संबोधि
बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
(पिछला शेष) साधक ध्यान के पूर्व और ध्यान के बाद भावनाओं के अभ्यास का सतत स्मरण करता रहे। उनसे एक शक्ति मिलती है, धीरे-धीरे मन तदनुरूप परिणत होता है। मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर सत्य की दिशा में अनुगमन होता है और एक दिन स्वयं को तथानुरूप प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। भावना और ध्यान के सहयोग से मंजिल सुसाध्य हो जाती है। साधक इन दोनों की अपेक्षा को गौण न समझे। सभी धर्मों ने भावना का अवलंबन लिया है।
भावनाएँ विविध हो सकती हैं। जिनसे चित्त विशुद्धि होती है तथा अविद्या का उन्मूलन और विद्या की उपलब्धि होती है-ये सब संकल्प और विचार भावनाओं के अंतर्गत हैं। फिर भी संतों ने उनका कुछ वर्गीकरण किया है। उन्हें बारह और चार-इस प्रकार दो भागों में विभक्त किया है।
बारह भावनाएँ
(1) अनित्य भावना-जो कुछ भी दृश्य है, वह सब शाश्वत नहीं है। प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। बुद्ध ने कहा है-‘सब क्षणिक है।’ एक समयसे अधिक कोई नहीं ठहरता। साधक की दृष्टि अगर खुल जाए तो उसे सत्य का दर्शन संसार का प्रत्येक पदार्थ दे सकता है, वही उसका गुरु हो सकता है। एक शिष्य वर्षों तक आचार्य के पास रहा परंतु उसकी दृष्टि नहीं खुली। शिष्य हताश हो गया। गुरु ने कहा-‘अब तू यहाँ से जा, यहाँ नहीं सीख सकेगा।’ वह आश्रम से चला आया। एक पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा। एक पत्ता टूटकर नीचे गिरा और दृष्टि मिल गई। गुरु के पास आया और बोला-घटना घट गई। गुरु ने पूछा-कैसे? वृक्ष के नीचे बैठा था। पत्ता गिरा और अचानक मुझे स्मरण हो आया कि मुझे भी मरना-गिरना है। गुरु ने कहा-‘बस, उसे ही नमस्कार करना था, वही तेरा गुरु है।’
भरत चक्रवर्ती अपने कांच-महल में सिंहासन स्थित शरीर का अवलोकन कर रहे थे। अचानक उन्हें शरीर के परिवर्तन का बोध हुआ। यह वह शरीर है जो बचपन में था और अब जवानी में है, कितना बदल गया। सब कुछ परिवर्तन हो रहा है, किंतु इस परिवर्तन के पीछे जो एक अपरिवर्तनीय सत्ता है, वह जैसे पहले थी अब भी वैसी ही है और आगे भी वैसी ही रहेगी। दृष्टि उपलब्ध हो गई। एक के अनित्य का दर्शन सबका दर्शन है। जैसे यह शरीर बदल रहा है वैसे ही संपूर्ण पुद्गलों का परिवर्तन चल रहा हैं वे संबोधि-केवलज्ञान को उपलब्ध हो गए।
कारलाइल के जीवन में भी ऐसी ही घटना घटी। वह अस्सी वर्ष की अवस्था पार कर चुका था। अनेक बार बाथरूम में गया था। किंतु जो घटना उस दिन घटी, वह कभी नहीं घटी। स्नान के बाद शरीर को पोंछते-पोंछते देखता है। वह शरीर कितना बदल गया। जीर्ण हो गया। किंतु भीतर जो जानने और देखने वाला है वह जीर्ण नहीं हुआ, वह वैसा ही है। परिवर्तनीय के साथ अपरिवर्तनीय की झाँकी मिल गई।
