उपासना
(भाग - एक)
पर्युषण पर्व
पर्युषण का जब समय आता है तब आबाल-वृद्ध तक एक नया उत्साह जागता है। यह उत्साह खाना खाने का नहीं, खाना छोड़ने का होता है। सोने का नहीं, जागने का होता है। वासना का नहीं, उपासना का होता है। आज की जीवनशैली सुविधा और स्वार्थ-प्रधान होती जा रही है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि पर्युषण जैसे महापर्व को वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से मनाया जाए। आडंबर और प्रदर्शन से दूर रहकर इस पर्व की आध्यात्मिकता को उभार कर नए संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए। उपभोक्तावाद और आतंकवाद, इन दोनों की जड़ में छुपी हिंसा और परिग्रह का समाधान अहिंसा और अपरिग्रह में खोजा जाए, क्योंकि यह महापर्व विश्वशांति का संदेश देने वाला है।
अलौकिक पर्व: पर्युषण
यह पर्व लौकिक पर्वों की तरह नहीं है, इसलिए इसकी आराधना अलौकिक विधि से होनी चाहिए। समय का अपना एक प्रभाव होता है। पर्युषण पर्व के आते ही एक नई चेतना का जागरण होता है। यह चेतना उसे चालू जीवन की लकीर से हटकर उससे भिन्न नई लकीर खींचने की प्रेरणा देती है। यह फिर से एक बार मुड़कर झाँकने को विवश करती है।
इस पर्व की अलौकिकता यह है कि यह लोकाचार, लोकैषणा, लोक-व्यवहार से हटकर कुछ नया सोचने की प्रेरणा देता है।
जिस माँ की गोद में दो भाई खेले, साथ बढ़े, साथ पढ़े। एक समय आया, राग-द्वेष की हवा चली, दोनों भाई बिखर गए। हवा का मुँह खुला कि दोनों भाइयों का मुँह फिर गया। एक बेटा माँ के मरने पर नहीं गया, दूसरा बाप के मरने पर। पर्युषण आया। मन-पावनी हवा चली। मन का वैर-विरोध मिटा। भाई भाई के घर पहुँच गया। इससे बढ़कर और क्या अलौकिकता होगी इस पर्व की!
तप जैन शासन की प्रभावना का हेतु है। भगवान् ऋषभ के युग में वार्षिक तप चैविहार होता था। भगवान् अजितनाथ के युग में अष्ट मासिक, क्रमशः घटते-घटते भगवान महावीर के समय छह मासिक चैविहार तप रह गया। समय के साथ आचार्यों ने पानी सम्मिलित किया। तप से देव, दानव, राक्षस सभी प्रभावित होते हैं। एक आयंबिल के प्रभाव से द्वारिका बची रही, यह कौन नहीं जानता?
आठ दिनों का विधान क्यों?
जिसे हम संवत्सरी अर्थात् वर्ष का महत्त्वपूर्ण दिन कहते हैं, वह पर्युषण महापर्व एक ही दिन मनाया जाता था, आगमों में उल्लेख है।
यह आठ दिन मनाने की परंपरा उत्तरवर्ती आचार्यों की रही है। उन्होंने इस विस्तार क्रम को अति महत्त्वपूर्ण समझा भावी युग के लिए। यद्यपि इस अष्टाह्निक परंपरा के पीछे क्या कारण रहे हैं, इसकी व्यापक चर्चा कहीं प्रामाणिक नहीं मिलती।
यह पर्व आत्मशुद्धि की प्रेरणा देने वाला पर्व है। क्या एक दिन की प्रेरणा व्यक्ति को एक साथ इतना झंकृत कर सकेगी? वह भी पाँचवें आरे के प्राणी, जिनका ध्यान सतत विषय और कषाय की ओर दौड़ता रहता है। चित्त की उस मलिन धारा को मोड़ना कितना कठिन है? हमारे श्रुतधर आचार्यों ने सोचा, इस दिन की उपयोगिता बढ़ाने के लिए पूर्व भूमिका के रूप में कुछ दिन और बढ़ाने चाहिए।
