साध्वी पावनप्रज्ञा पवन वेग से गतिमान बनी
समणी निर्मलप्रज्ञा
संयम की साधना का सार है समाधि में रहना। अनंत काल की पुण्याई से चारित्र की उपलब्धि होती है। जीवन की सफलता का सबसे बड़ा सूत्र हैµअंतर्दर्शन। मुमुक्षु पूज्या ने आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महापज्ञजी के सान्निध्य में समणी जीवन अंगीकार किया। आचार्यश्री महाश्रमणजी की छत्रछाया में साध्वी पावनप्रज्ञा बनी। जिणवयणे अणुस्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण। अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी।। इस आगमवाणी का सहारा लेकर साध्वी पावनप्रज्ञा ने अनशन स्वीकार किया। अनशन की पावन बेला में आत्मा भिन्न शरीर भिन्न की अनुभूति बनी रहे एवं भावों की विशुद्धि के साथ-साथ ऊँचे परिणाम की ओर वर्धमान रहे। आचार्यश्री महाश्रमणजी की यह अमृतवाणी उनके लिए सुरक्षा कवच बन गई। आचार्यश्री के शांति संप्रेषण से साध्वी पावनप्रज्ञा ने तेजस्विता को प्राप्त किया। समता, सहिष्णुता, मिलनसारिता एवं निष्ठापूर्ण जीवन की अनुमोदना करते हुए उनके उन्नत जीवन की मंगलकामना करती हूँ।