संबोधि
बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
(60) मनःप्रवर्तकं चित्तं, वाणीदेहनियामकम्।
प्रशस्तेऽध्यवसाये तु, प्रशस्ताः स्युरिमे समे।।
चित्त मन का प्रवर्तक है। वह वाणी और शरीर का नियामक है। अध्यवसाय के प्रशस्त होने पर ये सब प्रशस्त हो जाते हैं।
(61) मनःशुद्धौ भावशुद्धिः, लेश्याशुद्धिस्ततो भवेत्।
अध्यवसायशुद्धिश्च, साधनायाः अयं क्रमः।।
मन की शुद्धि होने पर भाव की शुद्धि होती है। भाव की शुद्धि होने पर लेश्या की शुद्धि होती है और लेश्या की शुद्धि होने पर अध्यवसाय की शुद्धि होती है। यह साधना का क्रम है।
साधना मार्ग में कायसिद्धि और मनःसिद्धि दोनों अपेक्षित है। कायसिद्धि का अर्थ हैµशरीर की पूर्णरूपेण स्वस्थता, वात, पित्त आदि दोषों का संतुलन, शरीर का समग्र कार्य कलाप सुचारु रूप से संचालित होना, इसी प्रकार मनःसिद्धि का अर्थ हैµमन की निर्मलता, एकाग्रता, शांतता, स्थिरता, वासना-विकार, ईष्र्या, क्रोध, अहंकार आदि दोषों से मुक्तता है। पंच प्राणों पर नियंत्रण से काय-सिद्धि होती है और श्वास को सम्यक् साध लेने पर मन की सिद्धि प्राप्त होती है।
शरीर पंचभूतात्मक है, पंच तत्त्वों से निर्मित हैंµपृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। वायु तत्त्व ही प्राण है। प्राण के द्वारा ही समस्त शरीर और मन, बुद्धि, इंद्रियाँ आदि सक्रिय रहते हैं। प्राण, अपान आदि पाँच मुख्य प्राण तथा पाँच उपप्राण वायु के ही अलग-अलग स्थानों से अलग-अलग नाम हैं। प्राणों के अशुद्धि से शरीर अस्वस्थ होता है, आलस्य, प्रमाद आदि दोषों से युक्त होता है। इससे प्राणमय कोश और अन्नमयकोश भी विकृत होता है। पाँच प्राणों के स्थान और कार्य को हम अपने ध्यान में लेकर फिर इन्हें सुव्यवस्थित रखने का प्रयत्न करें तो कायसिद्धि सहज प्राप्त हो सकती है।
पंच प्राणों की अवस्थिति तथा कार्य
(1) प्राणµशरीर में कंठ से लेकर हृदय पर्यन्त जो वायु कार्य करता है, उसे ‘प्राण’ कहा जाता है।
कार्यµयह प्राण नासिका मार्ग, कंठ, स्वर-तंत्र, वाक्-इंद्रिय, अन्ननलिका, श्वासन तंत्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशीलता तथा शक्ति प्रदान करता है।
(2) अपानµनाभि के नीचे से लेकर पैर के अंगुष्ठ पर्यन्त जो प्राण कार्यशील रहता है, उसे ‘अपान’ प्राण कहते हैं।
कार्यµशरीर में संगृहीत हुए समस्त प्रकार के विजातीय तत्त्वों अर्थात् मल व मूत्र आदि को बाहर कर देह-शुद्धि का कार्य ‘अपान प्राण’ करता है।
(3) उदानµकंठ के ऊपर से लेकर सिर पर्यन्त देह में अवस्थित प्राण को ‘उदान’ कहते हैं।
कार्यµकंठ से ऊपर शरीर के समस्त अंगोंµनेत्र, श्रोत, नासिका व संपूर्ण मुख मंडल को ऊर्जा व आभा प्रदान करता है। पिच्युटरी व पिनियल ग्रंथि सहित पूरे मस्तिष्क को ‘उदान’ प्राण क्रियाशीलता प्रदान करता है।
