समर्पण और समता का रूप - साध्वी पावनप्रज्ञा

समर्पण और समता का रूप - साध्वी पावनप्रज्ञा

समर्पण, समता और प्रसन्नचित्त की त्रिवेणी में स्वयं को पुनीत करने वाली साध्वी पावन प्रज्ञा जी, जिन्होंने मृत्यु को महोत्सव बना दिया और जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में अपना गौरवमय स्थान बना लिया। सन् 1956 में श्री मांगीलालजी व सुंदरदेवी के कुल में मारवाड़ की वैराग्यमयी उर्वर धरा टापरा में पुष्पा का जन्म हुआ। मात्र 15 वर्ष की उम्र में जसोल निवासी श्री पूनमचंद जी चोपड़ा के सुपुत्र खीमराजजी चैपड़ा के साथ पाणिग्रहण हुआ। लगभग 18 वर्षों के बाद खीमराजजी का अचानक एक्सीडेंट हो गया और कुछ दिन ‘कोमा’ में रहने के पश्चात हमेशा के लिए अलविदा हो गए। संयोगवश पुष्पा के कोई संतान भी नहीं थी। निराशा व शोक के क्षणों में आशा का दीप जलाया समणी स्मितप्रज्ञा जी (वर्तमान साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी) ने कहा संसार तो देख लिया अब संन्यास की ओर आगे बढ़ो-इस प्रकार वैराग्य भावना का संचार किया।
सही कार्य, सही वक्त अर्थात सफलता। प्रयास सफल हुआ और मुमुक्षु के रूप में पुष्पा ने लगभग 4 वर्षों तक पारमार्थिक शिक्षण संस्था में साधना की। तत्पश्चात् सन् 1997 में हेम द्विशताब्दी के अवसर पर गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी की सन्निधि में आचार्य महाप्रज्ञ जी के मुखारविंद से समणी अक्षयप्रज्ञा जी की अग्रजा ने समणी पावनप्रज्ञा बन समण श्रेणी में प्रवेश किया।
लगभग 26 वर्षों तक समणी पावनप्रज्ञा जी ने समण श्रेणी में साधना की। उनके जीवन विकास में समण श्रेणी की समस्त नियोजिका व संपूर्ण समणी परिवार, समणी मधुरप्रज्ञा जी से लेकर नवदीक्षित समणीजी की आत्मीयता व भरपूर सहयोग मिला। बीमारी में अच्छा आलंबन मिला। इनकी जीवनशैली च्संददपदहए च्नदबजनंसपजल और च्तपवतमजल पर आधारित थी, जिसके केंद्र में ज्पउम डंदंहमउमदज इसलिए जप, प्रतिदिन चैबीसी, स्वाध्याय, ध्यान, अनुपूर्वी, योगासन, प्राणायाम आदि नित्य क्रम था। स्वच्छतायुत स्वावलंबी जीवन था। सिलाई, रंगाई आदि में निपुणता के साथ प्रत्येक कार्य में उत्साह नजर आता। संघनिष्ठा, गुरुनिष्ठा, आचारनिष्ठा, अद्भुत थी। निर्धारित आचार संहिता के प्रति सतत जागरूक थे।
साध्वी पावनप्रज्ञा जी के जीवन में असाता वेदनीय का योग कुछ ज्यादा रहा। फिर भी अपनी शारीरिक अवस्था के साथ मैत्री करते हुए अपनी साधना में संलग्न रहीं। अचानक जीवन में एक बड़ा ज्तनदपदह च्वपदज आया। सन् 2021 में कई दिनों तक पेट दर्द की समस्या रही। मेडिकल चेकअप के बाद एक अप्रत्याशित अनसोची रिपोर्ट सामने आई कि समणी पावनप्रज्ञा जी को पेट में कैंसर है। बहुत चिंतन के बाद जब उनको इसके बारे में बताया गया, वो इतनी शांत, सहज और सकारात्मक थी कि मानो कैंसर नहीं गैस की सामान्य बीमारी हो। जिस बीमारी के नाम से रोगी प्रकंपित हो जाता है, वहीं इस विषय में संसारपक्षीय अनुजा बहन साध्वीश्री सहजप्रभाजी का भी आत्मीय व अनुपम चिंतन सहयोगी बना।
समणी पावनप्रज्ञा स्थिरता के साथ अपनी योजना बनाने लगी कि इस रोग का सामना कैसे किया जाए? कीमो आदि को अस्वीकारते हुए रोग आगे न बढ़े इस दृष्टि से वलसाड में आयुर्वेदिक चिकित्सा का मानस बनाया। उससे भी बड़ा आध्यात्मिक चिकित्सा का संकल्प लिया। यद्यपि पेट का पानी निकलवाने समय-समय पर हाॅस्पिटल जाना पड़ता, किंतु पूज्यप्रवर आचार्य महाश्रमण जी द्वारा प्रदत्त मंत्र उनकी सबसे बड़ी दवा थे। हम सौभाग्यशाली हैं कि तेरापंथ धर्मसंघ विरासत में मिला और करुणानिधान आचार्यश्री महाश्रमण जी जैसे गुरु का साया और सन्निधि तन, मन और आत्मा में बल भरते हैं। आचार्यप्रवर को ज्ञात होते ही निर्देश दिया कि जहाँ कहीं अपेक्षा लगे उनकी चिकित्सा करवाई जा सकती है।
