उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)
प्रस्तुति
दस धर्म

मृदुता धर्म के प्रासाद में प्रवेश पाने का एक द्वार है। पहले द्वार और फिर प्रासाद। द्वार में प्रवेश बिना कोई प्रासाद तक पहुँच नहीं सकता। क्या मृदु बने बिना कोई धार्मिक हो सकता है? आदमी धार्मिक तो है किंतु मृदु नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि दिन तो है पर प्रकाश नहीं है। प्रकाश के बिना दिन का अस्तित्व मान्य नहीं है। फिर मृदुता के बिना धर्म का अस्तित्व कैसे मान्य होगा? धार्मिक जगत् ने मृदुता को मान्यता दी है पर उसका अर्थ-बोध बहुत संकुचित है। मृदुता का अर्थ समझा जा रहा है विनम्रता। यह समझ त्रुटिपूर्ण नहीं है, किंतु अपूर्ण है। मृदुता का पूर्ण अर्थ है कठोरता का विसर्जन, क्रूरता का विसर्जन। मृदु वह हो सकता है जिसके हृदय में करुणा का अजस्र स्रोत प्रवाहित है। जिसके हृदय में करुणा का अजस्र स्रोत प्रवाहित होता है, वह शोषण नहीं कर सकता, अपनी सुख-सुविधा में दूसरों की सुख-सुविधा को विलीन नहीं कर सकता, दूसरों को हानि पहुँचे, वैसा कार्य नहीं कर सकता।
सिंह चलता है, तब मुड़कर पीछे देखता है। क्या धार्मिक के लिए पीछे देखना आवश्यक नहीं है? सिंहावलोकन किए बिना अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता। आत्मालोचन किए बिना धर्म पर आने वाले आवरण को तोड़ा नहीं जा सकता। अहंभाव व्यक्ति को क्रूर बनाता है। क्रूरता प्रतिहिंसा को जन्म देती है। एक बार गौतम ने भगवान् महावीर से पूछाµ‘भंते! मृदुता से क्या प्राप्त होता है?’
भगवान् ने कहाµ‘गौतम! मृदुता से अपने आपको दूसरों से अतिरिक्त मानने की भावना मर जाती है।’
इस दुनिया में कोई भी आदमी भगवान् के घर से नहीं आया है। हम सब मनुष्य हैं। इसलिए हर मनुष्य दूसरे मनुष्य से मानवीय व्यवहार की अपेक्षा रखता है।
लाघव
एक आदमी तालाब में स्नान कर रहा था। उसने गहरी डुबकियाँ लीं। घंटा भर तक जल में तैरता-डूबता रहा। आखिर बाहर आया। घर जाते समय जल का घड़ा भर लिया। घड़ा कंधे पर रख वह चलने लगा। घर कुछ दूर था। मार्ग में वह थक गया। उसने मन-ही-मन सोचाµतालाब में डुबकी ली तब सैकड़ों टन पानी मेरे सिर पर था। पर मुझे कोई भार का अनुभव नहीं हुआ। घड़े में दस-बारह किलो पानी होगा, फिर भी मुझे भार का अनुभव हो रहा है। यह क्यों? ऐसा प्रश्न उन सबके मन में पैदा होता है, जो व्यापार और सीमितµदोनों क्षेत्रों का अवगाहन करते हैं।
तालाब में जल मुक्त होता है, उसका अवगाह-क्षेत्र व्यापक होता है, इसलिए भार का दबाव विकेन्द्रित हो जाता है। घड़े में जल बंधा होता है, उसका अवगाह क्षेत्र सीमित होता है। इसलिए भार का दबाव केंद्रित हो जाता है। जब धन का संग्रह सीमित क्षेत्र में होता है, तब वातावरण में दबाव, तनाव और भार की अनुभूति होती है। जब धन का अवगाह-क्षेत्र व्यापक हो जाता है, तब वातावरण दबाव, तनाव और भार की अनुभूति से शून्य हो जाता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था, ‘ऋद्धि गौरवµधन को अपना मानने से आदमी बोझिल बनता है और ऋद्धि-लाघव से वह हलका बनता है।’