वैज्ञानिक कहते हैं, सात साल में पूरा शरीर बदल जाता है! सत्तर वर्ष की अवस्था में दश बार सब कुछ नया उत्पन्न हो जाता है। लेकिन इस परिवर्तन की ओर दृष्टि बहुत कम जाती है। साधक के पास सबसे निकट शरीर है। और भी जड़-चेतन जगत् जो निकट है, वह उसे एक विशिष्ट दृष्टि से देखे और अनुभव करे कि यह जगत् उसके लिए एक बड़ी प्रशिक्षण शाला है जो निरंतर प्रशिक्षण दे रही है। अनित्य भावना में क्षण-क्षण बदलते हुए इस जगत् को और स्वयं के निकट जो है उसका दर्शन करे। केवल संकल्प न दोहराए कि सब कुछ अनित्य है, अनित्य है, किंतु उसका अनुभव करे और उसके साथ अंतःस्थित अपरिवर्तनीय आत्मा की झलक भी पाएँ।
(2) अशरण भावना-यह भावना हमारे उस संस्कारों पर प्रहार करती है जो बाहर का सहारा ताकते हैं। यदि मनुष्य की समझ में यह तथ्य आ जाए कि अंततः मेरा कोई शरण नहीं है, तब सहज ही बाह्य वस्तु-जगत् की पकड़ ढीली हो जाए। अन्यथा आदमी धन, परिवर्तन, स्त्री, पुत्र, मित्र, मकान आदि सबको पकड़ता है। वह समझता है कि अंत में कोई न कोई मुझे अवलंबन देगा। यह भ्रम ही संग्रह का हेतु बनता है। धर्म कहता है-‘केाई त्राण नहीं है। छोड़ो अपनी पकड़। क्यों व्यर्थ ममत्व, मोह और पाप का संग्रह करते हो। बस, सिर्फ पकड़ छोड़ दो। जीवन से भागने की जरूरत नहीं। वाल्मीकि ने जब जाना तब एक क्षण में उससे मुक्त हो गया। अनाथी मुनि ने जब देखा-कोई मुझे रोग से मुक्त नहीं कर पा रहा है। सब असफल हो गए। तब दृष्टि भीतर की तरफ मुड़ी और देखा-जो है, रोग उससे दूर है, मृत्यु दूर है, सब कुछ दूर है तो क्यों नहीं उसे ही अपना शरण बनाऊँ। वह उसकी खोज में चला गया। सम्राट् श्रेणिक ने कहा-‘मैं तुम्हारा मालिक बनूँगा।’ अनाथी मुनि ने कहा-‘तुम मेरे मालिक क्या बनोगे? पहले अपने खुद के मालिक बनो। अभी जिनके मालिक हो उनके गुलाम भी हो। मैंने खोजा, वह अपने भीतर है। जिस दिन तुम भी खोज लोगे, मालकियत टूट जाएगी और एक नई मालकियत का जन्म होगा।’
डेनमार्क के एक विचारक ने लिखा है-‘असली चिंता तो तब पकड़ती है जब तुम्हें लगता है कि पैर के नीचे से जमीन खिसक गई।’ यही एक ऐसा क्षण है जो भविष्य का फैसला करता है। किंतु यदि इसके पूर्व में सच्चाई का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया हुआ हो तो प्रायः व्यक्ति भविष्य को अंधकारपूर्ण बना लेते हैं। वे मरते क्षण में शरीर को छोड़ रहे हैं किंतु वासना को नहीं। वासना अपने ही लोगों और वस्तुओं के आसपास चील की तरह मंडराती रह जाती है, और प्राणी मरकर पुरः उनके ही इर्द-गिर्द पैदा हो जाता है। महावीर, बुद्ध आदि ने कहा है-‘अपनी ही शरण जाओ। ‘धम्मं सरणं पवज्जामि-स्वभाव की शरण खोजो।’ साधक बाहर से अत्राण को देखे और भीतर देखे जो है उसे। वह सदा है, उसी को पकड़ने से त्राण पाया जा सकता है। उसकी स्मृति एक क्षण भी विस्मृत न हो। यह सुरति-स्मृति योग है। गुरु नानक ने कहा है, जो उसे नहीं भूलता, वही वस्तुतः महान् है। वह सच्ची संपत्ति है जो हमारे साथ जा सकती है।