इस असाध्य बीमारी ने उनकी पूरी दिनचर्या को बदल दिया। चिंतनधारा ने नया रूप ले लिया। प्रवर्धमान गुरु-भक्ति ने गुरुमुखी बना दिया। गुरु-शरण ही हर समस्या का समाधान था। सर्वात्मना समर्पण का पुरस्कार था अनहद गुरु-कृपा। पूज्यप्रवर ने भीलवाड़ा चातुर्मास में हमें साथ में रखवाने का अनुग्रह करवाया। प्रायः प्रातः भ्रमण के समय गुरुदेव पावनप्रज्ञा जी को मंगलपाठ श्रवण करवाते। गुरुदेव का ओजस्वी मंगलपाठ उनके लिए दर्द-निवारक दवा का कार्य करता। एक दिन पावनप्रज्ञा जी ने गुरुदेव के समक्ष अपने दो मनोरथ निवेदित किए-(1) श्रेणी आरोहण (साध्वी दीक्षा), (2) संथारा। उनकी प्रबल भावना का अंकन करते हुए गुरुदेव ने उन्हें साधु प्रतिक्रमण सीखने का आदेश फरमाया। शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने भी अनेक बार सेवा के दौरान वार्ता की। मुख्यनियोजिका जी (वर्तमान साध्वीप्रमुखाश्रीजी) तथा साध्वीवर्या जी हमारे प्रवास स्थल पर पधारकर दर्शन देते, आध्यात्मिक संगान कराते। लगभग यह क्रम छापर (2022), सूरत (2023) में भी रहा।
मुंबई चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव की अनुकंपा और आशीर्वाद को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। गुरुदेव द्वारा प्रदत्त ‘लोगस्स’ की माला तथा साध्वीप्रमुखाश्री जी द्वारा प्रदत्त ‘संती कुंथु अर्हम्---’ तथा ‘चइता भारहं वासं---’ की प्रतिदिन तन्मयता से माला फेरती। रोग के साथ संघर्ष का तीसरा वर्ष चल रहा था। रोग शिखर की ओर गतिमान था। उन्होंने शरीर की अशक्यता व स्थिति को देखते हुए पानी निकलवाने से इन्कार कर दिया और केवल अध्यात्म साधना व गुरु को ही अपना आलंब बनाया। शरण वात्सल्य-सिंधु पूज्यप्रवर एक दिन के अंतराल से दर्शन देने पधारते, आजीवन एक खाद्य-वस्तु का त्याग करवाते। गीत का संगान करवाते। श्रद्धेया साध्वीप्रमुखाश्री जी व साध्वीवर्याजी प्रायः दर्शन देने हुए प्रतिदिन पधारते तथा कई बार विराजकर सेवा भी करवाते। पावनप्रज्ञा जी इनके उपकारों को हमेशा स्मृति में रखती। गुरुदेव के इंगितानुसार साध्वीवर्याजी ने आलोयणा भी करवाई। समादरणीय मुख्यमुनिप्रवर आचार्यप्रवर के इंगितानुसार सेवा करवाते तथा पावनप्रज्ञा जी के मनोरथ को बल देते हुए चारित्र शीघ्र उपलब्ध हो ऐसी प्रेरणा देते।
आहार की मात्रा अल्प होते देख संलेखना के विचार से पर्युषण से एकांतर तप प्रारंभ किया और एक बेला भी। समय-समय पर अपनी भावना, कृतज्ञता गुरुदेव को निवेदित करते ही गुरुदेव का मंगलपाठ सुनते ही वेदना कम हो जाती है। 5 अक्टूबर को उन्होंने पूज्यप्रवर के समक्ष अपने दोनों मनोरथ पूर्ण करने की प्रार्थना की। कृपा-सिंधु की महर बरसी, पंचांग में स्वयं शुभ समय देख उसी दिन 11 बजकर 21 मिनट पर समणी पावनप्रज्ञा जी के श्रेणी आरोहण का फरमान करवाया। तीर्थंकर समवसरण, नंदनवन (मुंबई) में आचार्य महाश्रमण जी ने समणी पावनप्रज्ञा जी को बेले के तप में चारित्र में प्रस्थित कर साध्वी पावनप्रज्ञा बना दिया।
