उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)
प्रस्तुति
ध्यान

समचित्तता
ध्यान की चैथी कसौटी है समचित्तता। सुख-दुःखµइन सारे शब्दों में संतुलन बनाए रखना समचित्तता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम लाभ और अलाभ को समान मानें। लाभ और अलाभ को सम कैसे मान सकते हैं? हुआ है लाभ, मान लेते हैं अलाभ। यह भी न्याय नहीं है। समचित्तता संतुलित और सम रहे। लाभ होने पर अहं न हो और अलाभ होने पर विषाद न हो। सामान्य स्थिति यह हैµलाभ होने पर मनुष्य ज्यादा अकड़ में आ जाता है, अलाभ होने पर अधिक निराश हो जाता है। जब बहुत लाभ होता है, आकाश ही दिखाई देता है। धरती नहीं। जब अलाभ होता है, आकाश दिखना बंद हो जाता है, केवल धरती ही दिखाई देती है। यह स्थिति पैदा नहीं होनी चाहिए। हम आकाश को भी देखें, धरती को भी देखें। जो नीचा है, उसे भी देखें, जो ऊपर है, उसे भी देखें, अपनी स्थिति को संतुलित रखें। यह बहुत कठिन साधना है। दोनों स्थितियों में समचित्तता का निर्णय ध्यान के द्वारा ही संभव है। वह इसलिए है कि ध्यान के द्वारा चित्त का निर्माण होता है, पुराने संस्कार क्षीण होते हैं, नए संस्कारों की स्थापना होती है। जब तक चित्त का निर्माण नहीं होता, समचित्तता नहीं आती।
मानदंड प्रतिष्ठा का
एक प्रश्न होता हैµप्रतिष्ठा का मानदंड क्या है? दूसरे लोग अच्छा मानें, सम्मान दें, यह प्रतिष्ठा का मानदंड है। दूसरे लोग ठीक नहीं मानते हैं, अधिमान नहीं देते हैं, यह प्रतिष्ठा की कमी का सूचक है। दूसरे लोग अच्छा मानते हैं, इसलिए मैं अच्छा हूँ। दूसरे लोग अच्छा नहीं मानते, इसलिए मैं अच्छा नहीं हूँ। व्यक्ति का अपना कोई मानदंड नहीं होता। जब तक यह मानदंड रहता है, समचित्तता का प्रश्न ही नहीं उठता। व्यक्ति यह सोचेµइसके लाभ से मेरा हित हुआ है या अहित, इसके चले जाने से हित हुआ या अहित? मुझे कुछ मिला और आत्मा का अहित हुआ तो यह मेरे लिए काम की बात नहीं है। धन चला गया, पदार्थ चला गया, किंतु उसके जाने से आत्मा का अहित नहीं हुआ। जब इस भूमिका पर चित्त का निर्माण होता है, तब व्यक्ति लाभ और अलाभ में सम रह सकता है। जब तक हम दूसरों के आधार पर निर्णय करें, समचित्तता की स्थिति घटित नहीं होगी। हम उस चित्त का निर्माण करें, जो पदार्थ से हटकर आत्मस्थ बने। हमारा मानदंड और कसौटी स्वयं की आत्मा का हित या अहित हो। इस स्थिति में समचित्तता का भाव विकसित होगा। गीता का शब्द हैµस्थितप्रज्ञ। दशवैकालिक सूत्र का शब्द हैµस्थितात्मा। यह ध्यान का बहुत बड़ा फल है।
परीषह-जय
ध्यान की पाँचवीं कसौटी है परीषह-जय। जैसे-जैसे ध्यान की स्थिरता बढ़ती है, वैसे-वैसे कष्ट सहने की क्षमता बढ़ती चली जाती है। भगवान् महावीर ने कितने कष्ट सहे। देवताओं द्वारा मारणान्तिक कष्ट दिए गए। उन कष्टों को सुनकर आश्चर्य होता है। महावीर ने वे कष्ट सहे थे ध्यान की अवस्था में। हम ध्यान की अवस्था से परे हटकर देख रहे हैं इसलिए हमें आश्चर्य होता है। यदि हम ध्यान की अवस्था में चले जाएँ तो फिर हमें आश्चर्य नहीं होगा। जो व्यक्ति ध्यान के द्वारा आत्मा की लीनता में चला जाता है, उसे शारीरिक कष्ट का भान भी नहीं होता। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैंµव्यक्ति ध्यान में लीन हो गया, डाॅक्टर ने आॅपरेशन कर दिया, ऐनेस्थेसिया का प्रयोग नहीं करना पड़ा। सम्मोहन और मूच्र्छा का प्रयोग किए बिना आॅपरेशन का कष्ट सहा जा सकता है। इसका रहस्य यह हैµशल्यक्रिया शरीर में होती है और व्यक्ति चेतना के भीतर चला जाता है। शरीर में होने वाला कष्ट चेतना का स्पर्श ही नहीं कर पाता।
