ध्यान गया तब निर्माणमूलक अनेक योजनाएं सामने आई। गुरुदेव श्री तुलसी को एक अभाव खटकने लगा, वह था नैतिक निष्ठा का। उस महापुरुष ने अनुभव किया, बिना नैतिक निष्ठा के इन योजनाआंे की सफलता संदिग्ध है। उन्होंने अणुव्रत की परिकल्पना प्रस्तुत की। पदयात्राएं की और लाखों- लाखों व्यक्तियों तक अणुव्रत का संदेश पहुंचाया। राष्ट्र के कर्णधारों ने उनकी इस योजना को पसंद किया। सामान्य से लेकर विशिष्ट श्रेणी के अनेकानेक व्यक्तियों ने अणुव्रत की आचार संहिता को अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया, व्यसन मुक्त और स्वस्थ जीवन जीने का संकल्प लिया।
17 सितम्बर जप दिवस पर बोलते हुए मुनिश्री ने कहा- ‘जप मंत्र शक्ति का प्रयोग है। मंत्र सशक्त होना जरूरी है। साथ ही प्रयोक्ता की उस मंत्र के प्रति आस्था, चित्त की निर्मलता, निरंतरता भी जरूरी है। संस्कृत भाषा में एक सूक्त है-‘जपतो नास्कि पातकं’ जप करने वाला व्यक्ति बहुत सारे पापों से अपने आपको बचा लेता है। इसके लिए आवश्यक है- मंत्र सात्त्विक हो, प्रयोक्ता के मन में किसी के प्रति दुर्भावना न हो।’
18 सितम्बर को ध्यान दिवस पर बोलते हुए शासनश्री ने कहा- ‘हमारे मन का स्वभाव है- भटकना। वह एक जगह टिककर नहीं रहता। ध्यान का प्रयोग करते समय साधक उसे एक आलंबन स्थिर होकर रहने का निर्देश देता है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत अनेक आलम्बन सुझाए हैं, जैसे- रंग, केन्द्र, मंत्र, श्वास आदि। ध्यान की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति धीरे-धीरे अपने मन को साध लेता है। साधा हुआ मन व्यक्ति को परेशान नहीं करता। वह मित्र तुल्य बन जाता है। ध्यान निरालंबन भी होता है किंतु वह हर एक के लिए संभव नहीं है। प्रारंभिक भूमिका मंे सालम्बन ध्यान ज्यादा उपयोगी होता है।’
19 सितम्बर संवत्सरी महापर्व के संदर्भ में बोलते हुए शासनश्री ने कहा- ‘धर्माराधना का यह सर्वोत्कृष्ट पर्व है। यह दुनिया के पर्वों में अपनी विलक्षण पहचान बनाए हुए है। अन्य पर्वों में खान-पान, मनोरंजन आदि प्रवृत्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है किंतु संवत्सरी महापर्व पर इन सब प्रवृत्तियों पर रोक लग जाती है। छोटे-छोटे बच्चे भी आज के दिन उपवास रखते हैं। ग्रंथिमुक्त होकर इस पर्व की सम्यक् आराधना की जा सकती है। व्यक्ति किसी के साथ वैर-विरोध नहीं रखे, यह इस पर्व की प्रेरणा है। सबके साथ मैत्री भाव का विकास करके ही व्यक्ति अपनी सम्यक्त्व को सुरक्षित रख सकता है।’ संवत्सरी महापर्व पर मुनिश्री ने भगवान महावीर के जीवन प्रसंग व उत्तरवर्ती आचार्यों के जीवन चरित्र का प्रतिपादन किया।
20 सितंबर क्षमापना दिवस पर बोलते हुए मुनिश्री ने कहा- ‘क्षमापना मन को हल्का करने की प्रक्रिया है। स्वस्थ रहने के लिए शरीर से हल्का होना जरूरी है किंतु इतना ही पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति का मन अगर भारी रहता है तो शरीर से हल्का होकर भी वह बीमारियों को बुला लेता है। व्यक्ति समूह में जीता है, सबके मन का चाहा हो, यह जरूरी नहीं। जो समता से हर स्थिति को सहना सीख जाता है, उस व्यक्ति का जीवन सुखी बन जाता है। अगर किसी बात को लेकर तनाव की स्थिति बन जाए तो संवत्सरी का प्रतिक्रमण करके क्षमा याचना कर लेनी चाहिए। सामने वाला व्यक्ति क्षमा न करे तो भी व्यक्ति अपना आत्मधर्म समझ करके शुद्ध हृदय से क्षमा करके अपने को हल्का बना लें।’
संवत्सरी व क्षमापना दिवस पर मुनि दिनकरजी, मुनि आत्मानंदजी, मुनि रमणीयकुमारजी ने अलग-अलग विषयों पर अपनी प्रस्तुति दी। स्थानीय तेरापंथी सभा मंत्री चमन दुधोड़िया, तेरापंथी सभा प्रवक्ता प्रदीप सुराणा, तेरापंथ महिला मंडल, दीक्षार्थिनी सुमन बैद, शोभा, हेमा, सपना, सरोज देवी भंसाली, सुनीता, सुमन भूतोड़िया, नरेन्द्र दुधोड़िया, मास्टर हुक्माराम, गजराज दुधोड़िया सुजानगढ़- दिल्ली से विनोद भंसाली, सूरजमल नाहटा, प्रिया दुधोड़िया, राजु नाहटा, सरोज दुधोड़िया ने पर्युषण के दिनांे में गीत व भाषण के द्वारा अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। रात्रिकालीन प्रतिक्रमण व सप्तदिवसीय जप का क्रम नियमित रूप से चला। क्षमापना दिवस पर भाई छतर नाहटा ने 13 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।