प्रथम मनोरथ की संपूर्ति की प्रसन्नता के पश्चात् उन्होंने दूसरे मनोरथ की प्रार्थना की। गुरुदेव के निर्देशानुसार साध्वीप्रमुखाश्री जी के संरक्षण में अनुकंपा भवन में उनकी संयम यात्रा प्रारंभ हो गई। उनकी सेवा में मुख्य रूप से साध्वी जयविभा जी व वैराग्यप्रभा जी को नियुक्त किया गया। साध्वी वीरप्रभा जी ने अपनी स्वेच्छा से साध्वी पावनप्रज्ञा जी की पूर्ण मनोयोग से अंतिम समय तक सेवा की। संयम के साथ तप-यात्रा भी आगे बढ़ती गई। करुणा सागर पूज्यप्रवर पधारते, वे अपनी भावना तथा सबके प्रति अहोभाव अभिव्यक्त करते। साध्वीप्रमुखाश्री जी दिन में 3-4 बार पधारकर सेवा करवाते, पारणे का फरमाते, पर साध्वी पावनप्रज्ञा जी का पक्का संकल्प था, अब इस जीवन में कुछ नहीं खाना है। अनंत जन्मों तक खाया है।
11 अक्टूबर को पुनः उन्होंने संथारे के लिए निवेदन किया। गुरुदेव ने अनेक प्रकारों से मन इच्छित वस्तु से पारणा करने की बात कही उनकी कसौटी की-संथारा यदि लंबा चला तो। पावनप्रज्ञा जी का एक ही जवाब ‘जो होगा देखा जाएगा’, अब पीछे नहीं मुड़ना है। मैंने सारे कार्य चिंतन और योजनापूर्वक किए हैं। मेरा मन पक्का है। कसौटी में खरे उतरे पावनप्रज्ञा जी पर गुरु की महर बरसी और 8 की तपस्या में तिविहार संथारे का प्रत्याख्यान करवाया। दूसरे मनोरथ की संपन्नता से उत्पन्न आनंद पावनप्रज्ञा जी के चेहरे पर झलक रहा था। तत्पश्चात् प्रतिदिन पूज्यप्रवर पधारकर भक्तामर के पद्यों का संगान करवाकर उच्च परिणामों का आशीर्वाद प्रदान करवाते। मुख्यमुनिप्रवर भी शुभकामना के साथ परिणाम शुद्धि की मंगलकामना करते। प्रमुखाश्री जी दिन में कई बार उन्हें सेवा करवाते-‘हम आत्मा का ही ध्यान धरें, आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न-की मानो अनुप्रेक्षा करवाते। साध्वीवर्याजी पधारकर गीत सुनाते, साता पुछाते। बहुश्रुत परिषद के सदस्य मुनिश्री दिनेश कुमार जी स्वामी आदि संत भी पधारकर गीतों का संगान करते। अन्य साध्वियाँ व समणियाँ भी निरंतर जप तथा गीतों का संगान कर संथारे की अनुमोदना करती।
साध्वी पावनप्रज्ञा जी से 14 अक्टूबर को पूज्यप्रवर ने खमतखामना किया तथा सभी संतों को भी खमतखामणा करने का फरमाया। दिनांक 14 के दोपहर तक वह पूर्ण जागरूक अवस्था में थी। उनकी कायगुप्ति, समता, सकारात्मकता अत्यंत प्रेरणास्पद व श्लाघनीय थी। उनकी शांत चित्तता, स्थिरता देखकर कोई अनुमान नहीं लगा सकता कि वे असाध्य बीमारी की तीव्र वेदना से संघर्ष कर रही है। प्यास का परीषह था किंतु जी घबराता इसलिए पानी नहीं पी पाती। शरीर में जलन होती, फिर भी मुख से एक बार भी ‘उफ’ शब्द तक नहीं किया और न शरीर की हलन-चलन। 14 तारीख की दोपहर के पश्चात् न निद्रा, न तंद्रा, न मूच्र्छा भीतर से सचेत किंतु बाहर से निश्चेष्ट। सायंकालीन पाक्षिक प्रतिक्रमण के पश्चात् साध्वीप्रमुखाश्री जी, साध्वीवर्याजी आदि से हाथ जोड़कर खमतखामणा किया। मध्यरात्रि में अल्प हलचल, तीव्र वेदना अभिव्यक्त कर रही थी। ब्रह्मबेला के पश्चात पूर्णतया निश्चछ, श्वासगति-कभी तीव्र, कभी मंद। साध्वीप्रमुखाश्रीजी, साध्वीवर्याजी आदि साध्वियों ने प्रतिक्रमण सुनाया। 15 अक्टूबर सूर्योदय के पश्चात शीघ्र ही परम श्रद्धेय आचार्यप्रवर का अनुकंपा भवन में पदार्पण हुआ। वे आँखें खोल दर्शन न कर सकी। वह निश्चल अवस्था काफी समय तक बनी रही। जीवन के अंतिम क्षण तक बीमारी से वे नहीं हारे अपितु गुरुकृपा से उन्होंने बीमारी को हरा दिया। फिर लगभग सवा बजे दोपहर में साध्वी पावनप्रज्ञा ने समाधि मरण को प्राप्त कर देवलोक की ओर प्रस्थान कर लिया। केवल 11 दिन के चारित्र पर्याय में अपनी समता, शांत चित्तता, सतत कृतज्ञ भाव के द्वारा सबके मानस में अमिट स्थान बना लिया। धन्य हुई साध्वी पावनप्रज्ञा जी जिन्होंने अनहद गुरु-कृपा को प्राप्त किया और गुरुचरणों में ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।