अष्टाह्निक आराधना
(1) स्वाध्याय दिवस, (2) सामायिक दिवस, (3) खाद्य संयम दिवस, (4) वाणी संयम दिवस,
(5) अणुव्रत दिवस, (6) जप दिवस, (7) ध्यान दिवस, (8) संवत्सरी दिवस।
पर्युषण साधना
µ प्रातःकालीन प्रवचन अवश्य सुनना।
µ प्रतिदिन कम-से-कम तीन सामायिक करना।
µ प्रतिदिन एक घंटा स्वाध्याय करना।
µ आधा घंटा प्रेक्षाध्यान करना।
µ दो घंटा मौन करना।
µ सचित्त वस्तु का तथा रात्रि-भोजन का त्याग करना।
µ सिनेमा, टी0वी0 व ताश का त्याग।
µ ब्रह्मचर्य का पालन करना।
µ नौ द्रव्यों से अधिक न खाना।
µ जप की विशेष साधना, आराधना करना।
‘सांवत्सरिक पर्व’ अध्यात्म संस्कृति का एक अनूठा और अलौकिक पर्व है। यह जैन शासन का पर्वावतंस और उत्कृष्ट आध्यात्मिक अनुष्ठान है। जैन समाज जप, तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि विविध प्रयोगों से निरंतर आठ दिनों तक इस अनुष्ठान की आराधना करता है और नौवें दिन एक-दूसरे से क्षमायाचना करके मैत्री की धारा से आप्लावित होकर इस मंगल पर्व को परिसंपन्न करता है।
संवत्सरी: वर्तमान स्वरूप और प्रयोग
‘सांवत्सरिक’ शब्द का वाच्यार्थ हैµवर्ष भर में होने वाला दिन। बोलचान की भाषा में ‘सांवत्सरिक’ शब्द का संवत्सरी कहकर ही अधिक प्रयोग किया जाता है। अर्वाचीन परंपरा में इसका जैसा स्वरूप और प्रयोग हमारे सामने है, ऐसा प्राचीन परंपरा में कुछ भी नहीं था। आज यह एक महापर्व के रूप में प्रतिष्ठित है। इसकी आराधना के लिए इसके साथ अन्य सात दिन भी जुड़े हुए हैं। यह एक विकासमान परंपरा का उदय है। विकास का बिंदु कब और कहाँ से प्रारंभ होता है, यह भी एक अन्वेषण का विषय है। यह तो निश्चित रूप से मानना होगा कि भगवान महावीर के समय तक ऐसा कुछ भी नहीं था। उनकी उत्तरवर्ती परंपरा ने पर्युषण में कुछ नया जोड़कर उसे विकसित किया, उसे महापर्व का रूप दिया। आठ दिन मनाए जाने वाले इस समस्त संवत्सरी पर्व को ‘पर्युषण’ शब्द से भी उपलक्षित किया जाता है। संवत्सरी उसका मुख्य और पर्व दिन है।
पर्युषणा: प्राचीन अवधारणा
प्राचीन अवधारणा में संवत्सरी के स्थान पर पर्युषण का प्रयोग मिलता है। उसका अर्थ हैµ‘परि-सामत्येन उषणा-वसनम्’ अर्थात् वर्षावासीय अवस्थिति करना। समवायांग सूत्र के अनुसार भगवान महावीर वर्षा-ऋतु के पचास दिन-रात बीत जाने पर तथा सत्तर दिन-रात अवशेष रहने पर वर्षावास के लिए पर्युषित हुए। आगमों में स्थविर मुनियों के लिए दस कल्पों का उल्लेख है। उनमें एक कल्प हैµपर्युषणाकल्प। स्थविर-कल्पी मुनि वर्षावास में कब और कहाँ रहे, यह सारी मर्यादा ‘पर्युषणाकल्प’ के अंतर्गत आती है।
पर्युषणा: कब और कैसे?
