उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)
प्रस्तुति
ध्यान

आज का युग वैज्ञानिक युग है। वैज्ञानिक युग की विशेषता है कि कसौटी और परीक्षण के बाद ही किसी सचाई को स्वीकार किया जाता है। इस युग में धर्म के सामने भी प्रश्न है-धर्म को कसौटी पर कसा जाए। जो परंपरा से चल रहा है, श्रद्धा से स्वीकारा जा रहा है, क्या वह बुद्धिवाद और तर्कवाद की कसौटी पर खरा उतर सकता है? यदि बुद्धि और तर्क की कसौटी पर खरा उतरे तो वह मान्य होगा, ग्राह्य होगा। जो बुद्धि और तर्क से कतराए, वह धर्म एक प्रबुद्ध आदमी के लिए ग्राह्य नहीं बन पाएगा। वह धर्म स्वीकार्य हो सकता है, जो प्रयोग-सिद्ध हो, जिसका अन्वेषण किया जा सके। जो अन्वेषण और अनुसंधान से परे की बात है, उसे केवल काल्पनिक कहा जाता है।
आवश्यक है अन्वेषण
कल्पना प्रत्येक बात की हो सकती है। व्यक्ति मनचाही आकाशी उड़ान भर सकता है। कल्पना एक बात है, उसे यथार्थ के धरातल पर प्रस्थापित करना बिलकुल दूसरी बात है। जिसका अन्वेषण और अनुसंधान हो सके, उसे ही यथार्थ के धरातल पर प्रस्थापित किया जा सकता है। अन्वेषण बहुत आवश्यक है। आज के प्रबुद्ध व्यक्ति का चिंतन है-बुद्धि, तर्क और अन्वेषण यानी वैज्ञानिक प्रयोग, इन तीन कसौटियों के द्वारा धर्म को परखा जाए। उसके बाद उसे स्वीकार किया जाए। क्या धर्म को अज्ञान के घेरे में रहना है? यदि वह अज्ञान के घेरे में रहेगा तो कभी भी चिरजीवी नहीं बन पाएगा। चिरजीविता के लिए आवश्यक है अज्ञान के घेरे को तोड़कर ज्ञान में प्रतिष्ठित किया जाए। ज्ञान में प्रतिष्ठित करने के लिए बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसना होगा, अन्वेषण की कसौटी से परखना होगा। विज्ञान इसीलिए सर्वमान्य और लोकप्रिय बना है क्योंकि वह अन्वेषण के साथ चलता है। सत्य को प्रयोगशाला में परखा जाता है, प्रयोग किया जाता है। धर्म के लिए प्रयोगशाला की जरूरत है, प्रयोग की जरूरत है। जो प्रयोग होता है, वह देशावधि और कालावधि से अनुस्यूत होता है किंतु उससे जो निष्कर्ष आएगा, वह देशातीत और कालातीत होगा। फिर चाहे वह प्रयोग हिंदुस्तान में करें, अमेरिका या रूप में करें, दुनिया के किसी भी कोने में करें, प्रयोग का निष्कर्ष समान होगा।
विकास का माध्यम है ध्यान
आज अपेक्षा है-धर्म का भी प्रयोग हो। प्रयोग की एक शृंखला है। ध्यान एक प्रयोग है। यह प्रयोग धर्म के क्षेत्र में अन्वेषण को स्थान देता है। धर्म की खोज करो, वह माना हुआ नहीं, जाना हुआ सच है। केवल इंद्रियों के स्तर पर धर्म को नहीं समझा जा सकता। इंद्रिय चेतना के स्तर पर धर्म की आवश्यकता और उपयोगिता का बोध नहीं होता। उसकी सार्थकता को समझने के लिए अतीन्द्रिय चेतना के स्तर पर जाना होता है। अतीन्द्रिय चेतना और अंतर्दृष्टि के विकास का माध्यम है-ध्यान। ध्यान के द्वारा हम बाहरी वृत्तियों से हटकर अंतर्जगत् में चले जाते हैं। वहाँ हमारी प्रतिभा का विकास होता है, अंतर्दृष्टि का विकास होता है। अंतर्दृष्टि के द्वारा धर्म को जाना जा सकता है।
समीक्षा प्रज्ञा से
