तपस्या से कर्म निर्जरा कर आत्मा को बनाएँ निर्मल : आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन, 24 नवंबर, 2023
तीर्थंकर के प्रतिनिधि परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने नंदनवन के मुंबई चातुर्मास के चार दिन और अवशेष रहे हैं। 28 नवंबर को प्रातः का मुख्य प्रवचन कार्यक्रम करने के पश्चात् पूज्यप्रवर का यहाँ से मंगल विहार हो जाएगा। लगभग पाँच महीने यहाँ के प्रवास के संपन्न होने को हैं। महामनीषी ने आगम वाणी की अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि तप के बाह्य और आभ्यंतर भेदों को मिलाकर कुल बारह प्रकार हो जाते हैं। तप के इन बारह प्रकारों को निर्जरा के बारह भेद भी कहा जा सकता है। सूक्ष्मता से देखें तो तप और निर्जरा में अंतर है। तप कारण है, निर्जरा कार्य है। तप करने से निर्जरा होती है। निर्जरा का साधन तप है। कारण कार्य में अभेद कर लें तो दोनों एक ही हो जाता है।
तप का बारहवाँ प्रकार है-व्युत्सर्ग। व्युत्सर्ग यानी छोड़ना-त्यागना वह दो प्रकार का होता है-द्रव्य और भाव व्युत्सर्ग। पदार्थ को बाहर के रूप में छोड़ना द्रव्य व्युत्सर्ग हो जाता है। द्रव्य व्युत्सर्ग के चार प्रकार बताए गए हैं-गण व्युत्सर्ग, शरीर व्युत्सर्ग, उपधि व्युत्सर्ग और भक्तपान व्युत्सर्ग। गण-संघ को छोड़ देना गण व्युत्सर्ग होता है। पुराने समय में विशेष साधना के रूप में संघ-मुक्त साधना की बात आती है-एकाकी साधना। वर्तमान में यह साधना पद्धति नहीं है। जो साधु योग्य, परिपक्व और पात्र होता उसको गुणमुक्त होकर अकेला साधना करने की भी सहमति आचार्य दे देते थे। साधु या स्वयं आचार्य भी अगर इच्छा कर ले तो वे एकाकी साधना कर सकते थे। परंतु संघ को छोड़ना हो तो पहले वह संघ के उत्तराधिकारी की व्यवस्था कर दे। आचार्य अपने एक शिष्य को तैयार कर दे। वर्तमान में हमारे संघ में ऐसी बात नहीं है।
शरीर व्युत्सर्ग यानी शरीर को छोड़ देना। कायोत्सर्ग करना, शरीर के ममत्व शरीर की पकड़ को छोड़ देना। किसी प्रकार की चिकित्सा न करवाना। उपधि व्युत्सर्ग यानी उपकरणों को छोड़ दो या उपकरणों के प्रति ममत्व नहीं रखना। उपकरणों को कम कर देना। भक्त पान व्युत्सर्ग यानी जब लगे संथारा कर देना, भोजन-पानी को छोड़ देना। शरीर उत्तर दे उससे पहले मैं शरीर को छोड़ दूँ। संलेखना-संथारा कर साधना में लग जाना। शरीरपरक चिंतन को छोड़ आत्मा-परक चिंतन में लग जाएँ। भाव व्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं-कषाय-संसार और कर्म व्युत्सर्ग। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों को छोड़ना। संसार व आठों कर्मों को भी छोड़ देना। संसार में जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाए। पाँचवीं सिद्ध गति प्राप्त हो जाए। हम तपस्या के बारह प्रकारों को यथायोग्य में काम में लें और कर्म निर्जरा कर आत्मा को निर्मल बनाएँ।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि जो स्ट्रोंग होता है, वही स्वयं को मुसीबतों में टिकाए रख सकता है। जो सहता है, वह रहता है, पूज्य होता है। व्यक्ति निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहे। हम अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों परिस्थितियों को सहन करने का प्रयास करें। हर स्थिति में संतुलित रहें। व्यवस्था समिति के स्वागताध्यक्ष सुरेंद्र बोरड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। जैन विश्व भारती से जयंतीलाल ने आचार्य तुलसी अनेकांत सम्मान व गंगादेवी जैन विद्या पुरस्कार की घोषणा की। इस सम्मान पुरस्कार के लिए बनेचंद मालू-कोलकाता एवं जैन विद्या पुरस्कार-मुंबई प्रवासी प्रेमलता सिसोदिया के नाम की घोषणा की। ये पुरस्कार कोलकाता के महादेव लाल गंगादेवी सरावगी ट्रस्ट द्वारा प्रदान किया जाता है। बनेचंद मालू का परिचय दिया गया। बनेचंद मालू ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
प्रेमलता सिसोदिया का भी परिचय दिया गया। प्रेमलता सिसोदिया ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कमला देवी बांठिया जो बनेचंद मालू की बहन हैं, उन्होंने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की।पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया कि जिसके जीवन में सद्गुण होते हैं, वह महत्त्वपूर्ण है। बनेचंद मालू तेरापंथ विकास परिषद के सदस्य हैं। आध्यात्मिक विकास होता रहे। प्रेमलता भी जैन विद्या का अच्छा कार्य चलाती रहें। अध्यात्म की ज्योति प्रज्जवलित होती रहे। पूज्यप्रवर ने दोनों को आशीर्वचन फरमाया। व्यवस्था समिति एवं टीपीएफ द्वारा दोनों का सम्मान किया गया। आचार्य महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति द्वारा अध्यक्ष मदनचंद तातेड़ एवं स्वागताध्यक्ष सुरेंद्र बोरड़ का सम्मान किया गया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।