अर्हम्
देह त्याग की बेला में ममत्व बुद्धि की डिग्री कितनी कम हुई है? प्रतिशोध की गाँठें शिथिल हुई या नहीं? उस समय मन में धर्म भावना रहती है या नहीं? आँखें पथराने की घड़ियों में आत्मा कितनी शांति और समता रख सकती है? इसी को ज्ञानियों ने समाधि मरण की प्रलंब कसौटी का पैमाना बताया है। समाधि मृत्यु का इच्छुक न मौत की आकांक्षा करता है न जीवन के प्रति आसक्ति रखता है। मैंने देखा साध्वी पावनप्रज्ञा जी की अंतिम समय में अनासक्ति गजब की थी।
साधना का अंतिम पड़ाव हैµसंथारा। यह वह महापथ है जहाँ आसक्ति छूट जाती है, आत्मपथ है जिसमें कषायों का तेज घट जाता है और सत्य साकार हो उठता है। यह वह उन्नत मार्ग है, जिस मार्ग पर बढ़ते हुए मौत को आह्वान किया जाता है अर्थात् निर्भयता के साथ लक्ष्य पर पहुँचकर ही साधक दम लेता है। साध्वी पावनप्रज्ञा जी तेरापंथ धर्मसंघ की आत्मार्थी साध्वी थी। समता, समर्पण, सहनशीलता जैसे अंगरक्षकों ने सदैव साध्वी पावनप्रज्ञा जी की भावना को उन्नत बनाए रखा।
शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद भी मनोबल एवं भावनात्मक स्तर निरंतर वृद्धि को प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त जीवन के अंतिम पड़ाव में सजगता के साथ जीवन पर्यन्त खाने का त्याग कर/संथारा कर गण के गौरव को बढ़ाया है।
आपकी संघनिष्ठा, गुरु निष्ठा सदैव प्रेरणादायी रही है। मजबूत आत्मबल, मनोबल एवं संकल्पबल से ही आपने वीरों का पथ स्वीकार किया है और आपने हिम्मत कर तीसरा मनोरथ अंगीकार किया जिसे देखकर सात्त्विक आह्लाद की अनुभूति हुई। धन्य है ऐसी स्थिति में इतना साहस कर वीर मृत्यु के पथ पर अपने कदम बढ़ाए हैं। और अंत में जीना है मौत को हथेली में रखकर। और मरना है मौत को सुधार कर।।