उपासना
(भाग - एक)
आचार्य महाश्रमण
(क्रमशः) आदमी में ज्ञान का सम्यक् विकास हो। चाहे अध्यात्म का क्षेत्र हो अथवा व्यवहार का क्षेत्र हो। ज्ञान का अभाव सर्वत्र त्याज्य होता है।
स्वाध्याय के पाँच प्रकार बताए गए हैं। वे एक प्रकार से अध्यापन की प्रक्रिया के अथवा ज्ञान-दान के प्रकार हैं। उनमें एक प्रकार है-वाचना। वाचना का मतलब है-विद्यार्थियों को, शिष्यों को पढ़ाना। विद्यालयों में कितने-कितने विद्यार्थी वाचना प्राप्त करते हैं, ज्ञान प्राप्त करते हैं और स्वयं के अज्ञान को दूर करते हैं। शिक्षक और विद्यार्थी का एक संबंध होता है। शिक्षक का कार्य है ज्ञान देना और विद्यार्थी का कार्य है ज्ञान लेना। शिक्षक वाचना को अथवा ज्ञान देने के कार्य को भार न समझे, मात्र जीविका का साधन न समझे अपितु पुनीत कार्य समझे कि मैं ज्ञान-दान के द्वारा कितनों का अंधकार मिटा रहा हूँ।
आर्षवाणी में सुंदर कहा गया कि वाचना से निर्जरा होती है, श्रुत का सम्मान होता है और श्रुत का सम्मान करने वाला व्यक्ति तीर्थधर्म का अवलंबन लेता है। तीर्थधर्म का अवलंबन लेने वाला व्यक्ति कर्मों का और संसार का अंत करने वाला होता है।
स्वाध्याय का दूसरा प्रकार है-प्रतिप्रश्ना। अध्यापन की प्रक्रिया में पढ़ाना महत्त्वपूर्ण है तो प्रश्न करना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। जिस विद्यार्थी में प्रश्न करने की क्षमता होती है, वह विद्यार्थी प्रतिभावान होता है। जो सर्वज्ञ है, सब कुछ जानता है, उसे प्रश्न पूछने की जरूरत नहीं होती अथवा जो नासमझ है, कुछ समझता ही नहीं है, वह व्यक्ति भी प्रश्न नहीं करता। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनमें समझ शक्ति होती है किंतु संकोच या किसी अन्य कारण से प्रश्न नहीं पूछते। ज्ञान विकास का एक महत्त्वपूर्ण अंग है-प्रश्न करना। श्रीमद् भगवद्गीता में कहा गया है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
ज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले गुरु को प्रणाम करो, उनकी सेवा करो, उनसे प्रश्न पूछो, तब वे तत्त्वदर्शी और ज्ञानी गुरु तुम्हें उपदेश देंगे, ज्ञान देंगे। प्रश्न हो सकता है कि प्रश्न करने से क्या लाभ है? प्रश्न करने से गुरु विस्तार और स्पष्टता के साथ बात को बताने का प्रयास करें। परिणाम यह आएगा कि गुरु से अधिक ज्ञान मिल सकेगा और विषय की स्पष्टता हो जाएगी। ज्ञान की प्राप्ति में जहाँ-कहीं कमी रह जाती है, उसको भरने का काम प्रश्न करता है।
स्वाध्याय का तीसरा प्रकार है-परिवर्तना। प्राचीन काल में कंठस्थ ज्ञान की अच्छी परंपरा थी। कितना-कितना ज्ञान साधकों के कंठ में स्थित रहता था, स्मृति में रहता था। ज्ञान को स्मृति में रखने का एक सशक्त उपाय है परिवर्तना। आज भी साधु-परंपरा में ज्ञान को कंठस्थ करने की विधा है। हालाँकि इसमें कुछ कमी तो आई है क्योंकि जब इतनी पुस्तकें सुलभ हैं तो फिर दिमाग में भार क्यों रखा जाए। मैं यदा-कदा देखता हूँ कि साधु-साध्वियाँ जब गीत आदि गाते हैं तो डायरी उनके हाथ में रहती है, स्वाध्याय-परिवर्तना करते हैं तब भी पुस्तिका कइयों के पास रहती है। जिस प्रकार वृद्ध आदमी को गेडिया अथवा लकड़ी का सहारा चाहिए, उसके बिना चलना मुश्किल होता है, उसी प्रकार स्वाध्याय के समय डायरी, पुस्तिका आदि का सहारा चाहिए। वे इसके सहारे अपना काम चलाते हैं। यह गेडिया उन्हें युवावस्था में ही मिल जाता है।