प्राचीन काल में वर्षावासीय अवस्थिति दो प्रकार से होती थीµ‘सामस्तिकी अवस्थिति’ अथवा ‘वार्षिक पर्व अवस्थिति’ में मुनि को भाद्रव शुक्ला पंचमी के दिन निश्चित ही एक स्थान पर पर्युषणा करनी नितांत अनिवार्य थी। सामस्तिकी अवस्थिति में मुनि को वार्षिक पर्व भाद्रव शुक्ला पंचमी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा पर्यन्त एक स्थान पर रहना होता था। जघन्यतः मुनि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण तक सत्तर दिन-रात एक स्थान पर रह सकता था और उत्कृष्टतः चार मास तक। स्थविर कल्पी मुनि के लिए दोनों मर्यादाएँ सम्मत थीं, जिनकल्पिक मुनि के लिए केवल चतुर्मासिक व्यवस्था ही सम्मत थी। यदि स्थविरकल्पी मुनि किसी क्षेत्र में एक मास पर्यन्त अवस्थित हो जाता फिर उसी क्षेत्र में चातुर्मास करता तो उसे पुनः चतुर्मास के बाद एक मास तक उसी क्षेत्र में रहना कल्पता था। इस प्रकार स्थविरकल्पी एक ही क्षेत्र में छह मासिक अवस्थिति भी कर सकता था।
पर्युषणा की अनिवार्यता
प्राचीन परंपरा में मुनि के लिए पर्युषण करना अत्यंत अनिवार्य था। यदि अपर्युषणा में पर्युषणा और पर्युषणा में अपर्युषणा की जाती है तो मुनि जिन-आज्ञा के भंग के दोषों का संभागी होता है, उसे प्रायश्चित्त आता है। मुनि वर्षावास के लिए उचित वसति की गवेषणा करता है। उसके लिए प्राचीन विधान इस प्रकार हैµआषाढ़ी पूर्णिमा तक उचित वसति के न मिलने पर श्रावणी प्रतिपदा से उचित वसति की गवेषणा के लिए निकलने और पर्व तिथियों (पंचमी, दशमी, पूर्णिमा या अमावस्या) तक तिथि में पर्युषण करे। यदि उचित स्थान की प्राप्ति न हो तो भाद्रव शुक्ला पंचमी को तो अवश्य ही एक स्थान पर स्थित हो जाए, पर्युषण कर दे। वसति न मिलने पर वृक्ष के नीचे ही रह जाए।
पर्युषणा: चतुर्थी या पंचमी?
भगवान महावीर ने वर्षा-ऋतु के पचास दिन-रात बीत जाने पर (भाद्रव शुक्ला पंचमी को) पर्युषणा की थी। कालकाचार्य के कुछेक आपवादिक और अपरिहार्य कारणों से पंचमी के बजाय चतुर्थी के दिन विवशतावश सांवत्सरिक पर्व मनाया था।
निशीथ चूर्णि के अनुसार आचार्य कालक ने अवन्ति नगर में चातुर्मास किया। उस समय अवन्ति के शासक बलमित्र तथा भानुमित्र थे। उनकी बहन का नाम भानुश्री तथा भानजे का नाम बलभानु था। एक बार बलभानु संसार से विरक्त हुआ और वह आचार्य कालक के पास दीक्षित हो गया। इससे बलमित्र और भानुमित्र दोनों अत्यधिक प्रकुपित हुए। उन्होंने आचार्य कालक को अनुकूल परीषह उत्पन्न कर पावस काल के मध्य ही विहार करने के लिए विवश कर दिया। इस सारे षड्यंत्र में राजपुरोहित का हाथ था। वह आचार्य कालक के साथ शास्त्रार्थ में पराजित हुआ था और उसने बदले की भावना से यह सारा प्रपंच रचा था।
आचार्य कालक अनुकूल परीषह उत्पन्न जानकर पावस के मध्य विहार कर प्रतिष्ठानपुर पधार गए। वहाँ के शासक शातवाहन ने आचार्य काल को अत्यंत सम्मान और आदर दिया। उसके मन में जैन धर्म के प्रति विशेष अनुराग था। भाद्रव शुक्ला पंचमी का दिन निकट था, सांवत्सरिक पर्व था। उसी दिन प्रतिष्ठानपुर में इंद्र महोत्सव मनाया जाना भी निश्चित था। राजा शातवाहन एक साथ दोनों पर्वों में सम्मिलित नहीं हो सकता था। वह सांवत्सरिक पर्व की आराधना करने का अत्यंत इच्छुक था। उसने अपनी कठिनाई को आचार्य कालक के सामने रखा और कहाµ‘भंते! आप सांवत्सरिक पर्व षष्ठी को मनाएँ, जिससे मैं उसकी सम्यग् आराधना कर सकूँ।’ आचार्य कालक ने उसके इस प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि पूर्व तिथि को लाँघना उचित नहीं है। पुनः राजा ने सांवत्सरिक पर्व को चतुर्थी के दिन मनाए जाने का प्रस्ताव रखा। आचार्य ने उसके इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब से चतुर्थी के दिन पर्व मनाने का क्रम प्रारंभ हो गया।
(क्रमशः)