जब खाद्य-सामग्री केंद्रित हो जाती है, कुछेक लोगों के हाथों में जमा हो जाती है, तब वातावरण में दबाव, तनाव और भार की अनुभूति होती है। जब खाद्य सामग्री विकेंद्रित हो जाती है, सबके हाथों में पहुँच जाती है, तब वातावरण दबाव, तनाव और भार की अनुभूति से शून्य हो जाता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था, ‘रस-गौरवµखाद्य को अपना मानने से आदमी बोझिल बनता है और रस-लाघव से वह हल्का बनता है।’
जब सुख की अनुभूति केंद्रित हो जाती है। अपनी सुख-साधना में दूसरों की कठिनाइयों की अनुभूति मिट जाती है, तब वातावरण में दबाव, तनाव और भार की अनुभूति होती है। जब सुख की अनुभूति व्यापक हो जाती है, दूसरों की कठिनाइयाँ बढ़ाने में रस नहीं रहता, तब वातावरण, तनाव और भार की अनुभूति से शून्य हो जाता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था, सुख-गौरवµसुख को अपना मानने से आदमी बोझिल बनता है और सुख-लाघव से आदमी हल्का बनता है।’
सत्य
सत्य बहुत विराट् है। विराट् को शब्दों में बाँधना एक साहसिक प्रयत्न है। आदमी अनंत आकाश को बाँध अपना घर बना लेता है। अनंत में फैली हुई सूरज की रश्मियों को ग्रहण कर उसे आलोकित कर लेता है तब सत्य के अंचल का स्पर्श कर हम क्यों नहीं विराट् विभूति की अनुभूति कर सकते?
आग्रह के लोहावरण को तोड़े बिना क्या कोई सत्य तक पहुँचा है? जिसने अपनी धारणा की खिड़की से सत्य को देखा, वह सत्य से दूर भागा है। जिसने तथ्यों की खिड़की से सत्य को देखने का प्रयत्न किया, वह सत्य के निकट पहुँचा है।
एक कुलवधू रस्सी से पीपल को बाँधकर खींच रही थी। उसके हाथ रक्त-रंजित हो रहे थे। शरीर काँप रहा था। आँखों से अविरल आँसू टपक रहे थे। फिर भी हठी पीपल एक पग भी नहीं सरक रहा था। पथिक उधर से आया। उसने सारा दृश्य देखा। वह शांत स्वर से बोलाµ‘बहन! क्या कर रही है?’
‘भैया! सास ने पीपल मँगाया है, इसलिए इसे घर ले जाने का प्रयत्न कर रही हूँ। पर यह बहुत हठी है। मेरी एक भी बात नहीं मानता।’ कुलवधू ने फिर एक बार रस्सी को दृढ़ता से खींचा किंतु पीपल नहीं चला।
पथिक ने कहाµ‘बहन! पीपल ऐसे नहीं जाएगा।’ वह पीपल पर चढ़ा और एक टहनी तोड़ी। उसकी ओर बढ़ाते हुए बोलाµ‘लो! यह पीपल अपनी सास को दे देना।’
आचार्य भिक्षु ने इस कथा द्वारा अज्ञानलब्ध आग्रह का चित्रण किया है। किंतु आग्रह का यह एक रूप ही नहीं होता। अपनेपन का भी आग्रह होता है।
एक आदमी तलैया में बैठा जल पी रहा था। जेठ की गर्मी में उसका जल सूख गया था। थोड़ा-बहुत बचा, वह मिट्टी से मिला हुआ था। एक पथिक उस मार्ग से आया। उसने कहा, ‘थोड़ी दूर पर बड़ा तालाब है, स्वच्छ पानी है। वह पीओ। क्यों पीते हो यह मिट्टी मिला पानी?’