ज्ञान को कंठस्थ रखने के लिए परिवर्तन करना आवश्यक है। अभ्यास के बिना ज्ञान कंठस्थ नहीं रह सकता। गुरु ने अपने शिष्य से कहा-‘वत्स! मैं कुछ प्रश्न पूछँूगा, तुम्हें उनका जवाब देना है। एक बात का ध्यान रखना, मैं जितने भी प्रश्न पूछूँ, उन सबका जवाब एक होना चाहिए।’ यानी प्रश्न अनेक, जवाब एक। शिष्य ने कहा-‘गुरुदेव! आप फरमाइए, कौन से प्रश्न हैं?’ गुरु ने काव्य की भाषा में पूछा-
पान सड़ै घोड़ो अड़ै, विद्या बिसर जाय।
रोट जलै अंगार पर, कहो चेला किण न्याय।।
वत्स! पान सड़ते क्यों हैं, घोड़ा अच्छी तरह क्यों नहीं चल सकता, वह रुक क्यों जाता है, विद्या विस्मृत क्यों हो जाती है, रोटी अंगारे पर क्यों जल जाती है? इन सबका एक उत्तर क्या है? शिष्य बहुत चतुर, बुद्धिमान और समझदार था। उसने कहा-गुरुदेव! इन सबका उत्तर एक है-फेरा नहीं यानी परिवर्तना नहीं की। पान की परिवर्तना की जाती तो सड़ते नहीं। वे पड़े-पड़े खराब हो गए। घोड़े को फिराया/घुमाया जाता तो उसका अभ्यास बना रहता। घुमाने का क्रम नहीं रहने से उसमें चलने का अभ्यास स्थगित हो गया। रोटी को अंगारे पर बदला जाता तो वह जलती नहीं। एक ही तरफ पड़ी रहने से वह जल गई। इसी प्रकार विद्या को भी फेरा जाए यानी बार-बार उसका पुनरावर्तन किया जाए तो वह स्मृतिगत रहती है अन्यथा विद्या भी विस्मृतिगत हो जाती है।
स्वाध्याय का चैथा प्रकार है-अनुप्रेक्षा। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य आगमों का बहुत स्वाध्याय करते थे। उत्तराध्ययन को सरल आगम माना जाता है। उस सूत्र का जयाचार्य ने सैकड़ों बार स्वाध्याय किया। जयाचार्य जब-जब स्वाध्याय करते, तब-तब कहते-आज एक नया अर्थ मिला है। ये नए-नए अर्थ कहाँ से आते हैं? शब्द वे ही हैं। शब्दों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, किंतु अर्थ नया उपलब्ध हो गया। नए अर्थ का स्रोत कहाँ है? एक वाक्य में न जाने कितने अर्थ पिछे पड़े हैं। कोई खोजने वाला चाहिए, मनन करने वाला चाहिए। स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-अनुप्रेक्षा। पढ़ना, जिज्ञासा करना, पुनरावृति करना ठीक है, किंतु इन सबका निष्कर्ष या विकास तब होता है, जब अनुप्रेक्षा होती है, चिंतन, मनन और मंथन किया जाता है।
स्वाध्याय का पाँचवाँ प्रकार है-धर्मकथा। जो सत्य स्वयं को मिला है, उसे दूसरों तक पहुँचाना बड़ी बात है। स्वयं को मिला, स्वयं तक सीमित बना लिया, यह ठीक है किंतु इसे दूसरों तक न पहुँचाया जाए, तब तक पूरी सार्थकता नहीं होती। कुछ लोग ऐसे हैं, जिनमें यह रुचि जाग्रत है। जो भी अच्छी बात जानते हैं उसे दूसरों तक पहुँचाते हैं। साहित्य के माध्यम से भी पहुँचाते हैं। अच्छा साहित्य मिला है, उसे दूसरों तक पहुँचा देते हैं।
आर्षवाणी में सुंदर कहा गया कि स्वाध्याय के द्वारा पठन-पाठन, अनुप्रेक्षा, जिज्ञासा आदि के द्वारा ज्ञान को आवृत्त करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण होता है और आदमी में ज्ञान का विकास होता है। ज्ञान का विकास होना जीवन की एक उपलब्धि होती है। हम ज्ञान का विकास करें, जिससे हमें प्रकाश प्राप्त हो सके।
सामायिक
