संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
 
(पिछला शेष)  आवेग-विरोधµयह प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि वह क्रोध आदि आवेगों का वशवर्ती बन अनेक अप्रिय कार्य कर लेता है, जिसका परिणाम स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए भी दुःखद बन जाता है। पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक जीवन भी आवेगों से अछूता नहीं है। छोटे-बड़े सभी पर इसकी छाया है। बड़े व्यक्तियों का आवेग बड़े पैमाने पर सर्जित होता है, जिसका नतीजा भी बड़ा होता है। कलह, कदाग्रह, युद्ध आदि इसके प्रत्यक्ष निदर्शन हैं। आवेग का संयम बहुत कम व्यक्ति कर पाते हैं। मैं इसके प्रति सहज रहूँगा और इसके वशवर्ती नहीं बनूँगाµइस भावना से इसका निरोध कर इस पर विजय पाई जा सकती है।
शिथिलीकरण और संकल्प शक्तिµइनका प्रयोग भी मन को सबल बनाने में नितांत सहयोगी बनते हैं। शरीर को तनाव-मुक्त करना, रिलेक्स करना आटो-सजेशनµस्वतः सूचना के द्वारा-शरीर के प्रत्येक अंग तनाव मुक्त हो रहे हैं। इस सूचना के साथ मन भी जुड़ा हुआ हो और हमारा ध्यान भी शरीर के प्रत्येक अंग के प्रति सजग रहे तो धीरे-धीरे शरीर और मन दोनों शिथिल हो जाते हैं। शरीर मन का अनुगामी है। जैसा उसको मन सूचित करता है, वह उसी प्रकार ढल जाता है। इससे सहज ही मन की सबलता संवर्धित हो जाती है।
संकल्प शक्ति के अभ्यास से भी मन की दुर्बलता का निवारण होता है। व्यक्ति जैसी भावना करता है वह वैसा ही बन जाता है। मन शक्तिशाली हो रहा है, भय, कायरता व दुर्बलता दूर हो रही हैµऐसी भावना करनी चाहिए। मन में कभी भी क्षदु विचारों का प्रवेश नहीं होने देना तथा नकारात्मक भावों से दूर रखना, मन को सशक्त बनाने के सहज सिद्ध प्रयोग हैं।
 
भगवान् प्राह
(52) चिन्ताशोकभयक्रोधैः, आवेगैर्विविधैश्चिरम्।
संवेदनविचारैश्च, दुर्बलं जायते मनः।।
 
भगवान् ने कहाµचिंता, शोक, भय, क्रोध आदि विविध आवेग, चिरकालीन संवेदन और चिरकालीन विचारµये मन को दुर्बल बनाते हैं।
 
(53) दीर्घश्वासस्तथा चित्तस्यैकाग्रसन्निवेशनम्।
विचाराणां विरोधो वा, संवेदननियंत्रणम्।।
 
(54) आवेगानां सन्निरोधः, शिथिलीकरणं तथा।
संकल्पशक्तेरभ्यासः, मनोबलनिबंधनम्।। (युग्मम्)
 
दीर्घश्वास, चित्त का एक आलंबन पर सन्निवेश, विचारों का निरोध, संवेदन-नियंत्रण, आवेग का निरोध, शिथिलीकरण और संकल्पशक्ति का अभ्यासµये मनोबल को बढ़ाने के उपाय हैं।
 
(55) आत्मनः स्वात्मना प्रेक्षा, धम्र्यध्यानमुदीरितम्।
प्रकृष्टां भूमिमापन्नं शुक्लध्यानमिदं भवेत्।।
 
