उपासना
(भाग - एक)
प्रस्तुति
दस धर्म
शरीरशास्त्री कहते हैं-हम लोग पचास प्रतिशत अपने लिए खाते हैं और पचास प्रतिशत डॉक्टरों के लिए खाते हैं। आँतों की आवश्यकता-पूर्ति के लिए नहीं खाया जाता है, खाया जाता है जीभ की तुष्टि के लिए। खाने-पीने की आवश्यक वस्तुओं में ध्यान उलझ जाता है, तब मौलिक आवश्यकता पर ध्यान पूर्णतः केंद्रित नहीं हो पाता। आज ऐसा हो रहा है। विलास या लोलुपता की समस्या ने खाद्य की समस्या को गौण कर दिया है और खाद्य की समस्या ने अनेक गौण समस्याओं को मुख्य बना दिया है। हिंदुस्तान अभी अल्प-साधन वाला देश है। उसमें एक वर्ग विलास और अनावश्यक वस्तुओं का भोग करें और दूसरा वर्ग भूख से संत्रस्त रहे, यह करुण कहानी है। इसमें असंयम का बहुत बड़ा हाथ है। गुरुदेव तुलसी राजस्थान में थे। उनके कुछ शिष्य दूसरे प्रांत में विहार कर रहे थे। गुरुदेव ने सुना कि उन्हें भोजन कम मिल रहा है, सुविधा से नहीं मिल रहा है। गुरुदेव ने अपने भोजन में कमी कर दी। सहानुभूति का स्रोत वहाँ तक पहुँच गया। उन्हें कठिनाई की अनुभूति कम होने लगी। सहानुभूति के अभाव में कठिनाई की अनुभूति प्रखर हो जाती है और सहानुभूति मिलने पर कठिनाई कम न भी हो पर उसकी अनुभूति अवश्य ही कम हो जाती है। यदि संपन्न लोग संयम करें तो अभावग्रस्त लोगों की कठिनाई सहज ही कम हो जाती है और यदि वह एक साथ कम न भी हो किंतु अनुभूति निश्चित रूप से कम हो सकती है। मनुष्य की सारी समस्याएँ वस्तुओं की प्रचुरता से ही नहीं सुलझती हैं। बहुत सारी समस्याएँ संयम से सुलझती हैं। हमारे अर्थशास्त्री केवल वस्तुओं के विस्तार में समस्या को सुलझाने की बात कह रहे हैं। इस समय हमारे धर्म-शास्त्रियों के लिए क्या यह आवश्यक नहीं है कि वे वैज्ञानिक पद्धति से संयम की प्रस्तुति करें और यह प्रतिपादित करें कि संयम से मानसिक समस्याओं के साथ-साथ भौतिक समस्याएँ भी सुलझती हैं?
तप
एक आदमी चला जा रहा था। ज्येष्ठ महीने की दुपहरी थी। चिलचिलाती धूप और अंगारे बरसाती लू। उसका शरीर तप उठा। उसने सोचा, यह सूर्य नहीं होता तो दुनिया कितनी सुंदर होती? वर्षा ऋतु आई। आकाश बादलों से घिर गया। भूमि जलजलाकार हो गई। कई दिन बीत गए, बादलों ने आकाश को मुक्ति नहीं दी। सूर्य का संबंध भूलोक से विच्छिन्न हो गया। न पूरा प्रकाश, न धूप और न लू।
वही आदमी वैद्य के पास पहुँचा। वैद्य के पूछने पर बोला, ‘महाराज! पाचन बिगड़ गया है, इसलिए दवा लेने आया हूँ।’
वैद्य ने कहा, ‘सेठजी! यह बदलाई मौसम है, सूर्य भगवान् की रश्मियाँ भूलोक पर नहीं पहुँचती हैं इससे अग्नि मंद हो जाती है, कृपया कुछ कम खाया करें।’ सेठ दवा लिए बिना ही लौट गया। वह मन-ही-मन सोचता जा रहा था कि सूर्य नहीं होता तो यह दुनिया कितनी भयंकर होती!
