उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)
मित भोजन
मित भोजन का मतलब है अधिक न खाना, भूख से दो ग्रास कम खाना। दो चपाती की भूख में दो के स्थान पर डेढ़ खाना लाभदायक हो सकता है, पर दो की जगह ढाई-तीन खाना बीमारी को निमंत्रण देना है। एक बार उचित मात्रा में भोजन कर लिया जाए, उसके बाद कोई स्वादिष्ट वस्तु भी सामने आए तो मन पर कंट्रोल होना चाहिए। यथासंभव खाने का प्रयास न हो। एक बार अच्छी मात्रा में भोजन होने के बाद तीन-चार घंटे पेट को विश्राम मिलना चाहिए। कई लोग त्याग करने का अच्छा क्रम रखते हैं। दिन में दो घंटे, तीन घंटे, पाँच घंटेµजितना संभव हो, खाने का त्याग कर देते हैं यह एक अच्छी बात है। इससे सहज तपःसाधना सध जाती है। खाने का संयम हो जाता है और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हितकर है। इस प्रसंग में युवाचार्यप्रवर अपना एक संस्मरण सुनाया करते हैंµमैं जब छोटा था, साधुओं के पास जाया करता था। वहाँ एक वृद्ध श्रावक से मिलना हुआ। उनके पास एक छोटी-सी पुस्तिका थी। उस पर लिखा हुआ थाµखाते-पीते मोक्ष। मैंने जानकारी कीµखाते-पीते मोक्ष कैसे हो सकता है? मुझे बताया गया कि इस पुस्तिका में कई कोष्ठक बने हुए हैं। खाने का एक घंटे का त्याग कर दो, एक बिंदु लगा दो। फिर त्याग करो, दूसरा बिंदु लगा दो। इस प्रकार इस पुस्तिका के सब कोष्ठक भरे जाते हैं। इसका एक ही उद्देश्य है कि त्याग की दिशा में व्यक्ति की अधिक से अधिक गति हो। यह तब संभव हो सकता है जब व्यक्ति का जिह्वा पर संयम हो।
युक्ति से प्रतिबोध
एक युवक था। उसने पर्याप्त मात्रा में भोजन कर लिया। भोजन करके उठा कि मित्र की तरफ से भोजन का निमंत्रण आ गया। युवक ने सोचाµचला जाऊँ। सहज रूप से माल खाने को मिलेंगे। किंतु मन में आयाµपिताजी बैठे हैं तो उनका परामर्श भी ले लेना चाहिए। पिता के पास गया और संस्कृत भाषा में अपना अभिप्राय रखते हुए कहाµ
उध्र्वं गच्छति नोद्गाराः, नोऽधो गच्छन्ति वायवः।
निमंत्रणं समायातं, तात्! ब्रूहि करोमि किम्।।
पिताश्री! मैंने भोजन तो पर्याप्त मात्रा में कर लिया है। कुछ अधिक ही खा लिया है। स्थिति यह है कि ऊपर से डकार नहीं आ रहा है। नीचे से अधोवायु नहीं हो रही है। किंतु मित्र की ओर से निमंत्रण आ गया है, क्या मैं प्रीतिभोज में सम्मिलित होने चला जाऊँ? पिता ने सोचाµसीधा निषेध करना ठीक नहीं है। इसे युक्ति से समझाना चाहिए। समझाने का भी तरीका होता है। कभी सीधी भाषा में कहकर समझाया जाता है। कभी टेढ़ी भाषा में समझाना होता है। पिता ने भी संस्कृत में ही उत्तर देते हुए कहाµ
भोजनं कुरु दुबुद्र्धे! मा प्राणेषु दयां कुरु।
परान्नं दुर्लभं लोके, शरीराणि पुनः पुनः।।
अरे मूर्ख! इसमें पूछने की क्या बात है? खाओ, खूब खाओ। शरीर तो पुनः मिल जाएगा पर मुफ्त का माल खाने को कब मिलेगा? पिता के इस कथन से लड़का समझ गया कि ज्यादा खाऊँगा तो शरीर को खतरा होगा। उसने प्रीतिभोज में जाने का विचार बदल दिया।
सामान्यतः खाना पूरा हो जाए तो उसके बाद चाहे मनोज्ञ पदार्थ भी सामने क्यों न आ जाए, खाने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। खाने में जल्दबाजी करना भी अनुचित है। जो धीरे-धीरे चबा-चबाकर खाता है उसके लिए खाद्य-संयम काफी आसान हो जाता है। खाते समय व्यक्ति का दिमाग भी शांत होना चाहिए। कहा गया हैµईष्र्या, भय, क्रोध, लोभ आदि स्थितियों में किए गए आहार का सम्यक् परिपाक नहीं होता है। जठाराग्नि मंद हो जाती है। जैन तपोविधि में आहार-संयम के कई प्रयोग विहित हैंµअनशन-उपवास, ऊनोदरी-नवकारसी, प्रहर आदि। एक अवस्था आ जाने के बाद व्यक्ति सायंकाल का भोजन कम कर दे या बिलकुल छोड़ दे तो शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से उचित हो सकता है।
एक भाई ने युवाचार्यप्रवर से पूछाµरात्रि में भोजन नहीं करता हूँ पर कभी-कभी कार्यवश बाहर चला जाता हूँ तो आने में विलंब हो जाता है। रात में भोजन करने की स्थिति आ जाती है। मुझे क्या करना चाहिए?
