भिक्षु चरमोत्सव पर पूज्यप्रवर के सान्निध्य में मुनिवृंद द्वारा समुच्चारित गीत
एक था वो संत धीर वीर औ महंत,
तंत, पंथ का न मोह, मस्ति में चला।
सर्वदा बसंत कंत घूमता निरंत,
क्या कहूँ भदंत था वो निर्मला।।
(1) कौन था वो कौन था, क्या तब समय भी मौन था, फिर क्यों नहीं उसे सभी पिछानते?
शम्भू था या ब्रह्मा था, वो चक्री था या बोस था, जो सब उसी की बात को स्वीकारते?
जो भी था वो चल बसा, क्यों खेद का न अंश वंश, सब उसी को आज फिर पुकारते,
जन्म में खुशी करे, यह सृष्टि का स्वरूप है, क्या मौत भी भला खुशी का पर्व है?
खो गई मती तुम्हारी, फिर गई गती तुम्हारी, उसकी मृत्यु पे भी तुमको बड़ा गर्व है।। कौन था वो संत--------
(2) शांत हो रे मानवी, ये छोड़ दे गुमानगी, मैं बोलता हूँ उसपे थोड़ा ध्यान दे,
दूत था वो शांति का ही, स्तूप था वो क्रांति का ही, उसका इनसे थोड़ा सा तू ज्ञान ले।
वो अमर सदा रहेगा, संघ भक्त हर कहेगा, सज्ज उसके लिए अपनी जान दे,
बोलता तो खोलता था, ज्ञान का पिटारा सारा, वृत्त है विचित्र मेरी मान ले।
क्रांति का इशारा लगता, सबको चैथा आरा प्यारा, उसका तू भी तो भले ही नाम ले।। एक था वो संत-------
(3) क्या जरूरी जानते हो, सारे-सारे मानवी की, था खुदा वो इंसा की बस्ती में,
विश्व की पुकार था वो, झूठ पे प्रहार था वो, या फंसा था वो किसी की कश्ति में।
जाना मैंने माना मैंने, घूमता रहाµरहेगा, वो सदा-सादा ही अपनी मस्ति में,
एक विचार, कर दो थोड़ा सा प्रसार, कैसा दिव्य-दिव्य-दिव्य था वो देवता।
मैं रटूँगा नाम मेरा, सिद्ध होगा काम कैसे, मैं भजू उसे अभी-अभी बता।। कौन था वो संत-------
(4) शौर्य से बटेर, वैर, गैर का वो जेर हो, या केर से करारी जिसकी वाण हो,
स्पष्ट निर्विकार, एक धार है विचार, चाहे जिस किसी का शास्त्र से प्रमाण लो।
धर्म है वो धर्म है, लगे नहीं जो कर्म है, तू मान भगवान की ये आण जो,
क्लेश हो न द्वेष हो, स्वर्थ का न लेश हो, संयमी को देना सच्चा दान है।
कर गुमान, लेके जान, नाम देना दान का, ये काम मोह कर्म का महान है।। एक था वो संत-------
(5) वाह-वाह, क्या प्रवाह, माफ होगी ये गुनाह, थोड़ा-थोड़ा जाना उस मुमुक्षु को,
नरेंद्र से-सुरेंद्र से, गणीन्द्र से-मुणीन्द्र से, प्रणम्य औ अदम्य उस समीक्षु को।
जाना-जाना तेरा गाना, माना-माना है पिछाना, महावीर महा वीर भिक्षु को,
इस हृदय की धड़कनों में, रक्त के कणों-कणों में, भिक्षु-भिक्षु नाम को बसाएँगे।
भिक्षु-भिक्षु गाएँगे, भिक्षु-भिक्षु ध्याएँगे, भिक्षुमय हम बन जाएँगे। एक था वो संत-------
(6) अखंड जोत, पुण्य पोत, साधना से ओत-प्रोत, वीर मार्ग स्रोत, भिक्षु स्वाम है,
जागती मशाल, तेज सूर्य सा है भाल, बेमिसाल, दीपालाल भिक्षु स्वाम है।
अथाह है प्रवाह, लाखों-लाखों की है चाह, मन मंदिर दरगाह, भिक्षु स्वाम है,
ये कवि की कल्पना, तो राई जितनी जल्पना है, सांस-सांस पे निवास स्वाम का।
उजास हैµप्रकाश है, मिठास हैµविकास है, ये तेरापंथ रूप भिक्षु नाम का।। एक था वो संत-------
(7) जिधर-किधर, इधर-उधर भी, देखो दृष्टि गाढ़कर, ये सारा-सारा भिक्षु का ही ठाठ है,
अचल, अमल, विमल, कमल, ये हम सभी का बल, सबल, देख लो ये भिक्षु का ही पाट है।
तरण, शरण, महाश्रमण, भिक्षु-भिक्षु संचरण, भिक्षु का ही रूप ये विराट है,
भिक्षु की पुकार आज, तेजस त्योहार भिक्षु, भक्तों अपनी भक्ति को जगाइए।
साधना के रास्ते, संघ के ही वास्ते, अपनी-अपनी शक्ति को लगाइए।। एक था वो संत-------
लय: आरंभ है प्रचण्ड---