आर्हत वाङ्मय के प्रतिष्ठित आगम उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में एक प्रश्न किया गया-सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! सामायिक से जीव क्या प्राप्त करता है? सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयइ। सामायिक से वह असत् प्रवृत्ति की विरति को प्राप्त होता है। सामायिक जैन परंपरा का एक पारिभाषिक शब्द है। एक साधु जीवन-भर के लिए सामायिक चारित्र को ग्रहण करता है, साधुत्व को प्राप्त करता है। सामायिक से सावद्ययोग की विरति होती है। सावद्य शब्द भी मीमांसनीय है। स$अवद्य इति सावद्य। ‘स’ का अर्थ है सहित और ‘अवद्य’ का अर्थ है पाप और योग का अर्थ है प्रवृत्ति या क्रिया यानी पाप सहित प्रवृत्ति को सावद्ययोग कहा जाता है। पाप सहित प्रवृत्ति का त्याग ही सामायिक की निष्पत्ति है, सामायिक का फल है। जहाँ एक श्रमण जीवन-पर्यन्त सावद्ययोग से विरति को स्वीकार करता है, वहीं एक बारहव्रती श्रावक भी जीवन-भर के लिए नौवें सामायिक व्रत की आरधना करता है, देशतः सामायिक का प्रयोग करता है यानी वह भी आजीवन सावद्ययोग से कुछ अंशों में विरत हो जाता है। नौवें व्रत की साधना में एक मुहूर्त अर्थात् अड़तालीस मिनट के लिए सावद्ययोग का त्याग किया जाता है। उस समय वह साधु जैसा बन जाता है। प्राकृत वाङ्मय में सुंदर कहा गया-
सामाइयम्मि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा।
एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा।।
सामायिक कर लेने पर श्रावक भी साधु जैसा बन जाता है। इसलिए बहुत सामायिक करना चाहिए। एक पुरुष जब सामायिक करता है तब कुछ अंशों में उसकी वेश-भूषा भी जैन श्वेतांबर मुनि जैसी हो जाती है और साथ में असत् प्रवृत्ति की विरति भी होती है। इसलिए उस काल में वह वेश से भी साधु जैसा और त्याग की दृष्टि से भी काफी अंशों में साधु जैसा बन जाता है। सामायिक एक अनुष्ठान है। जैन श्रावक सामायिक का अभ्यास करते हैं। एक मुहूर्त के लिए किया जाने वाला यह आध्यात्मिक अनुष्ठान यदि प्रतिदिन अनुष्ठित हो जाता है तो साधना का एक अच्छा क्रम बन जाता है।
सामायिक में सावद्ययोग से विरति होने का सीधा-सा अर्थ है-राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से विरति। यानी न मन में राग-द्वेष आए, न वाणी में राग-द्वेष का प्रयोग हो और न शारीरिक चेष्टाएँ ही राग-द्वेष से उत्प्रेरित हो। श्रावक के नौवें व्रत के अंतर्गत कहा गया-
धर्म है समता, विषमता पाप का आधार है,
जैनशासन के निरूपण का यही बस सार है।
त्याग कर सावद्य चर्या, सुखद सामायिक करूँ,
लीन अपने आपमें हो, मैं भवोदधि को तरूँ।।
सामायिक में श्रावक राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से विरत रहने की साधना करता है, समता की साधना करता है। समता की साधना करने का मतलब है समता का अभ्यास करना और समता का अभ्यास करने का मतलब है अपने आपमें रहने का अभ्यास करना। बाह्य विषयों से विरति और स्व में रहने का अभ्यास ही सामायिक का अभ्यास है। सामायिक करने वाला व्यक्ति उस कालमान में साधना के अनेक प्रयोग कर सकता है। वह जप का प्रयोग कर सकता है, ध्यान कर सकता है, स्वाध्याय भी कर सकता है। अनेक उपक्रम एक सामायिक काल में संपन्न किए जा सकते हैं। कुछ वर्षों पूर्व पूज्य गुरुदेव तुलसी ने सामायिक का अभिनव प्रयोग शुरू किया। उसमें कुछ प्रयोग निर्धारित किए गए। जप, ध्यान और स्वाध्याय के अतिरिक्त त्रिगुप्ति साधना, लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव) एवं परमेष्ठी वंदना का पाठ आदि किया जाता है। इस निर्धारित उपक्रम युक्त सामायिक करने से काफी अच्छे ढंग से समता की साधना हो सकती है। (क्रमशः)