(4) समानµहृदय के नीचे से लेकर नाभि पर्यन्त शरीर में क्रियाशील प्राण को ‘समान’ कहते हैं।
कार्यµयकृत, आन्त्र, प्लीहा व अग्न्याशय (च्ंदबतमंे) सहित संपूर्ण पाचन-तंत्र की आंतरिक कार्य प्रणाली को नियंत्रित करता है।
(5) व्यानµयह जीवनी प्राण-शक्ति पूरे शरीर में व्याप्त है। यह शरीर की समस्त गतिविधियों को नियमित तथा नियंत्रित करता है। सभी अंगों, मांस-प्रेशियों, तंतुओं, संधियों एवं नाड़ियों को क्रियाशीलता व ऊर्जा शक्ति ‘व्यानप्राण’ ही करता है।
इन पाँच प्राणों के अतिरिक्त शरीर में ‘देवदत्त’, ‘नाग’, ‘कृकल’, ‘कूर्म’ व ‘धनजय’ नामक पाँच उपप्राण हैं जो क्रमशः छींकना, पलक झपकना, जंभाई लेना, खुजलाना तथा हिचकी लेना आदि क्रियाओं को संचालित करते हैं।
वायु-प्राण और मन का संघर्ष चलता रहता है। अनेक लोग इसे नहीं जानते हैं और यह भी नहीं जानते कि इस संघर्ष में विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है। अन्य युद्धों से यह युद्ध अति विकट है। इसमें दूसरा कोई नहीं होता। स्वयं को स्वयं की वृत्तियों के साथ युद्ध करना होता है और उस पर विजय प्राप्त करनी होती है। प्राण में जब मन लय होता है तब तमोगुण की वृत्तियाँ जोर पकड़ लेती हैं। व्यक्ति उनके अधीन हो जाता है। मन में यदि प्राण का लय होता है तब सतोगुण की वृद्धि होती है। संकल्प विकल्पों की अवस्था में मन प्राण के द्वारा कार्य करने लगता है। उस अवस्था में प्राण की गति सामान्य रहती है। किंतु संकल्प-विकल्प होने लगते हैं। तमोगुण की स्थिति में श्वास की गति तेज हो जाती है। मन और प्राण का परस्पर घनिष्ट संबंध है। कहा हैµ‘चले प्राणे चलं चित्तं’ प्राण के चंचल होने पर चित्त चंचल हो जाता है और प्राण के स्थिर होने पर मन स्थित हो जाता है।
श्वास का संयम व श्वासप्रेक्षा के प्रयोग में कुशलता हासिल कर लेने पर मन की सिद्धि व कायसिद्धि दोनों सहज प्राप्त की जा सकती है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म-शरीर तथा मन इनके नियमन में प्राणायाम व प्राण की स्थिरता महत्त्वपूर्ण है। श्वास स्थिर व शांत होगा उतना ही अधिक व्यक्ति स्वस्थ तथा शांति का अनुभव करेगा। श्वास की संख्या भी औसत से कम होने लगेगी। श्वास दीर्घ होगा तो आयुष्य भी दीर्घ होगा। आयुष्य भी साँसों के साथ बंधा हुआ है। प्राणों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्राणायाम का प्रयोग तथा श्वास के साथ मन को संयुक्त कर उसी पर एकाग्र रहने का अभ्यास किया जाए तो सहज में ही व्यक्ति आत्म-विजेता बन सकता है।
(62) प्राणे संसाधिते सम्यक्, कायसिद्धिर्भवेत् ध्रुवम्।
श्वासे संसाधिते सम्यक्, मनःसिद्धिर्भवेत् ध्रुवम्।।