युवाचार्यप्रवर ने कहाµआपकी जो उम्र है उसमें दो समय का भोजन पर्याप्त हैµप्रातःकाल का और मध्याह्न का। सायंकाल का भोजन न करना आपके स्वास्थ्य के लिए ज्यादा हितकर हो सकता है। उन्होंने बात पर ध्यान दिया और दो बार के भोजन से ही काम चलाना शुरू कर दिया।
एकासन में भी विवेक होना आवश्यक है। ऐसा न हो तीन-चार टाइम का खाना एक बार में ही ठूँस-ठूँसकर खा लिया जाए। प्रातःकाल नाश्ते में भी मेरे विचार से अधिक नहीं खाना चाहिए। उपवास के पारणे में भी कई लोग अधिक खा लेते हैं। पारणे में अधिक खाना नुकसानप्रद है। गुरुदेव तुलसी अपने जीवन का एक संस्मरण सुनाया करते थेµवे जब छोटे थे तो उपवास के पारणे में कई द्रव्य ले लेते थे। उससे पारणे के बाद बेचैनी हो जाती। पैरों में भारीपन का अनुभव होता। एक बार उन्होंने एक अनुभवी श्रावक से इसका समाधान चाहा। उसने परामर्श दिया कि पारणे में आप थोड़े से दूध के अतिरिक्त कुछ न लिया करें। उस विधि से पारणा शुरू किया तो कोई कठिनाई उपस्थित नहीं हुई।
पारणे में संयम बहुत आवश्यक है। व्यक्ति अठाई करे, पंद्रह का तप करे या मासखमण तप करे और पारणे तथा पारणे के कुछ दिन तक खाने में संयम न रखे तो तपस्या बदनाम भी हो सकती है।
अपान की शुद्धि
परिमित भोजन की एक महत्त्वपूर्ण कसौटी यह हैµपाचन तंत्र और उत्सर्जन तंत्र स्वस्थ है या नहीं? परिमित भोजन की दृष्टि से दोनों तंत्रों की स्वस्थता बहुत महत्त्वपूर्ण है। पाचन तंत्र ठीक है तो जो खाया जाएगा उसका सम्यक् पाचन होगा। यदि पाचन ठीक होगा तो मनुष्य बहुत सारी शारीरिक, मानसिक और भावात्मक व्याधियों से मुक्त रहेगा। पाचनतंत्र का संबंध है उत्सर्जन तंत्र से। यदि उत्सर्जन तंत्र ठीक है तो शरीर हलका रहेगा, मन और इंद्रियाँ प्रसन्न रहेंगी, चिंतन स्वस्थ होगा।
हित भोजन
हित भोजन अर्थात् हितकर भोजन। परिमित भोजन में भी वैसा खाना जो हितकर हो। जो खाना स्वास्थ्य के लिए अहितकर हो उससे बचना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में एक प्रसंग आता है कि किस प्रकार अहितकर पदार्थ को खाने से राजा को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। एक राजा को आम खाने का बड़ा शौक था। उसे खाने के लिए प्रतिदिन आम चाहिए। आम भी अतिमात्रा में खा लेता। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ अति को सर्वत्र त्याज्य माना गया है। अधिक मात्रा में आम के सेवन से राजा का शरीर रोगाक्रांत हो गया। वैद्य को बुलाया गया। अच्छा-अनुभवी वैद्य था। नाड़ी देखकर कहाµराजन्! मैं आपको दवा दूँगा, आप ठीक हो जाएँगे। फिर मेरे द्वारा बताए गए परहेज के अनुसार चलेंगे तो यह बीमारी वापस कभी नहीं होगी। एक पुड़िया दपी और साथ में परहेज बता दिया कि आम जीवन में कभी भी मत खाना। राजा ने वैद्य की बात को स्वीकार किया। दवा की एक पुड़िया ली कि बीमारी खत्म हो गई। राजा ने निर्णय कर लिया कि अब जिंदगी में कभी भी आम नहीं खाऊँगा। आदेश निकाल दिया गयाµशहर में कहीं कोई आम का पेड़ हो तो उसे नष्ट कर दिया जाए ताकि मेरे पास कोई आम आ ही न सके।