‘यह मेरे पिता की तलैया है, मैं इसी का जल पीऊँगा’µयह कहकर वह जल पीने का प्रयत्न करने लगा।
मोहजनित आग्रह इससे भी भयंकर होता है। धोबी के घर एक कुत्ता रहता था। उसका नाम था सताबा। धोबी के दो पत्नियाँ थीं। वे परस्पर बहुत लड़ती। लड़ते समय एक-दूसरे को गाली देतीं, ‘आयी है सताबा की बैर (पत्नी)।’ कुत्ता इस नाम के मोह में फँस गया। उन्होंने कुत्ते को रोटी डालना बंद कर दिया। वह भूख से सूख गया। पड़ोस के कुत्ते ने कहाµ‘चलो, घूमें और रोटी खाएँ।’ उसने कहा, ‘अपनी दो पत्नियों को छोड़कर बाहर कैसे जा सकता हूँ?’
संस्कार का आग्रह भी किसी से कम नहीं होता। एक चींटी कहीं जा रही थी। बीच में दूसरी चींटी मिल गई। दोनों ने बातचीत की। अतिथि चींटी ने सुख-संवाद पूछा तो वहाँ खड़ी चींटी ने कहाµ‘बहन! और तो सब ठीक है पर मुँह खारा बना रहता है।’ अतिथि चींटी ने कहाµ‘तुम नमक के पर्वत पर रहती हो, फिर मुँह खारा क्यों नहीं होगा? चलो मेरे पास। मैं मिसरी के पहाड़ पर रहती हूँ। वहाँ तुम्हारा मुँह मीठा हो जाएगा।’ वह अतिथि चींटी के साथ चल पड़ी। वहाँ पहुँचने पर भी उसका मुँह मीठा नहीं हुआ। उसने कहाµ‘मेरा मुँह तो अभी खारा ही है।’ वहाँ रहने वाली चींटी ने कहाµ‘मुँह में नमक की डली तो नहीं लाई हो?’ ‘वह तो है’, नमक के पहाड़ पर रहने वाली चींटी ने कहा। ‘बहन, नमक को छोड़े बिना मुँह मीठा कैसे होगा?’
पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाए बिना कोई भी आदमी सत्य को नहीं पा सकता।
संयम
यदि संयम नहीं होता तो दुनिया में भय और आतंक का एकछत्र साम्राज्य होता। यदि नदी तटों के बीच प्रवाहित नहीं होती तो उससे जनता का उपकार कम, अपकार अधिक होता। हमारे जीवन की धारा संयम के तटों के बीच बहती है, इसीलिए हम हैं और समाज के बीच में जीवित हैं। नीचे साबरमती बह रही है, ऊपर रेलवे पुल है। एक ओर बड़ी लाइन है, दूसरी ओर छोटी लाइन है। पास में ही साइकिलों और पद-गामियों का मार्ग है। सब अपने-अपने मार्ग से गुजर रहे हैं। कोई किसी के मार्ग में बाधक नहीं बन रहा है। यदि व्यवस्था में संयम नहीं होता तो नदी के प्रवाह में रेलें रुक जातीं, मनुष्यों का आवागमन रुक जाता। मनुष्य संयम को जानता है, इसलिए न प्रवाह रुकता है, न रेलें रुकती हैं और न आवागमन रुकता है।
कछुआ संयम करना जानता है। अपने अवयवों को अपनी सुरक्षा ढाल में संगोपित करना जानता है। इसीलिए वह सियारों के प्रहार से बच जाता है। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध ने एक ही भाषा में कहाµ‘हाथों का संयम करो, पैरों का संयम करो, वाणीका संयम करो, इंद्रियों का संयम करो और मन का संयम करो।’
हर आदमी अपनी सुरक्षा चाहता है। संयम सबसे बड़ी सुरक्षा है। असंयम से जितने आदमी बीमार होते हैं, उतने कीटाणुओं से नहीं होते। असंयम से जितने आदमी घायल बनते हैं, उतने शस्त्रों से नहीं होते। असंयम से जितने आदमी बंदी बनते हैं, उतने पुलिस से नहीं बनते। असंयम से जितने आदमी मरते हैं, उतने मौत से नहीं मरते।

(क्रमशः)