धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

अमूर्त का साक्षात्कार

नौ तत्त्व, छः काय आदि को समझना और तदुपयुक्त आचार को पालना धार्मिक व्यक्ति के लिए, श्रावक के लिए अपेक्षित है। दोहों में मधुर प्रेरणा दी गई है-
जीवाजीव जाण्या नहीं, नहिं जाणी छह काय।
सूनै घर रा पावणा, ज्यूं आया त्यूं जाय।।

जीवाजीव जाण्या सही, सही जाणी छह काय।
बस्तै घर रा पावणा, मीठा भोजन खाय।।
जीव, अजीव, छह कार्य को न जानने वाला और अहिंसा का आचरण न करने वाला मनुष्य उस मेहमान के समान है जो शून्य घर में जाकर आतिथ्य प्राप्त करना चाहता है और जीव, अजीव, छह काय को समझने वाला उस व्यक्ति के समान है जो अपने स्नेही जनों से भरे घर में मेहमान बनता है।
अधिगमज सम्यक् दर्शन की प्राप्ति के लिए नौ तत्त्वों को समझना भी व्यावहारिक स्तर की कसौटी के रूप में माना जाता है। सम्यक् दर्शन के अभाव में कोरा क्रियात्मक आचार बहुत कल्याणकारी नहीं होता। प्रज्ञापुरुष श्रीमज्जयाचार्य के ये उद्गार स्पष्ट उद्घोषणा करते हैं-
जे समकित बिण म्हैं, चारित्र नीं किरिया रे।
बार अनंत करी, पिण काज न सरिया रे।।
भावै भावना।।
हिव समकित चारित दोनूं गुण पायो रे।
वेदण समपणै, सह्यां लाभ सवायो रे।।
भावै भावना।।
हमने सम्यक्त्व के बिना कितनी बार चारित्र-क्रिया पाल ली होगी, परंतु उससे काज (प्रयोजन) सिद्ध नहीं हुआ। अब सम्यक्त्व और चारित्र दोनों गुणों की प्राप्त हुई है। समता से वेदना को सहने से सवाया लाभ हो सकता है, संवर के साथ विशेष निर्जरा भी हो सकती है।
तत्त्व का अर्थ है पदार्थ, पारमार्थिक वस्तु या सत्। जो है वह तत्त्व है। नौ तत्त्वों में पाँच जीव और चार अजीव हैं। जीव, आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष को जीव माना गया है। आश्रव के विषय में मतभेद भी है। परंतु वह यहाँ चर्चनीय नहीं है। अजीव, पुण्य, पाप और बंध को अजीव माना गया है।
जीव आदि पाँचों अमूर्त्त (अरूपी) हैं। पुण्य, पाप और बंध मूर्त्त (रूपी) है। अजीव मूर्त्त, अमूर्त्त दोनों हैं।
जीव अमूर्त है फिर भी उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। आँखों से तो अमूर्त्त क्या, कुछ मूर्त्त पदार्थ भी नहीं देखे जा सकते।
संन्यासी ने आत्मा के बारे में विशद व्याख्या को। प्रवचन के बाद एक युवक बोला-बाबा! मैं यों आत्मा को नहीं मान सकता। मुझे तो आप आत्मा को हाथ में लेकर दिखाओ, तभी उसे मान सकता हूँ।
संन्यासी ने युक्ति-बल का उपयोग करते हुए कहा-क्या तुमने कभी सपना देखा है?
हाँ, महाराज! गत रात में ही एक सुंदर सपना देखा है।
वह सपना मुझे हाथ में लेकर दिखाओ तो मैं मानूँ कि तुमने सपना देखा है-संन्यासी ने कहा।
युवक का प्रश्न समाहित हो गया। न सपने को हाथ में लेकर दिखाया जा सकता है और न ही आत्मा को। जीव वह है जिसमें चैतन्य है, जानने की प्रवृत्ति है, अनुभव है। जीव के मुख्य दो भेद हैं-सिद्ध और संसारी। जो जीव कर्मरहित, अशरीर, अवाक्, अमन और जन्म-मरण की परंपरा से सर्वथा मुक्त हो लोकाग्र में स्थित होते हैं वे सिद्ध जीव कहलाते हैं। जो जीव संसरण करते हैं, एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते हैं, वे संसारी जीव होते हैं। सिद्ध जीवों को नवतत्त्व के नवें भेद ‘मोक्ष’ में लिया जा सकता है।
संसारी जीवों के भिन्न-भिन्न वर्गीकरण होते हैं, जैसे-
(1) त्रस-जो सुख प्राप्ति और दुखमुक्ति के लिए गति-क्रिया करते हैं, वे त्रस हैं।
स्थावर-जो इस तरह गति क्रिया नहीं करते हैं, वे स्थावर होते हैं।
(2) भव्य-जिन जीवों में मोक्ष में जाने की योग्यता होती है, वे भव्य कहलाते हैं।
अभव्य-जिनमें वह योग्यता नहीं होती है, वे अभव्य कहलाते हैं।
इस प्रकार विभिन्न वर्गीकरण यहाँ प्रस्तुत किए जा सकते हैं। त्रस जीवों के चार प्रकार होते हैं-द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रिय।
स्थावर जीवों के पाँच भेद होते हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक।
पंचेन्द्रिय जीवों के चार प्रकार होते हैं-नारक, निर्यंच, मनुष्य और देव।
तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के तीन भेद होते हैं-जलचर: पानी में रहने वाले जीव। स्थलचर: भूमि पर रहने वाले जीव। नभचर-आकाश में उड़ने वाले जीव।
जैन दर्शन का जंतु विज्ञान बहुत विस्तृत है।
(क्रमशः)