सूर्य हमारी प्राणशक्ति का स्रोत है। क्या तपस्या हमारी प्राणशक्ति का स्रोत नहीं है? जो मनुष्य कम खाता है, वह जितना स्वस्थ, संतुलित और प्रसन्न होता है, उतना वह नहीं होता जो बहुत खाता है। कम खाना तप है। आचारांग में लिखा है-‘भगवान् महावीर रुग्ण नहीं थे, फिर भी कम खाते थे।’ इस तथ्य को इस भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता है कि भगवान् कम खाते थे, इसीलिए स्वस्थ थे। उपवास को चिकित्सा पद्धति का रूप मिल चुका है। किंतु वह केवल शारीरिक चिकित्सा पद्धति नहीं है। उससे चिर अर्जित मानसिक मल भी विसर्जित होते हैं। उपवास एक तप है। महात्मा गांधी ने अस्वाद को एक व्रत माना था। जो अपनी जीभ को जीत लेता है, उसे पराजित करने की क्षमता किसी भी इंद्रिय में नहीं होती। अस्वाद महान् तप है।
हमारा शरीर बहुत चंचल है। हमारी इंद्रियाँ बहुत चंचल हैं। हमारा मन बहुत चंचल है। बंदर बहुत चपल होता है। उसका स्थिर-शांत बैठ जाना भी एक प्रकार की चपलता है। हमारी चपलता बंदर की भाँति स्वाभाविक नहीं, किंतु कार्य-हेतुक है। हमारे शरीर की स्थिति सधती है, वह तपस्या है। तपस्या केवल शारीरिक ही नहीं होती, वाचिक और मानसिक भी होती है। तपस्या का भूख से अनुबंध नहीं है। हमारा मन पवित्र होता है तो हम खाकर भी तपस्या कर सकते हैं। मन की अपवित्रता में भूखे रहकर भी तपस्या नहीं कर पाते।
सूर्य से हमारी प्राणशक्ति को पोष मिलता है। तपस्या से हमारी आत्म-शक्ति को पोष मिलता है। गीता में कहा है-‘यह शरीर है। इंद्रियाँ शरीर से अग्रणी हैं, बुद्धि मन से अग्रणी है और आत्मा बुद्धि से अग्रणी है।’
कोरा शरीर तपता है तब अहं बढ़ता है। शरीर और इंद्रियाँ दोनों तपते हैं तब संयम बढ़ता है। शरीर, इंद्रिय और मन तीनों तपते हैं, तब आत्मा का द्वारा खुलता है। शरीर, इंद्रिय, मन और बुद्धि चारों तपते हैं, तब आत्मा का साक्षात् होता है। यह वह भूमिका है, जिसमें तपस्या स्वयं कृतकृत्य हो जाती है।
त्याग
मंदिर का प्रांगण। संध्या की वेला। पुजारी आया। दीप जला भगवान् की आरती की। दीप को दीवट पर लाकर रख दिया। पतली-सी दीपशिखा पवन के इशारे पर इधर-उधर घूम रही है। उससे एक बहुत पतली-सी धूमशिखा निकल रही है। त्याज्य को त्यागना अनिवार्य है। दीप इसीलिए प्रकाश दे रहा है कि वह त्याज्य को त्याग रहा है। हम प्रातःकाल घूमने जाते हैं। चलते-चलते पूरक करते हैं। धीमे-धीमे प्राणवायु को भरते हैं। फिर उसका रेचन करते हैं-बहुत धीमे-धीमे उसे छोड़ते हैं। हम केवल प्राणवायु को ही नहीं छोड़ते, उसके साथ दूषित वायु का कार्बन को भी छोड़ते हैं। हम इसीलिए स्वस्थ हैं कि त्याज्य को त्यागना जानते हैं।
जो धन का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे प्रकाश की उपेक्षा कर धुएँ को अपने भीतर संचित कर रहे हैं।
जो सत्ता का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे स्वास्थ्य की उपेक्षा कर दूषित वायु को अपने भीतर संचित कर रहे हैं।
त्याग की प्रतिध्वनि केवल अध्यात्म के मंदिर में ही नहीं हो रही है, व्यवहार के कण-कण में भी त्याग प्रतिबिंबित हो रहा है।
भोग से शौर्य का दीप बुझता है और त्याग से वह प्रज्वलित होता है। भोग से जीवन का फूल मुरझाता है और त्याग से वह खिलता है।
विषय दुनिया के अंचल में है और वासना हमारे मन के कोने में है। विषय को त्यागकर हम वासना की जड़ को उखाड़ने के लिए आगे बढ़ें, वह त्याग है। विषय को त्यागकर यदि हम वासना को उद्दीप्त कर डालें तो वह त्याग नहीं, त्याग का आभास है।
सच यह है कि हम लोग विषय को त्यागने की बात जितनी जानते हैं, उतनी वासना को त्यागने की बात नहीं जानते। इसीलिए हम बहुत बार त्याग करके भी अत्याग की अनुभूति करते हैं।