आत्मा के द्वारा आत्मा की प्रेक्षा को धम्र्यध्यान कहा गया है। प्रेक्षा जब उत्कृष्ट भूमि पर चली जाती है, तब शुक्लध्यान कहलाती है।
प्रेक्षा का अर्थ हैµनिर्विकल्प रूप से देखना, जिस देखने में राग-द्वेष न हो, संकल्प-विकल्प न हो, मात्र देखना ही हो, वह है प्रेक्षा। अपने द्वारा अपने कोµआत्मा को देखना है। आत्मा की अनुभूति या साक्षात् उस शांत व निर्विकल्प अवस्था में ही होता है। फिर जो भी साधन हैµप्रयोग हैं वे सब आत्मा से ही सन्निविष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक प्रयोग लंबे अंतराल के बाद मन को अ-मन करते हैं। अ-मन अवस्था में द्रष्टा साक्षीरूप में खड़ा होता है और यह पकड़ सुदृढ़ होने पर सहज ही आत्मा की स्फुरणा होने लगती है। समाधि या आत्मानुभव की प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर स्थिति शुक्लध्यानµ(ध्यान की उच्च-उच्चतम अवस्था) में परिणत हो जाती है।
 
(56) व्याधिमाधिमुपाधि×च, समतिक्रम्य यत्नतः।
समाधिं लभते प्रेक्षाध्यानसिद्धिपरायणः।।
 
प्रेक्षाध्यान की सिद्धि में परायण व्यक्ति व्याधि, आधि और उपाधि का प्रयत्नपूर्वक अतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होता है।
प्रेक्षाध्यान की साधना में संलग्न साधक उत्तरोत्तर विकास करते हुए समाधि में स्थित हो जाता है। समाधि ध्यान की वह अवस्था है जहाँ मन, वाणी, शरीर, भावधारा आदि सब शांत हो जाते हैं। ऐसी निष्पन्न स्थिति का साधक ‘साधो! सहज समाधि भली’ कबीर की इस वाणी में जीने लगता है। वह व्याधि (शारीरिक कष्ट) आधि (मानसिक दुःख) और उपाधि (भावनात्मक कष्ट)µइन सबका सहज ही अतिक्रमण कर जाता है।
ध्यान का प्रारंभ काय-स्थिरता से होता है। शरीर अस्थिर है, चंचल है तो हमारा मन भी स्थिर नहीं होता। साधक के लिए शरीर का स्थैर्य साधना भी आवश्यक है। अनुभवी पुरुषों ने कहा हैµतीन घंटा एक आसन में स्थिर बैठने से आसन सिद्ध होता है। सिद्ध आसन का होना ध्यान के लिए उत्तम है। शरीर की अस्थिरता मन को एक विषय में केंद्रित नहीं होने देती। विकेन्द्रित मन शक्ति के ऊध्र्वगमन में अवरोधक है।
काया की स्थिरता के लिए कायोत्सर्ग और काय-गुप्ति का अभ्यास अपेक्षित है। काय-गुप्ति का अर्थ हैµशरीर की हलन-चलन का गोपन-संयम। अभ्यास के द्वारा इसे साधा जा सकता है। दृढ़ अभ्यास से स्थिरता सिद्ध हो जाती है। कायोत्सर्ग शरीर को स्थिर करता है और साथ-साथ भेदविज्ञान का हेतु भी बनता है। काय-उत्सर्ग इन दो शब्दों के संयोग से कायोत्सर्ग बनता है। जिसका अर्थ हैµशरीर का विसर्जन करना, शरीर के प्रति कुछ समय उदासीन हो जाना, शरीर के स्पंदनों-गति आदि को पूर्णतया शांत कर देना। महर्षि रमण के जागरण का मूल केंद्र-बिंदु यही प्रयोग बना। उन्होंने देखाµशरीर मृतवान् पड़ा है। मैं उसे देख रहा हूँ। द्रष्टा भिन्न और दृश्य भिन्न है। दोनों एक नहीं हैं। दोनों के एकत्व की ग्रंथि खुल गई और वे सम्यक् बोध को प्राप्त हो गए।
देह की स्थिरता से आस्रवµकर्म आगमन का मार्ग पतला होता है, द्वार बंद होने लगता है। कर्म का आगमन ही संसार का मूल है। कर्म-वासना की क्षीणता से संसार क्षीण होता है। देह की स्थिरता साधना में कितनी अपेक्षित है, इससे यह स्वतः सिद्ध होती है।
 
(57) कायोत्सर्गः कायगुप्तिः देहस्थैर्याय जायते।
स्थैर्यं सम्यक् गते काये, आस्रवः प्रतनुर्भवेत्।।
 