गौतम ने केशी से कहा-‘पण्णा समिक्खए धम्मं।’ धर्म की समझ और समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा होती है। प्रज्ञा जाग गई, धर्म समझ में आ जाएगा। प्रज्ञा नहीं जागी, धर्म समझ में नहीं आएगा। यद्यपि बुद्धि और तर्क को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, उनका भी सहारा लिया जाता है, किंतु वास्तविकता यह है कि बुद्धि और तर्क से परे है प्रज्ञा का विकास? यहीं वास्तव में धर्म की समझ प्राप्त होती है। प्रज्ञा जागरण का शक्तिशाली साधन है-ध्यान।
बहिर्मुखी: अंतर्मुखी
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक युग ने व्यक्तियों को दो भागों में बाँटा-बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। अंतर्मुखी हुए बिना धर्म की बात को समझा नहीं जा सकता। बहिर्मुखी वह है, जो केवल पदार्थोन्मुखी है। उसे केवल पदार्थ ही पदार्थ दिखाई देता है। जीवन की सार्थकता का प्रश्न पदार्थ से जुड़ जाता है। पदार्थ का मिलना, उसका भोग करना-इससे अधिक जीवन की कोई सार्थकता नहीं होती। एक व्यक्ति वह होता है, जो अंतर्जगत् को देखता है, चेतना के जगत् को छूता है। उसका चिंतन होता है-पदार्थ को जानने वाला आखिर कौन है? वह चेतना ही है, जो पदार्थ को जान रही है, उपयोग में ले रही है। वह चेतना को अस्वीकार नहीं करता, उसे परदे के पीछे नहीं ढकेलता। वह चेतना के साथ चलता है, अंतर्मुखी बन जाता है।
ध्यान का अर्थ है ही अंतर्मुखी होना, चेतन मन को सुलाकर अवचेतन मन को जगा देना। मनोविज्ञान की भाषा है-बाह्य मनोवृत्तियों को सुलाकर आंतरिक चेतना को जागृत करना। एकाग्र होना, श्वास पर ध्यान देना-ये ध्यान के माध्यम हैं। मूल ध्यान है-हमारी चेतना का रास्ता बदल जाए। जो चेतना निरंतर पदार्थ की ओर जा रही है, वह पदार्थ से हटकर भीतर की ओर जाने लग जाए। यह मार्गान्तरीकरण ही वास्तव में ध्यान है।
ध्यान का हेतु
एक प्रश्न है-ध्यान का हेतु क्या है? ध्यान क्यों करें? तत्त्वानुशासन में कहा गया-
वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं, गैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता।
परीषहजयश्चेति, पंचैते ध्यानहेतवः।।
ध्यान के पाँच हेतु हैं-वैराग्य, तत्त्वविज्ञान, निग्र्रन्थता, समचित्तता और परीषह-जय।
यशस्तिलक में योग के प्रकारांतर से ये ही पाँच हेतु बतलाए हैं।
वैराग्यं ज्ञानसंपत्तिः असंगः स्थिरचित्तता।
ऊर्मिस्मयसहत्वं च, पंच योगस्य हेतवः।।
वैराग्य
ध्यान का पहला हेतु है वैराग्य। यदि राग कम नहीं हुआ, वैराग्य नहीं जगा तो मानना चाहिए कि ध्यान फलित नहीं हुआ। जो ध्यान करते हैं, उन्हें यह निरीक्षण करना चाहिए कि ध्यान से राग कम हो रहा है या नहीं? यह ध्यान की एक कसौटी है। व्यक्ति श्वास को देखता चला गया, चैतन्य-केंद्र-प्रेक्षा करता चला गया किंतु विराग नहीं बढ़ा तो मानना चाहिए, ध्यान का वांछित परिणाम नहीं आया। ध्यान की पहली कसौटी या लाभ है वैराग्य। पदार्थ के प्रति राग का कम होना, तृष्णा का कम होना, इसका नाम है वैराग्य। तृष्णा कम हो गई, प्यास कम हो गई। ऐसा पानी पीया कि प्यास बुझ गई। व्यक्ति ध्यान भी करता चला जाए, प्यास भी उतनी ही रहे, तो ध्यान का परिणाम क्या रहा?
