संबोधि
बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
बारह भावनाएँ
(2) प्रमोद भावना-प्रमोद का अर्थ है-प्रसन्नता। जो स्वयं में प्रसन्न नहीं होता, प्रमोद भावना को समझना उसके लिए कठिन होता है। जो अपना मित्र बनता है, वही प्रमोद-प्रसन्न रह सकता है। जिसकी अपने में प्रसन्नता है उसकी सर्वत्र प्रसन्नता है। वह अप्रसन्नता को देखता नहीं। अपने से जो राजी नहीं है, वही दूसरों के दोष देखता है, दूसरों की प्रसन्नता-विशिष्टता से ईर्ष्या करता है। दूसरों के गुणों को देखकर व्यकित स्वयं का प्रमोद भावना के द्वारा कितना ही भावित करे, किंतु ईर्ष्या की ग्रंथि खुलनी कठिन है, भले ही कुछ देर के लिए मन को तृप्त कर ले। जिसे ईर्ष्या से मुक्त होना है उसे सतत प्रसन्नता का जीवन जीना चाहिए। यह कोई असंभव नहीं है। जो कुछ प्राप्त है, उसमें सदा प्रसन्न रहे। अतृप्ति को पास फटकने न दे। जैसे-जैसे हम अपने से राजी होते जाएँगे, कोई वासना नहीं रहेगी। तब सहज ही दूसरों की विशेषताएँ या अविशेषताएँ हमारे लिए कोई महत्त्वपूर्ण नहीं होंगी। विशेषताएँ जहाँ प्रसन्नता के लिए होंगी वहाँ अविशेषताएँ करुणा उत्पन्न करेंगी। जैसे एक व्यक्ति विकास के चरम पद को पा सकता है वैसे दूसरा भी पा सकता है, किंतु वह अपने को गलत दिशा में नियोजित कर रहा है, इसलिए करुणा का पात्र है। स्वयं में प्रसन्न रहना सीखें, फिर दूसरों से अप्रसन्नता भी नहीं आएगी और दूसरों के गुणों के उत्कर्ष से अप्रसन्नता भी नहीं होगी।
(3) करुणा भावना-करुणा मैत्री का प्रयोग है। जिसका सब जगत् मित्र है, उसकी करुणा भी जागतिक हो जाती है। उस करुणा का संबंध पर-सापेक्ष नहीं होता। वह भीतर का एक बहाव है जो प्रतिपल सरिता की धारा की तरह प्रवाहित रहता है। महावीर, बुद्ध, जीसस आदि संत इसके अनन्यतम उदाहरण हैं। महायान बौद्ध कहते हैं-बुद्ध का निर्वाण हुआ। वे निर्वाण के द्वार पर रुक गए। कहा-भीतर आओ। बुद्ध कहते हैं-जब तक समस्त प्राणी दुःख से मुक्त नहीं होते तब तक मैं भीतर कैसे आ सकता हूँ? प्रेम का हृदय-सागर जब छलछला जाता है, तब करुणा की ऊर्मियाँ तट पर टकराने लगती हैं। जितने भी संत बोले हैं, वे सब प्रेम मैत्री के मूर्त्त रूप थे। और वह प्रेम करुणा के माध्यम से वाणी के द्वारा बाहर बहा है।
अमेरिकन विचारक हेनरी थारो से एक व्यक्ति मिलने के लिए आया। हाथ मिलाया और तत्क्षण हेनरी ने हाथ छोड़ दिया। कहा-यह हाथ जीवंत नहीं है, मृत है। इसमें प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहानुभूति नहीं है। यह उदात्त प्रेम की सूचना है। करुणा, सौहार्द आदि गुण मनुष्य की आंतरिक चेतना की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं।
हजरत उमर ने एक व्यक्ति को किसी प्रांत का गवर्नर नियुक्त किया। नियुक्ति पत्र लिखा और आवश्यक सूचना दी। इतने में एक छोटा बच्चा आ गया। हजरत उसे प्रेम करने लगे। उसने कहा, ‘मेरे दस बच्चे हैं, किंतु मैंने इतना प्रेम और इस प्रकार आलाप-संलाप कभी नहीं किया।’ हजरत ने वह नियुक्त-पत्र वापस लेकर फाड़ते हुए कहा-‘जब तुम अपने बच्चों से भी प्रेम नहीं कर सकते, तब प्रजा से प्रेम की आशा मैं कैसे करूँ?
एक संत के पास एक व्यक्ति संन्यासी बनने आया। संत ने पूछा-‘क्या तुम किसी से प्रेम करते हो?’ उसने कहा-‘आप क्या बात कर रहे हैं? मेरा किसी से प्रेम नहीं है।’ संत ने कहा-‘तब मुश्किल है। प्रेम अगर हो तो उसे व्यापक बनाया जा सकता है, किंतु है ही नहीं, तब मैं क्या करूँ?’ प्रेम, करुणा, सहानुभूति ये अंतस्तल के सूचना-संस्थान हैं। दुखी, पीड़ित, त्रस्त व्यक्ति को देखकर जो करुणा का भाव जागृत होता है वह यह सूचना है कि आपका चित्त कोमल, मृदु और प्रेम से शून्य नहीं है। उसी करुणा को आत्मा से जोड़ना है, दुःख के कारणों को मिटाना है, जिससे अनंत करुणा का जन्म हो सके।
(क्रमशः)