उपासना
भाग - एक
प्रस्तुति
दस धर्म
क्षमा
सिंधु-सौवीर के अधिपति उद्रायण ने उज्जयिनीपति चण्डप्रद्योत से क्षमा माँगी। एक था बंदी और दूसरा था बंदी बनाने वाला। एक था पराजित और दूसरा विजेता। उद्रायण ने कहा, ‘महाराज प्रद्योत, आज संवत्सरी का दिन है। यह मैत्री का महान पर्व है। इस अवसर पर मैं तुम्हें हृदय से क्षमा करता हूँ। तुम मुझे हृदय से क्षमा करो।’
महाराज प्रद्योत ने कहा, ‘क्या कोई बंदी क्षमा दे सकता है?’ उद्रायण आगे बढ़ा और प्रद्योत को मुक्त कर अपने बराबर बिठा लिया। दोनों हृदय स्नहे की शंृखला से बंध गए।
स्नेह का धागा अविच्छिन्न है। उसमें असंख्य दिलों को एक साथ बाँधने की क्षमता है।
उस दीप को बुझने में कितनी देर लगेगी, जिसमें स्नेह नहीं रहा है?
उस पुष्प को मुरझाने में कितनी देर लगेगी जिसमें रस नहीं रहा है?
स्नेह जीवन के हिमालय का वह प्रपात है, जो गंगा-यमुना बन बहता है और धरती के कण-कण को अभिषिक्त, अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित करता है।
स्नेह जीवन के सूर्य का वह प्रकाश है जो गहन अंधकार को भेदकर मानस की हर सतह को आलोक से भर देता है। जिसके जीवन की गहराई में स्नेह की सरिता प्रवाहित नहीं है, वह क्या क्षमा करेगा?
क्षमा का शब्दोच्चार क्षमा नहीं है। दुर्बलताओं तथा अल्पताओं को स्नेह की महान् धारा में विलीन करने की क्षमता जो है, वही क्षमा है। गंगा कितने गंदे नालों को अपने में मिला पवित्र बना लेती है। यह क्षमता किसी नाले की धारा में नहीं हो सकती। क्षमा का अर्थ है स्नेह की असीमता। इतनी असीमता कि जिसमें कोई भी भूल या कोई भी अपराध अपनी विशालता प्रदर्शित न कर सके। धर्म की आत्मा है स्नेह, प्रेम या मैत्री। जो सूखा है, वह कठोर है। कठोर और धार्मिकता अग्नि और जल की भाँति एक साथ नहीं रह सकती। जो चिकना है, वह कोमल है। कोमलता और अधार्मिकता अग्नि और जल की भाँति एक साथ नहीं रह सकतीं।
क्या उन धर्मों को धर्म कहा जा सकता है, जो मनुष्य को मनुष्य के प्रति कठोर बना रहे हैं, मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना रहे हैं, मनुष्य के प्रति मनुष्य के मन में घृणा भर रहे हैं और अपनी सुरक्षा या विस्तार के लिए मनुष्य से मनुष्य की बलि माँग रहे हैं। जो धर्म आत्मा की पवित्र वेदी से हटकर जातीय परंपरा को एक-रस हो जाता है, वह स्नेह के बदले रुक्षता की धार बहाता है और एकत्व के बदले विभाजन को बल देता है। ऐसे धर्मों से मनुष्य जाति बहुत त्रास पा चुकी है। अब उसे उसी धर्म की अपेक्षा है जिसके अंतस्तल में स्नेह और वातावरण में क्षमा का अजस्र स्रोत बह रहा है।
मुक्ति
इस दुनिया में बंधन बहुत हैं पर प्रेम-रज्जु जैसा गाढ़ बंधन कोई नहीं है। भौंरा काठ को भेदकर निकल जाता है, किंतु कोमलतम कमल-कोष को भेदकर नहीं निकल पाता।
सूर्यविकासी कमल था। मध्याह्न में वह खिल उठा। एक भौंरा आया और उसके पराग में लुब्ध हो गया। वह बार-बार उस पर मंडराता रहा। अंत में उसके मध्य में जाकर बैठ गया। संध्या हो गई, फिर भी वह नहीं उड़ा। कमल-कोष सिकुड़ गया और भौंरा उसमें बंदी बन गया। प्रेम से कौन बंदी नहीं बना?
