आध्यात्मिक विकास के लिए करें संयम की साधना : आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन, 10 नवंबर, 2023
जन-जन को ज्ञान का प्रकाश प्रदान कराने वाले आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि अध्यात्म की साधना में संयम का विकास, संयमपूर्वक चेतनावृत्ति का होना आवश्यक है। जो आदमी संयम की साधना नहीं करता वह अध्यात्म के क्षेत्र में विशेष विकास नहीं कर सकता। अहिंसा, संयम, तप-ये तीन धर्म के आयाम हैं। साधु के तो संयम होना ही चाहिए।
भगवती सूत्र में साधुओं को पाँच भागों में बाँटा है। हजारों-करोड़ों साधु इस सृष्टि में है। साधु अढाई द्वीप के पंद्रह कर्म भूमियों में ही होते हैं। सभी साधुओं में संयम होता है। यहाँ पाँच संयत प्रज्ञप्त है-सामायिक संयत, छेदोपस्थापनिक संयत, परिहार विशुद्धिक संयत, सूक्ष्म, संपराय संयत और यथाख्यात संयत। तीर्थंकर, केवली, आचार्य, उपाध्याय सभी इसमें सम्मिलित हो जाते हैं।
दीक्षा समारोह में पहले सामायिक संयत ग्रहण कराया जाता है। लगभग सात दिनों बाद छेदोपस्थापनीय चारित्र ग्रहण कराया जाता है। महाविदेह क्षेत्र व भरत-ऐरवत के प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के समय को छोड़कर बीच के 22 तीर्थंकरों के समय छेदोपस्थापनीय संयत नहीं आता है। परिहार विशुद्धिक संयत एक विशेष साधना है। सूक्ष्म संपराय संयत दसवें गुणस्थान के साधु के होता है। ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक के तीर्थंकर, केवली वीतराग जो भी यथाख्यात संयम में विराजमान होता है। वर्तमान में यहाँ तो सभी छेदोपस्थापनिक संयत वाले साधु ही हैं। नवदीक्षित की अलग व्यवस्था होती है। चैदहवें गुणस्थान वाले सर्वोच्च स्थान पर विराजमान साधु होते हैं। कम से कम दो हजार करोड़ से भी ज्यादा साधु सृष्टि में विराजमान होते हैं। साधु तो तपोधन-संयमी होते हैं। आज धनतेरस है, गृहस्थ धन की पूजा करते हैं। हम सभी यथाख्यात संयत में आगे बढ़ने का प्रयास करें। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बाह्य तप के बारे में समझाया।