एक बार की बात है, राजा और मंत्री घूमने गए। शहर की सीमा से बहुत आगे चले गए। वहाँ एक आम का बगीचा था। आम की सुगंध राजा को दूर से ही आकृष्ट करने लगी। राजा ने मंत्री से कहाµमंत्री! बहुत थक चुका हूँ। कहीं विश्राम करना पड़ेगा। पास में यह बगीचा है। इसमें चलें। मंत्री ने कहाµमहाराज! बगीचा तो है पर आम का है। हमारा यहाँ ठहरना उचित नहीं है। आगे कहीं विश्राम करेंगे। राजा बोलाµमंत्री! गहरा थक गया हूँ। एक बार तो विश्राम यहीं करना पड़ेगा। मंत्री ने बहुत समझाया पर आखिर मालिक पर मालिक कौन? राजा और मंत्री आम के बगीचे में पहुँचे। एक आम के पेड़ के नीचे राजा विश्राम करने लगा। छायादार पेड़। ठंडी हवा। हवा के एक झोंके से आम टूटकर राजा की गोद में आ गिरा। आम के प्रति राजा का पुराना प्रेम उद्बुद्ध हो गया। राजा ने आम को हाथ में लिया। घुमा-घुमाकर राजा उसे देखने लगा। मंत्री निवेदन की भाषा में बोलाµमहाराज! मुझ पर कृपा करें। इस आम को फेंक दें। राजा बोलाµमंत्री! तुम तो बड़े बुजदिल हो। आम को देखने में क्या दिक्कत है? वैद्य ने तो आम खाने का निषेध किया है। देखने में कौन सा अपराध हो गया? मैं तो देख ही रहा हूँ। खा तो नहीं रहा हूँ। आम को देखते-देखते राजा उसे सूँघने लगा। मंत्री ने पुनः निवेदन कियाµमहाराज! कृपा कर आम को दूर रखें। राजा ने फिर मंत्री की बात को काटते हुए कहाµमंत्री! आम को सूँघने में क्या दिक्कत है? सूँघते-सूँघते राजा ने उसे होंठों से लगाया और थोड़ा सा रस चूस भी लिया। मंत्री ने साहस किया और राजा के हाथ से छीनकर आम को दूर फेंक दिया। राजा की स्थिति बिगड़ने लगी। मंत्री ने तत्काल राजा को महल पहुँचाया। उसी पुरानी बीमारी ने पुनः आक्रमण कर दिया। उसी वैद्य को पुनः बुलाया गया। वैद्य आया। उसने कहाµआपने कहीं न कहीं अतिक्रमण किया है, आम खाया है, अन्यथा मेरी दवाई लेने के बाद बीमारी पुनः हो नहीं सकती। राजा बोलाµवैद्यजी! ज्यादा तो नहीं खाया, मैंने तो थोड़ा-सा चूसा था। वैद्य बोलाµमहाराज! उसी ने गड़बड़ की है। अब मेरे पास कोई इलाज नहीं है। वैद्य के देखते-देखते राजा के प्राण-पखेरू उड़ गए। यह है खाने का असंयम। राजा यदि खाने का संयम रख पाता तो संभवतः अकाल मृत्यु टल जाती, किंतु व्यक्ति को जिस वस्तु का स्वाद लग जाता है, उसे छोड़ना असंभव तो नहीं कठिन प्रायः अवश्य होता है।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने अपराधी प्रकृति के बच्चों का विश्लेषण किया। जाँच से यह तथ्य सामने आया कि वे बच्चे कृत्रिम रंग वाले और अति परिष्कृत पदार्थ खाते थे। आजकल बाजार में रंग-बिरंगी मिठाइयों के ढेर लगे रहते हैं। वे देखने में बहुत अच्छी लगती हैं, खाने में भी स्वादिष्ट लगती हैं पर उनका परिणाम अच्छा नहीं होता। जो डिब्बा बंद अति-परिष्कृत पदार्थ आते हैं उनका प्रभाव भी नुकसानदेह होता है। मनोवैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकालाµबच्चों के अपराधी होने का कारण है अति परिष्कृत और कृत्रिम रंगयुक्त भोजन। मनोवैज्ञानिक ने उनके आहार को बदला, कृत्रिम रंगयुक्त भोजन देना बंद कर दिया। कुछ ही दिनों में उनकी उद्दंडता समाप्त हो गई। बच्चे विनीत और शांत बन गए। अपराध करने का मनोभाव समाप्तप्रायः हो गया। वैज्ञानिकों ने इस प्रकार के सैकड़ों-सैकड़ों प्रयोग किए हैं, मनुष्यों पर भी और पशुओं पर भी। यह प्रमाणित हो गया हैµजितने कृत्रिम रंग से बने पदार्थ हैं, वे देखने में आकर्षक और मनमोहक भले हो, स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं।
(क्रमशः)