(3) भव-भावना-आज के वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करते हैं कि विश्व में पदार्थ सर्वथा नष्ट नहीं होते, केवल परिवर्तन होता रहता है। धार्मिक सदा से ही यह कहते आए हैं कि जीव और अजीव, चेतन और जड़-ये दो स्वतंत्र द्रव्य हैं। यह संपूर्ण विश्व इन दोनों की सृष्टि है। ये दोनों अनादि हैं। आत्मा विजातीय तत्त्व से सर्वथा मुक्त नहीं होता, तब तक उसे संसार में भ्रमण करना होता है। भव-भावना में साधक यह देखता है, अनुभव करता है कि मैं इस संसार में कब से भ्रमण कर रहा हूँ। ऐसी कोई योनि नहीं है जहाँ मैं जन्मा नहीं हूँ। प्रत्येक गति में अनेकशः उत्पन्न हो चुका हूँ। क्या मैं इस प्रकार भ्रमण करता रहूँगा? वह देखता है योनियों में विविध कष्टों को और इस भव-भ्रमण के बंधन को चाहता है तोड़ना। राग और द्वेष भव-भ्रमण के मुख्य हेतु हैं। जब तक ये विद्यमान रहते हैं तब तक आत्मा का पूर्ण स्वातंत्र्य प्रगट नहीं होता। विविध योनियों के विविध रूपों में भ्रमण का चिंतन करना भव-भावना है।
(4) एकतव भावना-
एगो से सासओ अप्पा, णाणदंसण लक्खणो।
सेसो मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।।
ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत आत्मा है, यही मैं हूँ। इसके सिवा शेष सांयोगिक पदार्थ मेरे से भिन्न हैं, वे ‘मैं नहीं हूँ।’ दूसरों के साथ अपने को इतना संयुक्त न करे कि जिससे स्वयं के होने का पता ही न चले। इस एकत्व भावना में अपने को समस्त संयोगों से पृथक् देखता है। प्लोटिस ने कहा है-थ्सपहीज व िजीम ।सवदम जव जीम ।सवदम रू ‘अकेले ही अकेले के लिए उड़ान है।’ नमि राजर्षि ने कहा-‘संयोग ही दुःख है। दो में शब्द होते हैं, अकेले में नहीं। रानियाँ चंदन घिस रही थीं। चूड़ियों के शब्द कानों में चुभ रहे थे। नमि राजर्षि ने कहा-बंद करो। रानियाँ हाथ में एक-एक चूड़ी रख चंदन घिसने लगीं। शब्द बंद हो गया। नमि राजर्षि ने पूछा-क्या चंदन घिसना बंद कर दिया? उत्तर मिला-नहीं, घिसा जा रहा है।’ तो शब्द क्यों नहीं हो रहा है, नमि ने पूछा। तब कहा-‘एक-एक चूड़ी है। एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करती।’ तत्क्षण यह सुनते ही वे प्रतिबुद्ध हो गए। और साधना-पथ पर चल पड़े। साधक सर्वत्र स्वयं के अकेले का अनुभव करे। यह सिर्फ कल्पना के स्तर पर ही नहीं, वस्तुतः जो है-अस्तित्व वह एक है, अकेला है। जिस दिन चैतन्य की अनुभूति में निमज्जन होने लगता है, शांति उस दिन स्वयं ही उसके द्वार खटखटाने लगती है।
(5) अन्यत्व भावना-एकत्व और अन्यत्व-दोनों परस्पर संबंधित हैं। अन्य-दूसरों से स्वयं को पृथक् देखना एकत्व है और अपने से दूसरों को भिन्न देखना अन्यत्व है। ‘पर’ ‘पर’ है पर ‘स्व’ ‘स्व’ है। ‘पर’ को अपना न माने। ‘पर’ के और अपने बीच जो दूरी है, वह सदा बनी रहती है। किसी ने एक होटल के मालिक से पूछा-‘वह व्यक्ति ठीक आप जैसे लगता है, क्या आप भाई-भाई हैं? एक ही हैं आप?’ उसने कहा-‘नहीं’, बहुत दूरी है। हम अपने पिताजी के बारह लड़के हैं। पहला मैं हूँ और वह बारहवाँ है।
(क्रमशः)