दूसरों के प्रति प्रेम होता है, वह बाँधता है और अपने पति प्रेम होता है, वह मुक्त करता है। बंधन का अर्थ है दूसरों की ओर प्रवाहित होने वाला प्रेम और मुक्ति का अर्थ है अपने अस्तित्व की ओर प्रवाहित होने वाला प्रेम। यह स्वार्थ की संकुचित सीमा नहीं है। यह व्यक्तित्व की सहज मर्यादा है। जिसे अपने अस्तित्व का अनुराग है, वह दूसरों को बंधन में नहीं डाल सकता। दूसरों को वे ही लोग बाँधते हैं, जो अपने अस्तित्व के प्रति उदासीन होते हैं। मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए तोते को पिंजड़े में डालता है। चिड़ियाघर की सृष्टि क्यों हुई? मनुष्य अपने में अनुरक्त नहीं है, इसलिए वह दूसरों को बंधन में डाल अपना मनोरंजन करता है।
एक आदमी की अपने पड़ोसी से अनबन हो गई। उसके मन में क्रोध की गाँठ घुल गई। वह जब कभी पड़ोसी को देखता, उसकी आँखें लाल हो उठतीं। यह द्वेष का बंधन है।
एक बुढ़िया शरीर में कृश होने लगी। पुत्र ने पूछा, ‘माँ! क्या तुम्हें कोई व्याधि है?’
‘नहीं बेटा! कोई व्याधि नहीं है।’
‘फिर यह कृशता क्यों आ रही है?’
‘बेटा! अपने पड़ोसी के घर में बिलोना होता है, उससे मुझे बहुत पीड़ा होती है। मथनी उस बिलोने में नहीं, मेरी छाती में चलती है। इसलिए मेरा शरीर कृश हो रहा है।’ यह ईर्ष्या का बंधन है।
राजा ने कहा-बकरी को खूब खिलाओ पर शरीर में बढ़नी नहीं चाहिए। गाँव वाले समस्या में उलझ गए। रोहक ने मार्ग ढूँढ़ लिया। बकरी को शेर के पिंजड़े के पास ले जाकर बाँध दिया। उसे चारा खूब देते पर बकरी का शरीर पुष्ट नहीं हुआ। जैसे ही शेर दहाड़ता, उसका खाया-पीया हराम हो जाता। यह भय का बंधन है।
बाहरी बंधनों की क्या बात। अपने भीतर इतने बंधन हैं कि उनसे निबटे बिना बाहरी बंधनों से निबटना, नहीं निबटने के समान हो जाता है।
बंधन बंधन को जन्म देता है और मुक्ति मुक्ति को। बाहरी बंधनों से मुक्ति पाने की अनिवार्य शर्त है मानसिक मुक्ति, आंतरिक मुक्ति।
आर्जव
गौतम ने पूछा, ‘भंते! आर्जव से मनुष्य क्या प्राप्त करता है?’ भगवान् महावीर ने कहा, ‘गौतम! आर्जव से मनुष्य काया की ऋजुता, भावों की ऋजुता, भाषा की ऋजुता और संवादी प्रवृत्ति-कथनी और करनी की समानता को प्राप्त करता है।’
आर्जव का अर्थ है सरलता। सरलता वह प्रकाश-पुंज है, जिसे हम चारों ओर देख सकते हैं। भगवान् महावीर ने कहा, ‘निर्मलता उसे प्राप्त होती है, जो ऋजु होता है।’ कपटी मनुष्य का मन कभी निर्मल नहीं होता। बच्चे का मन सरल होता है, इसलिए उसके प्रति सबका स्नेह होता है। हम जैसे-जैसे बड़े बनते हैं, समझदार बनते हैं, वैसे-वैसे हमारे मन पर आवरण आते रहते हैं। आवरण अज्ञान का होता है। आवरण संदेह का होता है। आवरण माया का होता है। हम दूसरे व्यक्ति को जानने का यत्न नहीं करते, इसलिए हमारा मन उसके प्रति सरल नहीं होता। हम दूसरे व्यक्ति के प्रति विश्वास नहीं करते, इसलिए उसके प्रति हमारा मन सरल नहीं होता। हम दूसरे व्यक्ति से अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं, इसलिए उसके प्रति हमारा मन सरल नहीं होता। यदि इस दुनिया में अज्ञान, संदेह और कपट नहीं होता तो मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम की धारा बहती। मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई दूरी नहीं होती। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से विभक्त नहीं होता। एक संस्कृत-कवि ने कहा है-