प्रभाव भक्ति का
आजकल कष्ट निवारण के लिए पेनकिलर का प्रयोग होता है। आज यह अनुसंधान हो रहा हैµहमारे शरीर में भी पेनकिलर हैं। एंडोरफिन जैसे रसायन हैं, जिन्हें सक्रिय कर पाएँ तो कष्ट सहना संभव हो जाए, उसके लिए शल्यक्रिया की जरूरत ही न पड़े। हमारे मस्तिष्क में एंडोरफिन रसायन पैदा होता है। जो काम मरफिया का इंजेक्शन करता है, वही काम एंडोरफिन करता है। वह रसायन कब पैदा होता है? जो व्यक्ति भक्ति में लीन हो गया, गहराई में चला गया, उसके एंडोरफिन पैदा हो जाएगा, यह कष्ट को कम कर देगा, ऐसे अनेक लोगों को देखा है, जिनको बड़ा कष्ट था, कैंसर जैसी भयंकर बीमारी थी, उन्हें तीर्थंकरों की स्तुति, चैबीसी, आराधना आदि गीत सुनाए जाते, वे अपने भयंकर कष्ट को भूल जाते। इन गीतों-भजनों में लीन हो जाते। उन्हें यह बोध ही नहीं रहताµमैं किसी भयंकर बीमारी से ग्रस्त हूँ। दर्द कहाँ चला जाता है? कारण यही हैµभक्ति में लीन हुआ, एंडोरफिन की मात्रा बढ़ गई और कष्ट शांत हो गया। भक्ति, तत्त्वज्ञान, गहरा समर्पण, ध्यानµये कठिनाइयों को मिटा देते हैं, कष्ट-सहन करने की क्षमता को बढ़ा देते हैं।
आज की भाषा
वैराग्य, तत्त्वविज्ञान, निग्र्रन्थता, समचित्तता और परीषह-जयµये ध्यान के पाँच हेतु हैं। ध्यान
के पाँच परिणाम ये हो सकते हैंµ(1) तनावमुक्ति, (2) मनःप्रसाद, (3) संवेग-नियंत्रण, (4) संतोष,
(5) अंतर्दृष्टि का विकास।
तनावमुक्ति
ध्यान का एक लाभ हैµतनावमुक्ति। तनाव कम हो रहा है तो मानना चाहिए ध्यान सध रहा है। तनाव कम नहीं हो रहा है तो ध्यान भी सध नहीं रहा है। ध्यान की यह एक कसौटी है।
मनःप्रसाद
ध्यान का दूसरा लाभ हैµमनःप्रसाद। मन की प्रसन्नता हो रही है या नहीं? अनेक व्यक्ति उदास और गमगीन रहते हैं। मानना चाहिए, उनके ध्यान सधा नहीं है। हर्ष और शोक इन दोनों से परे की स्थिति है प्रसन्नता।
संवेग-नियंत्रण
ध्यान का तीसरा लाभ हैµसंवेग-नियंत्रण। क्रोध आदि पर नियंत्रण हो रहा है या नहीं? यदि नियंत्रण हो रहा है, आवेश में कमी आ रही है तो ध्यान की सार्थकता है। वर्षों तक ध्यान करते रहें और आवेश वैसा ही बना रहे, प्रकृति में कोई परिवर्तन न आए तो ध्यान की निष्पत्ति पर प्रश्नचिÐ लग जाता है। आवेश की न्यूनता ध्यान की एक कसौटी है।
संतोष
ध्यान का चैथा लाभ हैµसंतोष। आदमी संतुष्ट होता ही नहीं है। एक प्रमुख बीमारी है असंतोष। किसी से भी पूछा जाए, मिल मालिक हो या मजदूर, पिता हो या पुत्र, असंतोष सर्वत्र मुखर है। विद्यार्थी भी असंतुष्ट है और प्राध्यापक भी असंतुष्ट है। ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो हर स्थिति में संतुष्ट रहते हैं। असंतोष और शिकायत करने वालों की कोई सीमा रेखा नहीं है। इससे मुक्ति मिल जाए, असंतोष मिट जाए, यह ध्यान की बड़ी उपलब्धि है।