त्याग तभी होता है, जब अनुराग का स्रोत बाहर से मुड़कर भीतर बहने लग जाता है। एक व्यक्ति ने आवेगों को सुलझाते हुए कहा-‘बंधुवर क्रोध! तुम अपना दूसरा घर ढूँढ़ लो। भाई मान! तुम भी चले जाओ। देवी माया! तुम यहाँ नहीं रह सकती। मित्र लोभ! तुम भी चले जाओ। मेरे अनुराग का स्रोत अब भीतर प्रवाहित होने लगा है। इसलिए वह और तुम एक साथ नहीं रह सकते।’
वासना को देखते रहो, उसकी सत्ता हिल उठेगी और विषय की आसक्ति अपने आप विलीन हो जाएगी।
ब्रह्मचर्य
एक आदमी संन्यासी के पास गया और धन की याचना की। संन्यासी ने कहा-‘मेरे पास कुछ भी नहीं है।’ उसने बहुत आग्रह किया तो संन्यासी ने कहा-‘जाओ, सामने नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा है, वह ले आओ।’ वह गया और पत्थर ले आया। संन्यासी ने कहा-‘यह पारसमणि है, इससे लोहा सोना बन जाता है।’ वह बहुत प्रसन्न हुआ। संन्यासी को प्रणाम कर वहाँ से चला। थोड़ी दूर जाने पर उसके मन में विकल्प उठा-पारसमणि ही यदि सबसे बढ़िया कोई वस्तु है। वह फिर आया और प्रणाम कर बोला-‘बाबा! मुझे यह पारसमणि नहीं चाहिए, मुझे वह दो जिसे पाकर तुमने इस पारसमणि को ठुकरा दिया।’
पारस को ठुकराने की शक्ति किसी भौतिक सत्ता में नहीं हो सकती। अध्यात्म ही एक ऐसी सत्ता है, जिसकी दृष्टि में पारसमणि का पत्थर से अधिक कोई उपयोग नहीं है। काम-भोग को कोई पारसमणि मान ले किंतु वह सबसे बढ़िया नहीं है, सुखानुभूति का सर्वाधिक साधन नहीं है। आनंद के स्रोत का साक्षात् होने पर आदमी उसे वैसे ही ठुकरा देता है, जैसे संन्यासी ने पारसमणि को ठुकराया था।
उपनिषद् के ऋषियों ने कहा-आनन्दं ब्रह्म! आनंद ब्रह्म है। यदि आनंद नहीं होता तो हमारा जीवन बुझी हुई ज्योति जैसा होता। हमारे शरीर में से एक रश्मिपुंज प्रसृत हो रहा है। हमारी आँखों में प्रकाश तरंगित हो रहा हैं यह सब क्या है? हमारे आनंद की अभिव्यक्ति है। हमारी चेतना में आनंद का सिंधु लहरा रहा है। हमारा मन आनंद की खोज में बाहर दौड़ रहा है। ठीक कस्तूरी-मृग की दशा हो रही है। कस्तूरी नाभि में है और वह कस्तूरी की खोज में मारा-मारा फिर रहा है। विषयों की अनुभूति में सुख नहीं है, ऐसा अभिमत नहीं है। विषयों से प्राप्त होने वाला सुख असीम नहीं है, शारीरिक तथा मानसिक अनिष्ट की परिणति से मुक्त नहीं है। चेतना में आनंद सहज स्फूर्त है, असीम है और उसके परिणाम में ग्लानि की अनुभूति नहीं है।
कुछ मानस शास्त्रियों का मत है कि ब्रह्मचर्य इच्छाओं का दमन है और इच्छाओं का दमन करने से आदमी पागल बनता है। उनकी दृष्टि से ब्रह्मचर्य निषेधात्मक प्रवृत्ति है। इसलिए उसकी उपादेयता में उन्हें विश्वास नहीं है।
भारतीय चिंतन इससे भिन्न रहा है। भारतीय मनीषी ब्रह्मचर्य को सृजनात्मक शक्ति मानते हैं। उसमें निषेध केवल बाह्य उद्दीपनों का है। वह आंतरिक चेतना के विकास और मुक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली साधन है, इसलिए उसकी सृजनात्मक शक्ति बहुत व्यापक है।
योग के आचार्यों ने हमारे शरीर में सात चक्र माने हैं। उनमें दूसरे चक्र का नाम स्वाधिष्ठान है। यह कामचक्र है। यह चक्र विकसित नहीं होता तब मनुष्य वासना में रस लेता है। इस चक्र को हम विशुद्धिचक्र (कंठ-मणि) से संपृक्त कर देते हैं तब हमारी आनंदानुभूति का स्रोत बदल जाता है। हम आज्ञाचक्र या भूचक्र को विकसित कर लेते हैं; तब हमारी आनंदानुभूति का मार्ग बदल जाता है। मानसशास्त्र के अनुसार काम का उदात्तीकरण होता है। योगशास्त्र के अनुसार कामचक्र का ऊर्ध्वीकरण होता है। इस ऊर्ध्वीकरण से हमारे मन का सहज आनंद के साथ संपर्क स्थापित हो जाता है। सुखानुभूति के द्वार को बंद कर कोई आदमी ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। किंतु आनंदानुभूति के द्वार को खोलकर ही ब्रह्मचारी बन सकता है।
(समाप्त)