‘सन्धत्ते सरला सूची, वक्रा छेदाय कर्तरी’-सूई सरल होती है, इसलिए जोड़ती है, दो को एक करती है और कैंची टेढ़ी होती है, इसलिए वह काटती है, एक को दो करती है।
सरलता मनों को साँधती है। माया कैंची का काम करती है, मनों के टुकड़े-टुकड़े कर डालती है।
हम भोले न हों-सामने की स्थिति का प्रतिबिंब लेने की स्वच्छता से वंचित न हों। हम मायावी भी न हों-अपने मन की कलुषता से सामने वाले के मन को कलुषित करने की दक्षता से संपन्न न हों। हम सरल हों-वातावरण के प्रति सजग हों, किंतु दूसरों के प्रति मन में मलिन भाव न हो। जिसका मन सरल होता है, वह दूसरों से ठगा नहीं जाता। ठगा वही जाता है, जिसके अपने मन में मैल होता है।
एक बुढ़िया जा रही थी। सिर पर एक गठरी थी। उसी रास्ते से एक युवक जा रहा था। उसके मन में करुणा का भाव आया। उसने बुढ़िया से कहा, ‘दादी, कुछ देर के लिए गठरी मुझे दे दो। तुम्हें थोड़ा-सा विश्राम मिल जाएगा।’ बुढ़िया ने उसका भाव देखा और उसे गठरी दे दी। थोड़ी देर बाद बुढ़िया ने गठरी फिर ले ली। युवक का मन बदल गया। उसने सोचा-गठरी मेरे पास थी। उसे लेकर मैं भाग जाता तो बुढ़िया मेरा क्या करती? युवक ने फिर गठरी माँगी। बुढ़िया ने नहीं दी। उसने फिर आग्रह किया तो बुढ़िया ने कहा, ‘अब नहीं दूँगी।’ उसने पूछा, ‘दादी! अब क्यों नहीं देगी?’ बुढ़िया बोली-‘बेटा! अब नहीं दूँगी। जो तुझे कह गया, वह मुझे भी कह गया।’
सरलता मन का वह प्रकाश है, जिसमें कोई भी वस्तु अस्पष्ट नहीं रही। माया मन का वह अंधकार है, जिसमें आदमी भटकता है और भटकता ही रहता है।
मार्दव
गुलाब के फूल में जो सौंदर्य और सुगंध है, वह हर फूल में नहीं है। यह उत्कर्ष और अपकर्ष प्रकृति का नियम है। जहाँ पहाड़ है, वहाँ चोटी भी है और तलहटी भी है। पहाड़ में विचार-शक्ति नहीं है, इसलिए उसकी चोटी और तलहटी में कोई संघर्ष नहीं है। मनुष्य विचारशील प्राणी है। जो तलहटी पर खड़ा है, वह चोटी वाले को देख हीन-भावना से भर जाता है और जो चोटी पर खड़ा है, वह तलहटी वाले को देखकर अहंकार से भर जाता है।
हिंदुस्तान जैसे धार्मिक देश में स्पृश्य और अस्पृश्य-ये दो श्रेणियाँ आज भी चल रही हैं। न जाने कितने लोगों ने अस्पृश्यता के अभिशाप से अभिशप्त होकर धर्म-परिवर्तन किया और कर रहे हैं। जिस वर्ग ने उत्कर्ष प्राप्त किया, उसने दूसरे वर्ग को अपने से निम्न ठहराकर ही संतोष की साँस ली। यह मनुष्य का मद है। मद अधर्म का द्वार है। इसमें प्रवेश पाकर मनुष्य ने सदा दूसरे मनुष्यों के प्रति क्रूर व्यवहार किया है।
भगवान् महावीर से पूछा गया-‘भंते! धर्म के द्वार कितने हैं?’
भगवान ने कहा-‘धर्म के चार द्वार हैं।’
‘कौन-कौन से, भंते?’
भगवान ने कहा-‘क्षान्ति, मुक्ति, ऋजुता और मृदुता।’
(क्रमशः)