प्राण, अपान आदि पंचविध प्राणशक्ति की सम्यक् साधना कर लेने पर निश्चित रूप से कायसिद्धि हो जाती है। श्वास की सम्यक् साधना कर लेने पर निश्चित रूप से मन की सिद्धि हो जाती है।
(63) पदे पदे निधानानि, योजने रसकूपिका।
भाग्यहीना न पश्यन्ति, बहुरत्ना वसुन्धरा।।
प्रत्येक पद पर निधान है, प्रत्येक योजन पर रसकूपिका है। भाग्यहीन व्यक्ति उन्हें देख नहीं पाते। यह वसुंधरा बहुत रत्न वाली है।
(64) पदे पदे सदानंदः, शक्तिस्रोतः पदे पदे।
ध्यानहीना न पश्यन्ति, बहुरत्नं शरीरकम्।।
प्रत्येक पद पर आनंद है और प्रत्येक पद पर शक्ति का स्रोत है। ध्यानहीन उन्हें देख नहीं पाते। यह शरीर बहुत रत्न वाला है।
वसंुधराµवसु का अर्थ हैµरत्न, हीरे आदि। पृथ्वी इन्हें धारण करती है, अतः इसे वसुंधरा कहते हैं। इसमें अगणित धनराशि है। लेकिन प्राप्त उसे ही होती है, जो पुण्यशाली है, भाग्यवान है, भाग्य हीन को नहीं। भाग्य की अनुकूलता हो तो व्यक्ति के लिए वह सुलभ है। वह कहाँ से कहाँ छलाँग लगा लेता है और भाग्य प्रतिकूल हो तो जो है उससे भी हाथ धो बैठता है। ठीक इसी प्रकार मानव शरीर बहुत रत्नों का खजाना है। उससे जैसे बाह्य सामग्री प्राप्त होती है वैसे ही अंतः समृद्धि। दोनों का माध्यम शरीर है। ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’µधर्म-साधना का प्रथम साधन देह है। इसी शरीर से साधक भगवान् बनता है। शरीर में जो शक्ति है वह आत्म-चेतना की है। अनंत आनंद, अनंत ज्ञान, अनंत बल का दर्शन इसी में होता है। इनके अतिरिक्त गौण शक्तियाँ भी कम नहीं हैं। जितनी भी विस्मयकारक चेष्टाएँ, दृश्य, चमत्कार, विशिष्ट शक्तियाँ परिलक्षित होती हैं, उन सबका आधार शरीर ही है। इन सबकी अभिव्यक्ति का साधन हैµध्यान।
चित्त जैसे-जैसे सघन होता जाता है, वैसे-वैसे दिव्यताएँ प्रकट होती जाती हैं। ध्यान भाग्य है। भाग्यवान को विशेष वस्तुएँ, विशिष्टताएँ प्राप्त होती हैं वैसे ध्यानवान व्यक्ति को ही आत्मास्थितअनंत क्षमताएँ उपलब्ध होती हैं। देव और देवियाँ सेवा में उपस्थित रहकर अपने को धन्य मानती हैं। अष्टसिद्धि और नवनिधि भी उनके चरण चूमती है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस इनसे संपन्न थे। आचार्य शांतिसागर के पास जया, विजया, अपराजिता, लक्ष्मीµचार देवियाँ हाजिर रहती थीं। पद्मावती और सरस्वती भी उनकी सन्निधि का लाभ लेती थी। भक्त नरसिंह के ‘मायरे’ की बात प्रसिद्ध है। भक्त रैदान ने कठौती में गंगा को प्रकट कर दिया था। तब से यह कहावत भी चल पड़ी की ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।
भगवान् महावीर, गौतम गणधर, महात्मा बुद्ध, कबीर, नानक, दादू, मीरा, सीता, सुभद्रा, आचार्य भिक्षु आदि असंख्य विभूतियों के बिखरे बीजों को संगृहीत किया जाए तो ग्रंथों के ग्रंथ भरे जा सकते हैं। यह सब ध्यान, भक्ति, जप की शक्तियों का ही प्रभाव है।
(क्रमशः)