कायोत्सर्ग और कायगुप्ति देह की स्थिरता के लिए है। काया के भली-भाँति स्थिर होने पर आस्रव पतला हो जाता है।
 
(58) श्वासादीनां च संप्रेक्षा, मनः संयममाव्रजेत्।
ऐकाग्रये सघने जाते, ध्यानं स्यान्निर्विकल्पकम्।।
 
श्वास आदि की संप्रेक्षा से मन का संयम प्राप्त होता है। मन की एकाग्रता के सघन होने पर निर्विकल्प ध्यान सिद्ध हो जाता है।
निर्विकल्प ध्यान के लिए सघन एकाग्रता की अपेक्षा रहती है। श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, सुषुम्मा नाड़ी-स्थित चैतन्य केंद्रों (चक्रों) पर, अंतर्मौन आदि किसी भी एक आलंबन पर लंबे समय तक मन को स्थिर करने से सधती है, इसलिए साधक में तीव्र साधना की पिपासा हो, उन्हें एक ही प्रयोग पर अधिक श्रम करना चाहिए, उसे ही अपना ध्यान-बिंदु बनाना चाहिए, इससे निश्चित ही निर्विकल्प की सिद्धि होती है तथा अनेक अनुभवों की प्राप्ति भी होती है।
 
(59) अध्यवसायः सूक्ष्मा चित्, लेश्या भावः ततः स्फुटम्।
चित्तं स्थूलशरीरस्थं, इमाः चैतन्यभूमयः।।
 
अध्यवसाय सूक्ष्म चेतना है। लेश्या अथवा भाव की चेतना उससे प्रस्फुट-व्यक्त है। स्थूल शरीर में काम करने वाली चेतना चित्त है। ये चैतन्य की भूमिकाएँ हैं।
चेतना एक है। वह अनावृत नहीं है इसलिए उसकी रश्मियाँ सीधी प्रसारित नहीं हैं। उसे माध्यम चाहिए। वह कई माध्यमों से प्रकट होती है। उसके सबसे निकट का सूक्ष्मतम माध्यम हैµअध्यवसाय। चेतना की पहली हलचल का यही उद्गम है। अध्यवसाय अथाह जलराशि के नीचे बुदबुदे के रूप में उठने वाला प्रथम स्पंदन है। उसका आकलन करना दुःसाध्य है। उसके बाद वह लेश्या और भाव के रूप में प्रस्फुट होता है। कृष्ण, नील, लाल, सफेद आदि रंगों के रूप से पहचाना जाने वाला परिणाम लेश्या है। भाव उससे कुछ ओर अधिक व्यक्त है, किंतु इन दोनों का बोध साधारण जनों के गम्य नहीं है। हालाँकि वैज्ञानिक उपकरणों ने इसे पकड़ने का प्रयास किया है, सफलता भी प्राप्त की है।
चित्त चेतना का स्पष्ट रूप है। स्थूल शरीर में वही काम चित्त से ही मन द्वारा संचालित होता है। वाणी और शरीर पर नियमन करने वाला मन है। चेतना की ये भूमिकाएँ हैं।
अध्यवसाय शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार का है। अशुद्ध अध्यवसाय से आगे का समग्र ज्ञान अशुद्ध रूप में ही कार्यशील होता है। रजस् और तमस् के रूप में इनकी परिणति देखी जा सकती है। अशुद्ध वृत्तियाँ जीवन विकास में सहगामी नहीं बनती। अशुद्ध जीवन वर्तमान और भविष्य दोनों के आनंद को लीलने वाला होता है। साधक का पहला कार्य है कि वह अशुद्ध अध्यवसायों को प्रशस्त करने का प्रयत्न करें। अध्यवसाय शुद्धि के बिना न मन की शुद्धि होती है, न भाव की और न लेश्या की। साधक को इसे स्मृति में रखना चाहिए कि मुझे सबसे पहले मन को पवित्र-विशुद्ध बनाना है। मन के विशद-प्रशस्त होने के साथ समूचा तंत्र शुद्धि की दिशा में गतिशील हो जाता है। संत कबीरर ने कहा हैµ
कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पीछे पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर।।
यही, इसी सत्य का चित्रण है।
(क्रमशः)