तत्त्वविज्ञान
ध्यान की दूसरी कसौटी है तत्त्वविज्ञान। ध्यान करने वाले व्यक्ति में तत्त्वों का ज्ञान बढ़ना चाहिए। तत्त्वविज्ञान वह है, जिसमें भीतर से सच्चाइयाँ प्रकट होने लग जाएँ। जैसे-जैसे ध्यान परिपक्व होता है, भीतरी सचाइयाँ प्रकट होती हैं। सही क्या है और गलत क्या है? इसका निर्णय और बोध होना, ध्यान की दूसरी कसौटी है। भगवान् महावीर, बुद्ध आदि महान् पुरुषों ने सचाइयों को जाना, वह किस आधार पर जाना? क्या उनके सामने प्रयोगशाला थी? क्या उनके सामने यंत्र थे? उन्होंने केवल ध्यान के बल पर तत्त्वों का प्रतिपादन किया। जितने भी अवतार, पैगंबर, महापुरुष या धर्म के प्रवर्तक हुए हैं, उन्होंने स्वयं साधना से जिन सचाइयों को पाया, उनका प्रतिपादन किया। जानने का सबसे शक्तिशाली साधन है-ध्यान और समाधि।
निग्र्रन्थता
ध्यान की तीसरी कसौटी है निग्र्रन्थता, अनासक्ति। ध्यान करने वाले को निरंतर सोचते रहना चाहिए कि ध्यान के द्वारा मूच्र्छा कम हो रही है या नहीं, मोह घट रहा है या नहीं? ध्यान का लाभ है मूच्र्छा का कम होना। एक भाई ने कहा-ध्यान करते-करते मेरा मन अनासक्त जैसा हो रहा है। किसी के प्रति आकर्षण नहीं रहा। कहीं ऐसा न हो, मुझे दुकान ही बंद करनी पड़ जाए। मैंने कहा-इतना खतरा तो नहीं है कि दुकान बंद करनी पड़ जाए किंतु इतना अवश्य हो सकता है-कमाई करने में जो आसक्ति है, वह कम हो जाएगी। आसक्ति कम होगी तो तुम दूसरों के साथ क्रूर व्यवहार नहीं कर सकोगे। व्यापार की जो समस्याएँ और बुराइयाँ हैं, उनसे अपने आप बच जाओगे। जैसे-जैसे ज्ञान का विकास होता है, मूच्र्छा और आसक्ति कम होती है, आदमी बुराई से बचता है।
रास्ता बंद नहीं होता
अष्टावक्र महान ऋषि हुए हैं। एक बार ऐसा हुआ-राजा की सवारी निकलने वाली थी। उससे पहले ही सारे रास्ते बंद कर दिए। आजकल भी ऐसा होता है, कोई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या राज्यपाल आता है, सारे रास्ते पहले से ही बंद कर दिए जाते हैं। अष्टावक्र को आरक्षणों ने रोक दिया-आप इस रास्ते से नहीं जा सकते। अष्टावक्र ने कहा-क्या रास्ता कभी बंद होता है? रास्ते का मतलब ही है चलना। रास्ता सबके लिए होता है। दरवाजा बंद हो सकता है, खिड़कियाँ बंद हो सकती हैं, पर रास्ता कभी बंद नहीं हो सकता। मैं इस रास्ते से ही जाऊँगा। आरक्षक समस्या से घिर गए। वे अष्टावक्र को रोक भी नहीं सकते थे। अष्टावक्र सीधे जनक के पास पहुँचे। जनक ने अभिवादन किया। अष्टावक्र बोले-राजन्! यह क्या? एक आदमी की सुविधा के लिए हजारों मनुष्यों को कठिनाई में डाल दिया जाए? रास्ता बंद होगा तो व्यक्ति कहाँ से जाएगा? यह अन्याय है। राजा जनक सन्न रह गया। उसने तत्काल आदेश दिया-रास्ते बंद मत करो, सबके लिए आवागमन शुरू कर दो।
जिस व्यक्ति को यह पता होता है-क्या उचित है और क्या अनुचित? वह कभी घबराता नहीं है। जो अनासक्ति का जीवन जीता है, उसे कभी डर या चिंता नहीं सताती। वही व्यक्ति वास्तव में मार्गदर्शन देने का अधिकारी होता है, जिसने संग-आसक्ति को त्याग दिया है। यह निग्र्रन्थता या अनासक्ति ध्यान से उपलब्ध हो सकती है।

(क्रमशः)