अंतर्दृष्टि का विकास
ध्यान का पाँचवाँ लाभ हैµअंतर्दृष्टि का विकास। हम केवल बाह्यदृष्टि के भरोसे न चलें। उसके माध्यम से व्यक्ति चलता भी है, किंतु ध्यान का परिणाम है अंतर्दृष्टि का विकास। अनेक लोग इस भाषा में बोलते हैंµयह मेरी आत्मा की आवाज है। व्यक्ति की चेतना में राग-द्वेष भरा है, कहाँ से आएगी आत्मा की आवाज? जब राग-द्वेष से छुटकारा मिलेगा, तब यह कहने का अधिकार मिलेगाµयह मेरी आत्मा की आवाज है। जिसने भीतर झाँकना सीखा ही नहीं है, भीतर की आवाज कहाँ से आएगी? ध्यान की कसौटी है अंतर्दृष्टि का विकास।
जब व्यक्ति ध्यान शुरू करता है, उसकी गहराई में जाता है, ये सारे परिणाम प्राप्त होने लग जाते हैं। यह अनुसंधान का एक महान् प्रयोग है। इससे जो निष्पत्ति आती है, जो अनुभव मिलता है, वह तर्क और बुद्धि से परे है।
नास्तिक से आस्तिक
जैन विश्व भारती में प्रेक्षाध्यान का शिविर था। एक युवक ने कहाµमैं आत्मा को नहीं मानता, मेरा आत्मा में कोई विश्वास नहीं है। क्या मुझे शिविर में प्रवेश मिलेगा? मैंने कहाµतुम आत्मा को मानो या न मानो। शिविर में ध्यान कर सकते हो। दस दिन का शिविर संपन्न हुआ। मैंने उस युवक से पूछाµभाई! शिविर कैसा रहा? उसने कहाµमैं नास्तिक बनकर आया था। आस्तिक बनकर जा रहा हूँ। जब मैं आया, तब आत्मा को सर्वथा अस्वीकार करता था। अब ऐसा लगता है, आत्मा है अवश्य।
यह सचाई कैसे मिली? इसका हेतु है अंतर्दृष्टि का विकास। जब अंतर्दृष्टि जाग जाती है, धर्म स्वयं एक सहज प्रेरणा बन जाता है, मनुष्य धर्म में रस लेने लग जाता है। बुद्धि और तर्क के इस युग में ध्यान का आलंबन लेना, ध्यान के द्वारा अनुभूति के स्तर पर पहुँचना आवश्यक है। जैसे-जैसे अनुभव जाएगा, बुद्धि और तर्क नीचे रह जाएँगे, धर्म स्वयंसिद्ध, प्रामाणिक और हमारे लिए सदा उपयोगी बन जाएगा।

मैत्री
मैत्री शब्द बहुत मीठा है। मित्र सबको अच्छा लगता है, शत्रु अच्छा नहीं लगता। मनुष्य इस आशंसा से जीता है कि मेरे अधिक से अधिक मित्र बनें। राग और द्वेषµइन दोनों से परे है मैत्री। व्यवहार के क्षेत्र में इस शब्द का बहुत प्रयोग होता है। नीतिकारों ने मैत्री शबद की विवेचना की है। अध्यात्म के क्षेत्र में मैत्री का स्वतंत्र आशय है।
मैत्री का स्रोत
‘सबके साथ मैत्री करो’ यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है किंतु जब तक मैत्री की प्रक्रिया और मैत्री का दर्शन स्पष्ट नहीं होता, तब तक ‘मैत्री करो’ की बहुत सार्थकता और सफलता नहीं होती। मैत्री का संबंध है जन्म-मरण के साथ। कहा गयाµजब तक जन्म-मरण का चक्र सामने नहीं होगा, मैत्री का स्रोत नहीं प्रवाहित होगा, मैत्री फलित नहीं होगी। बाहर से कुछ थोपा हुआ-सा लगेगा, भीतर का झरना बहेगा नहीं। मैत्री का स्रोत जन्म-मरण के चक्र में छिपा है।
भगवान् महावीर से पूछा गयाµयह जीव सब जीवों के माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र आदि जितने संबंध हैं, उन रूपों में पैदा हुआ है?
महावीर ने कहाµहाँ, यह जीव सब जीवों में माता-पिता, भाई-बहन आदि संबंधों के रूप में एक बार नहीं, अनेक बार पैदा हुआ है। (क्रमशः)